GP:प्रवचनसार - गाथा 98 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[दव्वं सहावसिद्धं] द्रव्य-परमात्मद्रव्य स्वभावसिद्ध है । परमात्मद्रव्य स्वभावसिद्ध कैसे है? अनादि-अनन्त अन्य कारणों से निरपेक्ष स्वयं से ही सिद्ध केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत, हमेशा आनंदमयी एकरूप सुखरूपी अमृतरसमयी परमसमतारस भाव से परिणत सभी शुद्धात्म प्रदेशो में परिपूर्ण भरे हुए शुद्ध उपादानभूत अपने स्वभाव से निष्पन्न होने के कारण परमात्मद्रव्य स्वभावसिद्ध है । और जो स्वभावसिद्ध नहीं है वह द्रव्य भी नहीं है । द्वयणुक आदि पुद्गलस्कंध पर्यायों के समान और मनुष्यादि जीव पर्यायों के समान स्वभाव-सिद्ध नहीं होने वाला द्रव्य भी नहीं है । [सदिति] जैसे जो स्वभाव से सिद्ध है वह द्रव्य है, उसी प्रकार 'सत्' ऐसा सत्ता का लक्षण भी स्वभाव से ही है, भिन्न सत्ता के समवाय से सत् नहीं है ।
अथवा, जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है, उसी प्रकार उसका जो वह सत्ता गुण है वह भी स्वभावसिद्ध ही है । द्रव्य के समान उसका गुण सत् स्वभावसिद्ध कैसे है? यदि प्रश्न हो तो- सत्ता और द्रव्य के संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी दण्ड और दण्डी के समान प्रदेश भेद का अभाव होने से; द्रव्य का गुण होने से; द्रव्य के समान सत् भी स्वभावसिद्ध है ।
उपर्युक्त यह सब कौन कहते हैं? [जिणा तच्चदो समक्खादा] जिनेन्द्र भगवान रूप कर्ता वास्तव में भलीभांति यह कहते हैं, [सिद्धं तह आगमदो] द्रव्यार्थिकनय से परम्परा की अपेक्षा अनादि-अनन्त आगम से भी वैसा ही सिद्ध है, [णेच्छदि जो सो हि परसमओ] जो इस वस्तुस्वरूप को नहीं मानता है, वह स्पष्ट परसमय-मिथ्यादृष्टि है । इसप्रकार जैसे परमात्मद्रव्य स्वभाव से सिद्ध है, उसीप्रकार सभी द्रव्यों को जानना चाहिये ।
यहाँ, द्रव्य किसी भी पुरुष के द्वारा नहीं किया गया है, सत्ता गुण भी द्रव्य से भिन्न नहीं है - यह अभिप्राय है ॥१०८॥