GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 4 - टीका हिंदी
From जैनकोष
आप्त-देव, आगम-शास्त्र, तपोभृत-गुरु का जो आगम में स्वरूप बतलाया है, उन आप्त, आगम और तपोभृत का उसी रूप से दृढ़ श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है । आप्त, आगम, साधु का लक्षण आगे कहा जाएगा ।
यहाँ कोई शङ्का करे कि अन्य शास्त्रों में तो छह द्रव्य, सात तत्त्व तथा नौ पदार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है, परन्तु यहाँ आचार्य ने देव-शास्त्र-गुरु की प्रतीति को सम्यग्दर्शन कहकर अन्य शास्त्रों में कथित लक्षण का संग्रह नहीं किया है, तो इसका समाधान यह है कि आगम के श्रद्धान से ही छह द्रव्य, सात तत्त्व और नौ पदार्थों के श्रद्धानरूप लक्षण का संग्रह हो जाता है । क्योंकि अबाधितार्थप्रतिपादकमाप्तवचनं ह्यागम: अबाधित अर्थ का कथन करने वाले जो आप्त के वचन हैं वे ही आगम हैं । इसलिए आगम के श्रद्धान से ही छह द्रव्यादिक का श्रद्धान संगृहीत हो जाता है । वे आप्त, आगम, गुरु परमार्थभूत हैं किन्तु बौद्धमत के द्वारा कल्पित सिद्धान्त परमार्थभूत नहीं है । वास्तव में ज्ञान, पूजा, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठ मदों से रहित लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ता से रहित और नि:शङ्कित, नि:काङ्क्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठ अङ्गों से सहित श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन कहलाता है । आठ अङ्गों, आठ मदों और तीन मूढताओं का लक्षण आगे कहेंगे ।