GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 149 - टीका हिंदी
From जैनकोष
यहाँ पर स्वयं शब्द आत्मा का वाचक है । जिसके कलंकदोष विशेषरूप से नष्ट हो गये हैं, उसे वीतकलंक कहते हैं । यह वीतकलङ्क विशेषण विद्या / ज्ञान, दृष्टि / दर्शन और क्रिया / चारित्र इन तीनों के साथ लगता है । जिस भव्य ने अपनी आत्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूपी रत्नों का करण्ड-पिटारा बनाया है अर्थात् जिसकी आत्मा में ये प्रकट हो गये हैं, उसे सर्व अर्थ -- धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप समस्त अर्थों की सिद्धि उस प्रकार हो जाती है, जिस प्रकार पति की इच्छा रखने वाली कन्या स्वयंवर विधान में अपनी इच्छा से पति को प्राप्त करती है ।