GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 12 - टीका हिंदी
From जैनकोष
अनास्था-श्रद्धा की व्याख्या दो प्रकार से की है। न विद्यते आस्था शाश्वतबुद्धिर्यस्यां सा अनास्था जिसमें नित्यपने की बुद्धि नहीं है इस प्रकार अनास्था को श्रद्धा का विशेषण बनाया है । इस पक्ष में अनास्था और श्रद्धा इन दोनों पदों को समास रहित ग्रहण किया है । दूसरे पक्ष में न आस्था अनास्था तस्यां वा श्रद्धा अनास्था श्रद्धा अरुचिरित्यर्थ: अरुचि में अथवा अरुचि के द्वारा होने वाली श्रद्धा । पञ्चेन्द्रिय विषय सम्बन्धी सुख कर्मों के अधीन हैं,विनाश से सहित हैं, इनका उदय मानसिक तथा शारीरिक दु:खों से मिला हुआ है तथा पाप का कारण है, अशुभ कर्मों का बन्ध कराने में निमित्त है, ऐसे सुख में शाश्वत बुद्धि से रहित श्रद्धा करना वह सम्यग्दर्शन का नि:कांक्षितत्त्व अङ्ग कहलाता है ।