GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 106 - टीका हिंदी
From जैनकोष
प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी-पर्व के दिनों में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चार प्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवास कहलाता है । यहाँ पर जो 'सदा' शब्द दिया है, उससे यह सिद्ध होता है कि चार प्रकार के आहार का त्याग सदा के लिए अर्थात् जीवनपर्यन्त की प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी के लिए होना अनिवार्य है । यह त्याग व्रत की भावना से होना चाहिए, न कि लोकव्यवहार में किये गये धरणा आदि की भावना से अर्थात् अपनी किसी मांग को स्वीकार करने के लिए त्याग आदि करना धरणा है। ऐसे त्याग को प्रोषधोपवास नहीं कहते हैं ।