GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 58 - टीका हिंदी
From जैनकोष
अचौर्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं, तद्यथा --
- चोरी करने वाले चोर को स्वयं प्रेरणा देना, दूसरे से प्रेरणा दिलाना और किसी ने प्रेरणा दी हो तो उसकी अनुमोदना करना चौर-प्रयोग है ।
- चौरार्थादान जिसे अपने द्वारा प्रेरणा नहीं दी गई है तथा जिसकी अनुमोदना भी नहीं की गई है, ऐसे चोर के द्वारा चुराकर लायी हुई वस्तु को ग्रहण करना चौरार्थादान है । क्योंकि चोरी के माल को खरीदने से चोर को चोरी करने की प्रेरणा मिलती है।
- विलोप उचित न्याय को छोडक़र अन्य प्रकार के पदार्थ का ग्रहण करना इसे विलोप कहते हैं, इसे ही विरुद्धराज्यातिक्रम कहते हैं । जिस राज्य में अन्य राज्य की वस्तुओं का आना-जाना निषिद्ध किया गया है, उसे विरुद्ध राज्य कहते हैं । विरुद्ध राज्य में महँगी वस्तुएँ अल्पमूल्य में मिलती हैं, ऐसा समझकर वहाँ स्वल्प मूल्य में वस्तुओं को खरीदना और अपने राज्य में अधिक मूल्य में बेचना विरुद्धराज्यातिक्रम कहलाता है ।
- सदृशसन्मिश्र समान रूप रंग वाली नकली वस्तु को असली वस्तु में मिलाकर असली वस्तु के भाव से बेचना, जैसे घी में तैल आदि मिश्रित करके बेचना, कृत्रिम-बनावटी सोना-चाँदी आदि के द्वारा दूसरों को धोखा देते हुए व्यापार करना सदृशसन्मिश्र कहलाता है ।
- हीनाधिकविनिमान जिससे वस्तुओं का लेन-देन होता है इसको विनिमान कहते हैं, मानोन्मान भी कहते हैं । जिसमें भरकर या तौलकर वस्तु दी जाती है, उसे 'मान' कहते हैं । जैसे- प्रस्थ, तराजू आदि । और जिससे नापकर वस्तु ली या दी जाती है, उसे उन्मान कहते हैं । जैसे -- गज, फुट आदि । किसी वस्तु को देते समय कम देना हीन है और खरीदते समय अधिक लेना हीनाधिक मानोन्मान कहलाता है ।