GP:प्रवचनसार - गाथा 82.1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[दंसणसुद्धा] - निज शुद्धात्मा की रुचिरूप, निश्चय सम्यकत्व को साधनेवाले, तीन मूढता आदि पच्चीस दोषों से रहित तत्वार्थ-श्रद्धान लक्षण, दर्शन से शुद्ध - दर्शनशुद्ध हैं । [पुरिसा] - जीव । और वे जीव कैसे हैं? [णाणपहाणा] - उपराग रहित स्वसंवेदन-ज्ञान को साधने वाले वीतराग - सर्वज्ञ द्वारा कहे गये परमागम का अभ्यास लक्षण ज्ञान से प्रधान - ज्ञान से समर्थ - ज्ञान में प्रौढ - ज्ञान प्रधान हैं । और वे जीव कैसे हैं? [समग्गचरियत्था] - विकार रहित, चंचलता रहित आत्मानुभूति लक्षण निश्चय चारित्र को साधने वाले आचारादि शास्त्रों में कहे गये मूलगुणों व उत्तरगुणों के अनुष्ठानादिरूप चारित्र से समग्र - परिपूर्ण - समग्र चारित्रवान हैं, [पूजासक्काररिहा] - द्रव्य व भाव रूप पूजा व गुण - प्रशंसारूप सत्कार - उन दोनों के योग्य हैं । [दाणस्सय हि] - और स्पष्टरूप से दान के योग्य हैं [ते] - वे पहले कहे हुये रत्नत्रय के आधारभूत जीव । [णमो तेसिं] - उन्हें नमस्कार हो - इसप्रकार वे ही नमस्कार-योग्य हैं ।