GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 137 - टीका हिंदी
From जैनकोष
'सम्यग्दर्शनं शुद्धं निरतिचारं यस्य स:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसका सम्यग्दर्शन शंकादि दोषों से रहित होने के कारण शुद्ध है, अतिचार रहित है । जो संसार, शरीर और भोगों से उदासीन है । 'तत्त्वानां व्रतानां पन्था मार्गो मद्यादिनिवृत्तिलक्षणा अष्टमूलगुणास्ते गृह्या: पक्षा यस्य' व्रतों के मार्गस्वरूप मद्यादि के त्यागरूप आठ मूलगुणों को जिसने ग्रहण किया है तथा पञ्च परमेष्ठियों के चरणों की जिसने शरण ग्रहण की है, जो दु:खों से रक्षा करने के उपायभूत हैं, ऐसा श्रद्धालु दार्शनिक श्रावक कहलाता है ।