GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 16 - टीका हिंदी
From जैनकोष
स्थितीकरण में जो 'च्चि' प्रत्यय हुआ है वह 'अभूततद्भाव' अर्थ में हुआ है । इसलिए 'अस्थितस्य दर्शनादेश्चलितस्य स्थितिकरणं स्थितीकरणं' अर्थात् दर्शनादि से चलायमान होते हुए पुरुष को फिर से उसी व्रत में स्थित कर देना स्थितीकरण अङ्ग है । कोई जीव बाह्य आचरण का यथायोग्य पालन करता हुआ भी श्रद्धा से भ्रष्ट हो जाता है तथा कोई दृढ़ श्रद्धानी होता हुआ भी शारीरिक अशक्तता या प्रमादादि के कारण बाह्य आचरण से भ्रष्ट है । कोई जीव तीव्र पाप के कारण श्रद्धान-आचरण दोनों से भ्रष्ट है । धर्म में प्रेम रखने वाले जनों को चाहिए कि वे उन्हें फिर से उसी व्रतादि में स्थित करें । यह सम्यग्दर्शन का स्थितीकरण अंग है ।