GP:प्रवचनसार - गाथा 97 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
इस विश्व में,
- विचित्रता को विस्तारित करते हुए (विविधता-अनेकता को दिखाते हुए),
- अन्य द्रव्यों से १व्यावृत्त रहकर प्रवर्तमान, और
- प्रत्येक द्रव्य की सीमा को बाँधते हुए
- विचित्रता के विस्तार को अस्त करता हुआ,
- सर्व द्रव्यों में प्रवृत्त होकर रहने वाला, और
- प्रत्येक द्रव्य की बँधी हुई सीमा की अवगणना करता हुआ
जैसे
- बहुत से, अनेक प्रकार के वृक्षों को अपने अपने विशेष-लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले अनेकत्व को, सामान्य लक्षणभूत ४सादृश्य-दर्शक वृक्षत्व से उत्पन्न होने वाला एकत्व ५तिरोहित (अदृश्य) कर देता है, इसी प्रकार बहुत से, अनेक प्रकार के द्रव्यों को अपने-अपने विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले अनेकत्व को, सामान्य-लक्षणभूत सादृश्य-दर्शक सत्पने से ('सत्' ऐसे भाव से, अस्तित्व से, 'है' पने से) उत्पन्न होने वाला एकत्व तिरोहित कर देता है । और
- जैसे उन वृक्षों के विषय में सामान्य-लक्षणभूत सादृश्य-दर्शक वृक्षत्व से उत्पन्न होने वाले एकत्व से तिरोहित होने पर भी (अपने-अपने) विशेष-लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाला अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है, (बना रहता है, नष्ट नहीं होता); उसी प्रकार सर्व द्रव्यों के विषय में भी सामान्य-लक्षणभूत सादृश्य-दर्शक सत्-पने से उत्पन्न होने वाले एकत्व से तिरोहित होने पर भी (अपने-अपने) विशेष-लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाला अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है ।
(इस प्रकार सादृश्य अस्तित्व का निरूपण हुआ) ॥९७॥
१व्यावृत = पृथक्; अलग; भिन्न ।
२सर्वगत = सर्व में व्यापनेवाला ।
३परामर्श = स्पर्श; विचार; लक्ष; स्मरण ।
४सादृश्य = समानत्व ।
५तिरोहित = तिरोभूत; आच्छादित; अदृश्य ।