GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 44 - टीका हिंदी
From जैनकोष
जिस प्रकार सम्यग्श्रुतज्ञान प्रथमानुयोग को जानता है, उसी प्रकार करणानुयोग को भी जानता है । करणानुयोग में लोक-अलोक का विभाग तथा पंचसंग्रह आदि भी समाविष्ट हैं । यह करणानुयोग दर्पण के समान है । अर्थात् जिस प्रकार दर्पण मुख आदि के यथार्थ स्वरूप का दर्शक है, उसी प्रकार करणानुयोग भी स्व-विषय का प्रकाशक होता है । जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । यह लोक तीन सौ तैंतालीस राजू प्रमाण है । इसके विपरीत अनन्त प्रमाणरूप जो शुद्ध-परद्रव्यों के संसर्ग से रहित आकाश है, वह अलोक कहलाता है ।
उत्सर्पिण-अवसर्पिणी आदि काल के भेदों को युग कहते हैं । इनमें सुखमादि छह काल का परिवर्तन होता है, वह युग-परिवर्तन है । नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देवादि लक्षण वाली चार गतियाँ हैं । करणानुयोग इन सबका विशद् वर्णन करने के लिए दर्पण के समान है ।