GP:प्रवचनसार - गाथा 87 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया] - द्रव्य-गुण और उन द्रव्यों की पर्यायें- तीनों को 'अर्थ' नाम से कहा गया है - इन सभी का अर्थ नाम है - यह अर्थ - भाव है । [तेसु] - उन तीनों द्रव्य-गुण-पर्यायों के मध्य [गुणपज्जयाणं अप्पा] - गुण-पर्यायों का सम्बन्धी आत्मा - स्वभाव है । गुण-पर्यायों का सम्बन्धी आत्मा कौन है? ऐसा पूछने पर [दव्व त्ति उवदेसो] - द्रव्य ही उन गुण-पर्यायों का आत्मा-स्वभाव है - ऐसा उपदेश है । अथवा - द्रव्य का क्या स्वभाव है? ऐसा पूछने पर गुण-पर्यायों का आत्मा - स्वरूप ही उसका स्वभाव है - ऐसा उपदेश है ।
अब यहाँ उसका विस्तार करते है- जिस कारण अनन्तज्ञान-सुख आदि गुणों को और उसीप्रकार अमूर्तत्व, अतीन्द्रियत्व, सिद्धत्व आदि पर्यायों को प्राप्त करता है - उसरूप से परिणमन करता है - उनका आश्रय लेता है, उसकारण अर्थ कहलाता है । अर्थ कौन कहलाता है? शुद्धात्म-द्रव्य अर्थ कहलाता है ।
जिस कारण आधारभूत उस शुद्धात्मद्रव्य को प्राप्त करते हैं - उसरूप से परिणमन करते है - उसका आश्रय लेते हैं, उस कारण वे अर्थ कहलाते हें। वे अर्थ कहलाने वाले कौन हैं? वे अर्थ कहलाने वाले ज्ञानत्व आदि गुण तथा सिद्धत्वादि पर्यायें हैं ।
ज्ञानत्व-सिद्धत्वादि गुण-पर्यायों का आत्मा अर्थात् स्वभाव क्या है? ऐसा पूछने पर शुद्धात्मद्रव्य ही स्वभाव है, अथवा शुद्धात्मद्रव्य का स्वभाव क्या है? ऐसा पूछने पर पूर्वोक्त गुण-पर्यायें ही उसका स्वभाव है।
इसीप्रकार शेष द्रव्य-गुण-पर्यायों की भी अर्थ संज्ञा जानना चाहिये - यह अर्थ है ।