GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 46 - टीका हिंदी
From जैनकोष
'द्रव्यानुयोग दीपो' द्रव्यानुयोग सिद्धान्त सूत्र तत्त्वार्थसूत्रादिरूप द्रव्यागमरूप दीपक है । उपयोग लक्षण वाला जीव द्रव्य कहलाता है, इससे विपरीत उपयोग लक्षण से रहित अजीवद्रव्य है । सातावेदनीय, शुभायु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुण्य कर्म कहलाते हैं, इससे विपरीत असातावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम और अशुभ गोत्र ये पाप कर्म कहलाते हैं । इन सबके मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति के भेद से अनेक भेद हैं । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप हेतुओं से आत्मा और कर्म का जो परस्पर संश्लेष होता है, उसे बन्ध कहते हैं । बन्ध के हेतुओं के अभावरूप संवर और निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना मोक्ष कहलाता है । श्लोक में आये हुए 'च' शब्द से आस्रव, संवर, निर्जरा का भी ग्रहण होता है । इस प्रकार द्रव्यानुयोगरूपी दीपक नौ पदार्थों को श्रुतविद्या-भावश्रुतज्ञानरूपी प्रकाश प्रकाशित करता है अर्थात् जानता है ।