GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 130 - टीका हिंदी
From जैनकोष
सल्लेखना धारण करने का फल मोक्ष और स्वर्गादिक के सुखों की प्राप्ति है । नि:श्रेयस-निर्वाण को कहते हैं । वह सुख के समुद्ररूप है । नि:श्रेयस- मोक्ष निस्तीर है अर्थात् आत्मोत्थसुख अन्त से रहित है । अहमिन्द्रादिक के पद को अभ्युदय कहते हैं । यह दुस्तर है अर्थात् सागरों पर्यन्त काल तक अहमिन्द्रादिक के सुखों का पान करते हैं । और शारीरिक, मानसिक आदि सभी दु:खों से अछूते रहते हैं, इस प्रकार दोनों ही पद सुख के समुद्ररूप हैं । सल्लेखना लेने वाला दोनों फलों को प्राप्त करता हुआ पीतधर्मा होता है अर्थात् वह उत्तमक्षमादिरूप अथवा चारित्ररूप धर्म का पान करने वाला होता है ।