GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 113 - टीका हिंदी
From जैनकोष
सम्यग्दर्शनादि गुण से सहित मुनियों का आहार आदि दान के द्वारा जो गौरव और आदर किया जाता है, वह दान कहलाता है । जीवघात के स्थान को सूना कहते हैं । सूना के पाँच भेद हैं । जैसे कि कहा है -- खण्डनी-ऊखली से कूटना, पेषणी-चक्की से पीसना, चुल्ली-चूल्हा जलाना, उदकुम्भ-पानी भरना और प्रमार्जिनी-बुहारी से जमीन झाडऩा । गृहस्थ के पाँच हिंसा के कार्य होते हैं, इसलिए गृहस्थ मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता । खेती आदि व्यापार सम्बन्धी कार्य आरम्भ कहलाते हैं । जो पंचसूना और आरम्भ से रहित हैं, वे साधु हैं । ऐसे साधुओं को सात गुणों से सहित दाता के द्वारा दान दिया जाता है । जैसा कि कहा है -- श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, सत्य ये सात गुण जिस दाता के होते हैं, वह दाता प्रशंसनीय कहलाता है । इन सात गुणों के सिवाय दाता की शुद्धि होना भी आवश्यक है । दाता की शुद्धता तीन प्रकार से बतलाई है, कुल से, आचार से और शरीर से । जिसकी वंश परम्परा शुद्ध है, वह कुलशुद्धि कही जाती है। जिसका आचरण शुद्ध है, वह आचार शुद्धि है । जिसने स्नानादि कर शुद्ध वस्त्र पहने हैं, जो हीनांग, विकलांग नहीं है तथा जिसके शरीर से खून पीपादि नहीं झरते हों, वह कायशुद्धि है । दान, नवधाभक्तिपूर्वक दिया जाता है । कहा भी है -- पडग़ाहन, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, प्रणाम, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और आहारशुद्धि पुण्योपार्जन के इन नौ कारणों के साथ आहारदान दिया जाता है । यही नवधाभक्ति कहलाती है ।