GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 52 - टीका हिंदी
From जैनकोष
इन्द्रियादि प्राणों का वियोग करना प्राणातिपात है । असत्य वचन बोलना वितथ-व्यवहार है । स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना चोरी है । मैथुन-सेवन काम है और लोभ के वशीभूत होकर बाह्य परिग्रह को ग्रहण करना परिग्रह-मूच्र्छा है । ये पाँच पाप स्थूल और सूक्ष्म की अपेक्षा दो प्रकार के हैं । इनमें स्थूल पापों से विरक्त होना अणुव्रत कहलाता है । अणुव्रतधारी जीवों के सूक्ष्म सम्पूर्ण पापों का त्याग होना असम्भव है । इसलिए वे स्थूल हिंसादि पापों का ही त्याग कर अणुव्रत धारण कर सकते हैं । अहिंसाणुव्रतधारी पुरुष त्रसहिंसा से तो विरक्त होता है, परन्तु स्थावर हिंसा से निवृत्त नहीं होता । सत्याणुव्रत का धारक पापादिक के भय से पर-पीड़ाकारकादि स्थूल असत्य वचन से निवृत्त होता है, किन्तु सूक्ष्म असत्य वचन से नहीं । अचौर्याणुव्रत का धारी पुरुष राजादिक के भय से दूसरे के द्वारा छोड़ी गई अदत्तवस्तु का स्थूलरूप से त्यागी होता है, सूक्ष्मरूप से नहीं । ब्रह्मचर्याणुव्रत का धारक पाप के भय से दूसरे की गृहीत अथवा अगृहीत स्त्री से विरक्त होता है, स्वस्त्री से नहीं । इसी प्रकार परिग्रह परिमाणाणुव्रत का धारी पुरुष धन-धान्य तथा खेत आदि परिग्रह का अपनी इच्छानुसार परिमाण करता है, इसलिए स्थूल परिग्रह का ही त्यागी होता है, सूक्ष्म का नहीं । ये हिंसादि कार्य पापरूप हैं, क्योंकि पाप कर्मों के आस्रव के द्वारा हैं। इनके निमित्त से जीव के सदा पापकर्मों का आस्रव होता रहता है ।