GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 124-125 - टीका हिंदी
From जैनकोष
उपकारक वस्तु में जो प्रीति उत्पन्न होती है, उसे स्नेह कहते हैं । अनुपकारक वस्तु में जो द्वेष के भाव होते हैं, उसे वैर कहते हैं । पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं और मैं उनका हूँ, इस प्रकार 'ममेदं' भाव को संग-परिग्रह कहते हैं । वह दो प्रकार का है- बाह्यपरिग्रह और आभ्यन्तरपरिग्रह । सल्लेखना धारण करने वाला पुरुष इन सब परिग्रहों को छोडक़र निर्मलचित्त होता हुआ स्वजन और परिजनों को प्रिय वचनों के द्वारा क्षमा करे और उनसे अपने आपको क्षमा करावे । जो हिंसादि पाप स्वयं किया जाता है, वह कृत है । जो दूसरों के द्वारा कराया जाता है, उसे कारित कहते हैं तथा दूसरे के द्वारा किये हुए पाप को जो मन से अच्छा समझा जाता है, उसे अनुमत कहते हैं । इन सभी पापों की निश्चल भाव से आलोचना कर मरणपर्यन्त स्थिर रहने वाले अहिंसादि महाव्रतों को धारण करें तथा आलोचना के दस दोषों से रहित होकर आलोचना करे । आलोचना के दस दोष इस प्रकार हैं- १. आकम्पित, २. अनुमानित, ३. दृष्ट, ४. बादर, ५. सूक्ष्म, ६. छन्न, ७. शब्दाकुलित, ८. बहुजन, ९. अव्यक्त और १०. तत्सेवी ।