GP:प्रवचनसार - गाथा 83 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[दव्वादिएसु] - शुद्धात्मादि द्रव्यों में, उन द्रव्यों के अनंत-ज्ञानादि और अस्तित्वादि विशेष - सामान्य लक्षण गुणों में और शुद्वात्म - परिणति लक्षण सिद्धत्वादि पर्यायों में तथा यथासंभव पहले कहे गये तथा आगे कहे जाने वाले द्रव्य-गुण-पर्यायों में [मूढो भावो] - इन पूर्वोक्त द्रव्य-गुण-पर्यायों में, विपरीत अभिप्राय रूप से तत्त्व में संशय उत्पन्न करनेवाला मूढभाव [जीवस्स हवदि मोहो त्ति] - जीव का इसप्रकार का भाव दर्शनमोह है । [खुब्भदि तेणुच्छण्णो] - उस दर्शनमोह से घिरा हुआ, निराकुल आत्म-तत्त्व से विपरीत आकुलता द्वारा क्षोभ, स्वरूप चंचलता, विपरीतता को प्राप्त होता है । क्या करके स्वरूप विपरीतता को प्राप्त होता है? [पप्पा रागं व दोसं वा] - विकार रहित शुद्धात्मा से विपरीत इष्टानिष्ट इन्द्रिय - विषयों में हर्ष-विषाद रूप चारित्रमोह नामक राग-द्वेष को प्राप्तकर स्वरूप-विपरीतता को प्राप्त होता है ।
इससे क्या कहा गया है - यह सब कहने का तात्पर्य क्या है? मोह - दर्शनमोह और राग-द्वेष दोनों चारित्रमोह - इसप्रकर मोह तीन भूमिकावाला - तीन भेदवाला है ।