GP:प्रवचनसार - गाथा 92.2 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[तेण णरा व तिरिच्छा] - उस पूर्वोक्त पुण्य से इस वर्तमान भव में मनुष्य और तिर्यंच [देविं वा माणुसिं गदिं पप्पा] - दूसरे भव में देव अथवा मनुष्य गति प्राप्त कर [विहविस्सरियेहिं सया संपुण्णमणोरहा होंति] - राजाधिराज, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री आदि परिपूर्ण सम्पत्ति विभव कहलाती है, आज्ञा के फल को ऐश्वर्य कहते हैं । उन विभव और ऐश्वर्य द्वारा परिपूर्ण मनोरथ वाले होते हैं । वही पुण्य भोगादि निदान रहित होने से यदि सम्यक्त्व पूर्वक है तो उससे परम्परा मोक्ष प्राप्त करते हैं - यह भाव है ।
(इस प्रकार चार स्वतंत्र गाथायें पूर्ण हुई)
इसप्रकार [श्री जयसेनाचार्य] कृत [तात्पर्य वृत्ति] में पूर्वोक्त प्रकार से [एस सुरासुरमणुसिंदवंदिय] इस प्रकार इस गाथा को आदि लेकर बहत्तर द्वारा शुद्धोपयोगाधिकार; उसके बाद [देवदजदिगुरुपूजासु] - इत्यादि पच्चीस गाथाओं द्वारा 'ज्ञानकण्डिका चतुष्टय' नामक दूसरा अधिकार; और उसके बाद [सत्ता सम्बद्धदे] इत्यादि सम्यक्त्व कथन रूप से पहली गाथा, रत्नत्रय के आधारभूत पुरुष के ही धर्म संभव है, इसप्रकार दो स्वतंत्र गाथाएं; उन निश्चय धर्मधारी मुनिराज की जो भक्ति करता है, उसके फल कथनरूप से [जो तं दिट्ठा] 'इत्यादि दो गाथायें - इस प्रकार पृथग्भूत चार गाथाओं से सहित दो अधिकारों द्वारा एक सौ एक गाथाओं में निबद्ध [ज्ञानतत्व प्रतिपादक] नामक पहला महाधिकार पूर्ण हुआ ।