GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 32 - टीका हिंदी
From जैनकोष
विद्या-मतिज्ञानादि और वृत्त-सामायिकादि चारित्र इनका प्रादुर्भाव, स्थिति-जैसा वस्तु का स्वरूप है वैसा जानना, तथा कर्म निर्जरा के हेतुरूप से अवस्थान होना, वृद्धि-उत्पन्न होकर आगे-आगे बढ़ते जाना फलोदय-देवादिक की पूजा से स्वर्ग-मोक्ष फल की प्राप्ति होना है। जिस प्रकार 'बीजाभावे तरोरिव' मूल कारणरूप बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार मूल कारणभूत सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान तथा चारित्र की न उत्पत्ति होती है, न स्थिति होती है, न वृद्धि होती है और न फल की प्राप्ति ही होती है ।