GP:प्रवचनसार - गाथा 92.1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जो तं दिट्ठो तुट्ठो] - जो भव्यों में प्रधान जीव उपराग रहित शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण निश्चय धर्म परिणत पहले (९९ वीं गाथा मे) कहे (स्वरूप वाले) मुनिराज को देखकर (विद्यमान) गुणों से पूर्ण भरे हुये होने के कारण अनुराग से संतुष्ट होता हुआ । संतुष्ट होता हुआ क्या करता है? [अब्भुट्ठित्ता करेदि सक्कारं] - उठकर मोक्ष के साधक सम्यक्त्वादि गुणों की प्रशंसा करता है । [वंदणणमंसणादिहिं तत्तो सो धम्ममादियादि] - "तप से सिद्ध, नय से सिद्ध इत्यादि रूप से वन्दना करता है, आपको नमस्कार हो", इसप्रकार नमस्कार करता है, इत्यादि रूप से उनके प्रति विशेष भक्ति द्वारा वह भव्य उन मुनिवरों से पुण्य ग्रहण करता है - उनके माध्यम से उस समय पुण्य बन्ध करता है ।