GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 48 - टीका हिंदी
From जैनकोष
रागद्वेष की निवृत्ति से हिंसादि पापों की निवृत्ति स्वत: हो जाती है । तात्पर्य यह है कि वर्तमान में जिन रागादि भावों की प्रवृत्ति है उनका क्षयोपशमादि होने पर हिंसादि पापों का त्यागरूप चारित्र होता है । तदनन्तर आगामी काल में उत्पन्न होने वाले रागादि भावों की निवृत्ति भी हो जाती है, इसी प्रकार आगे-आगे प्रकृष्ट से प्रकृष्टतर और प्रकृष्टतम निवृत्ति होती जाती है । तथा ऐसा होने पर हिंसादि पापों की स्वयं निवृत्ति हो जाती है । देशसंयतादि गुणस्थानों में रागादिभाव और हिंसादि पापों की निवृत्ति वहाँ तक होती जाती है, जहाँ तक कि पूर्णरूप से रागादि का क्षय और उससे होने वाली समस्त हिंसादि पापों के त्यागरूप लक्षण वाला परम उदासीनता स्वरूप परमोत्कृष्ट चारित्र होता है । इसी अर्थ का समर्थन करने के लिए अर्थान्तरन्यास द्वारा दृष्टान्त देते हैं कि 'अनपेक्षितार्थवृत्ति: क: पुरु: सेवते नृपतीन्' अर्थात् जिसे किसी भी अभिलषित फल की चाह नहीं है, ऐसा कौनसा पुरुष राजाओं की सेवा करता है ? अर्थात् कोई बुद्धिमान् मनुष्य नहीं करता ।