GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 42 - टीका हिंदी
From जैनकोष
ज्ञान शब्द से यहाँ भावश्रुतज्ञान विवक्षित है। सर्वज्ञ जानने को ज्ञान कहते हैं। सम्यग्ज्ञान पदार्थों को सन्देह रहित जानता है और वस्तु का जैसा स्वरूप है, वैसा ही जानता है, विपरीतता रहित जानता है, न्यूनता रहित समस्त वस्तु-स्वरूप को जानता है अर्थात् परस्पर विरोधी नित्यानित्यादि दो धर्मों में से किसी एक को छोडक़र नहीं जानता, किन्तु उभय धर्मों से युक्त पूर्ण वस्तु को जानता है, अधिकता रहित जानता है अर्थात् वस्तु में नित्य-एकान्त अथवा क्षणिक-एकान्त आदि जो धर्म अविद्य-मान हैं, उनको कल्पित करके नहीं जानता, यदि कल्पित करके जानेगा तो अधिक अर्थ को जानने वाला हो जायेगा ।
अत: इन चार विशेषणों से सहित ज्ञान यथावत् वस्तु-तत्त्व को जानता है । इस तरह स्याद्वाद-रूप श्रुत-ज्ञान भी जीवादि समस्त पदार्थों को उनकी सब विशेषताओं सहित जानता है, क्योंकि उसमें भी केवलज्ञान के समान पूर्णरूप से वस्तु-स्वरूप को प्रकाशित करने का सामर्थ्य है । कहा भी है-
स्याद्वादरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान ये दोनों ही समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले हैं । इनमें भेद केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष की अपेक्षा है अर्थात् केवलज्ञान प्रत्यक्ष-रूप से जानता है और श्रुत-ज्ञान परोक्ष-रूप से जानता है । जो श्रुत-ज्ञान वस्तु के एक धर्म को ही ग्रहण करता है, वह अवस्तु अर्थात् मिथ्या होता है ।
इस प्रकार यहाँ भावश्रुत-ज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान ही धर्म शब्द से अभिप्रेत है, क्योंकि वही मूलकारण होने से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त कराने का सामर्थ्य रखता है ।