GP:प्रवचनसार - गाथा 86 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा] जिन-शास्त्र से प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा शुद्धात्मादि पदार्थों को जाननेवाले जीव का निश्चय से । उन्हें जानने का क्या फल है? [खीयदि मोहोवचयो] - उन्हें जानने से विपरीत अभिप्रायरूप संस्कार करनेवाला मोह समूह नष्ट हो जाता है । [तम्हा सत्थं समधिदव्वं] - इसलिये शास्त्र का अच्छी तरह से अध्ययन करना चाहिये ।
वह इसप्रकार - कोई भव्य,
- वीतराग-सर्वज्ञ देव द्वारा कहे गये शास्त्र से 'एक मेरा शाश्वत आत्मा' इत्यादि परमात्मा का उपदेश देने वाले श्रुतज्ञान द्वारा सर्वप्रथम आत्मा को जानता है और
- उसके बाद विशिष्ट अभ्यास के वश से परम-समाधि (स्वरूप-लीनता) के समय रागादि विकल्पों से रहित मानस-प्रत्यक्ष (स्व-संवेदन प्रत्यक्ष) से उसी आत्मा को जानता है, अथवा
- उसीप्रकार अनुमान से जानता है।