GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 64 - टीका हिंदी
From जैनकोष
हिंसाविरति नामक अणुव्रत से यमपाल चाण्डाल ने उत्तम प्रतिष्ठा प्राप्त की । इसकी कथा इस प्रकार है-
यमपाल चाण्डाल की कथा सुरम्य देश पोदनपुर में राजा महाबल रहता था । नन्दीश्वर पर्व की अष्टमी के दिन राजा ने यह घोषण की कि आठ दिन तक नगर में जीवघात नहीं किया जावेगा । राजा का बल नाम का एक पुत्र था, जो मांस खाने में आसक्त था । उसने यह विचार कर कि यहाँ कोई पुरुष दिखाई नहीं दे रहा है, इसलिए छिपकर राजा के बगीचे में राजा के मेंढा को मारकर तथा पकाकर खा लिया । राजा ने जब मेंढा मारे जाने का समाचार सुना, तब वह बहुत क्रुद्ध हुआ । उसने मेंढा मारने वाले की खोज शुरू कर दी । उस बगीचे का माली पेड़ के ऊपर चढ़ा था । उसने राजकुमार को मेंढा मारते हुए देख लिया था । माली ने रात में यह बात अपनी स्त्री से कही । तदनन्तर छिपे हुए गुप्तचर पुरुष ने राजा से यह समाचार कह दिया । प्रात:काल माली को बुलाया गया । उसने भी यह समाचार फिर कह दिया । मेरी आज्ञा को मेरा पुत्र ही खण्डित करता है, इससे रुष्ट होकर राजा ने कोटपाल से कहा कि बलकुमार के नौ टुकड़े कर दो अर्थात् उसे मरवा दो ।
तदनन्तर उस कुमार को मारने के स्थान पर ले जाकर चाण्डाल को लाने के लिए जो आदमी गये थे, उन्हें देखकर चाण्डाल ने अपनी स्त्री से कहा कि हे प्रिये! तुम इन लोगों से कह दो कि चाण्डाल गाँव गया है । ऐसा कहकर वह घर के कोने में छिपकर बैठ गया । जब सिपाहियों ने चाण्डाल को बुलाया तब चाण्डाली ने कह दिया कि वे आज गाँव गये है । सिपाहियों ने कहा कि वह पापी अभागा आज गाँव चला गया । राजकुमार को मारने से उसे बहुत भारी सुवर्ण और रत्नादिक का लाभ होता । उनके वचन सुनकर चाण्डाली को धन का लोभ आ गया । अत: वह मुख से तो बार-बार यही कहती रही कि वे गाँव गये हैं, परन्तु हाथ के सङ्केत से उसे दिखा दिया । तदनन्तर सिपाहियों ने उसे घर से निकलकर मारने के लिए वह राजकुमार सौंप दिया । चाण्डाल ने कहा कि मैं आज चतुर्दशी के दिन जीवघात नहीं करता हूँ । तब सिपाहियों ने उसे ले जाकर राजा से कहा कि देव! यह राजकुमार को नहीं मार रहा है । उसने राजा से कहा कि एक बार मुझे साँप ने डस लिया था, जिससे मृत समझकर मुझे श्मशान में डाल दिया गया था । वहाँ सर्वौषधि-ऋद्धि के धारक मुनिराज के शरीर की वायु से मैं पुन: जीवितहो गया । उस समय मैंने उन मुनिराज के पास चतुर्दशी के दिन जीव घात न करने का व्रत लिया था, इसलिए आज मैं नहीं मार रहा हूँ, आप जो जानें सो करें 'अस्पृश्य चाण्डाल के भी व्रत होता है' यह विचार कर राजा बहुत रुष्ट हुआ और उसने दोनों को मजबूत बंधवाकर सुमार (शिशुमार) नामक तालाब में डलवा दिया । उन दोनों में चाण्डाल ने प्राणघात होने पर भी अहिंसा व्रत को नहीं छोड़ा था, इसलिए उसके व्रत के माहात्म्य से जल-देवता ने उसके लिए जल के मध्य सिहांसन, मणिमय मण्डप, दुन्दुभि बाजों का शब्द तथा साधुकार- अच्छा किया, अच्छा किया आदि शब्दों का उच्चारण, यह सब महिमा की । महाबल राजा ने जब यह समाचार सुना तब भयभीत होकर उसने चाण्डाल का सम्मान किया तथा अपने छत्र के नीचे उसका अभिषेक कराकर उसे स्पर्श करने योग्य विशिष्ट पुरुष घोषित कर दिया ।
यह प्रथम अहिंसाणु-व्रत की कथा पूर्ण हुई ।
सत्याणुव्रत से धनदेव सेठ ने पूजातिशय को प्राप्त किया था । उसकी कथा इस प्रकार है --
धनदेव की कथा
जम्बूद्वीप के पूर्व-विदेह क्षेत्र सम्बन्धी पुष्कलावती देश में एक पुण्डरीकिणी नामक नगरी है । उसमें जिनदेव और धनदेव नामके दो अल्प पूँजीवाले व्यापारी रहते थे । उन दोनों में धनदेव सत्यवादी था । एक बार वे दोनों 'जो लाभ होगा, उसे आधा-आधा ले लेंगे' ऐसी बिना गवाह की व्यवस्था कर दूर-देश गये । वहाँ बहुत-सा धन कमाकर लौटे और कुशल-पूर्वक पुण्डरीकिणी नगरी आ गये । उनमें जिनदेव, धनदेव के लिए लाभ का आधा भाग नहीं देता था । वह उचित समझकर थोड़ा-सा द्रव्य उसे देता था । तदनन्तर झगड़ा होने पर न्याय होने लगा । पहले कुटुम्बीजनों के सामने, फिर महाजनों के सामने और अन्त में राजा के आगे मामला उपस्थित किया गया । परन्तु बिना गवाही का व्यवहार होने से जिनदेव कह देता कि मैंने इसके लिए लाभ का आधा भाग देना नहीं कहा था । उचित भाग ही देना कहा था । धनदेव सत्य ही कहता था कि दोनों का आधा-आधा भाग ही निश्चित हुआ था । तदनन्तर राजकीय नियम के अनुसार उन दोनों को दिव्य न्याय दिया गया । अर्थात् उनके हाथों पर जलते हुए अङ्गारे रखे गये । इस दिव्य न्याय से धनदेव निर्दोष सिद्ध हुआ, दूसरा नहीं । तदनन्तर सब धन धनदेव के लिए दिया गया और धनदेव सब लोगों के द्वारा पूजित हुआ तथा धन्यवाद को प्राप्त हुआ ।
इस प्रकार द्वितीय अणुव्रत की कथा है ।
चौर्यविरति अणुव्रत से वारिषेण ने पूजा का अतिशय प्राप्त किया था । इसकी कथा स्थितीकरण गुण के व्याख्यान के प्रकरण में कही गयी है । वह इस प्रकरण में भी देखनी चाहिए । इस प्रकार तृतीय अणुव्रत की कथा है ।
मातङ्ग, धनदेव और वारिषेण के आगे नीली और जयकुमार पूजातिशय को प्राप्त हुए हैं । उनमें अब्रह्म-विरति अणुव्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत से नीली नाम की वणिक्पुत्री पूजातिशय को प्राप्त हुई है ।
उसकी कथा इस प्रकार है --
नीली की कथा
लाटदेश के भृगुकच्छ नगर में राजा वसुपाल रहता था । वहीं एक जिनदत्त नामका सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम जिनदत्ता था । उनके नीली नाम की एक पुत्री थी, जो अत्यन्त रूपवती थी । उसी नगर में समुद्रदत्त नाम का एक सेठ रहता था, उसकी स्त्री का नाम सागरदत्ता था और उन दोनों के एक सागरदत्त नाम का पुत्र था । एक बार महापूजा के अवसर पर मन्दिर में कायोत्सर्ग से खड़ी हुई तथा समस्त आभूषणों से सुन्दर नीली को देखकर सागरदत्त ने कहा कि क्या यह भी कोई देवी है ? यह सुनकर उसके मित्र प्रियदत्त ने कहा कि यह जिनदत्त सेठ की पुत्री नीली है । नीली का रूप देखने से सागरदत्त उसमें अत्यन्त आसक्त हो गया और यह किस तरह प्राप्त हो सकती है, इस प्रकार उससे विवाह की चिन्ता से दुर्बल हो गया । समुद्रदत्त ने यह सुनकर उससे कहा कि हे पुत्र! जैन को छोडक़र अन्य किसी के लिए जिनदत्त इस पुत्री को विवाहने के लिए नहीं देता है ।
तदनन्तर वे दोनों पिता-पुत्र कपट से जैन हो गये और नीली को विवाह लिया ।विवाह के पश्चात वे फिर बुद्धभक्त हो गये । उन्होंने नीली का पिता के घर जाना भी बन्द कर दिया । इसप्रकार धोखा होने पर जिनदत्त ने यह कहकर सन्तोष कर लिया कि यह पुत्री मेरे हुई ही नहीं है अथवा कुआ आदि में गिर गयी है अथवा मर गयी है । नीली अपने पति को प्रिय थी, अत: वह ससुराल में जिनधर्म का पालन करती हुई एक भिन्न घर में रहने लगी । समुद्रदत्त यह विचारकर कि बौद्ध साधुओं के दर्शन से, उनके धर्म और देव का नाम सुनने से काल पाकर यह बुद्ध की भक्त हो जायेगी, एक दिन समुद्रदत्त ने कहा कि नीली बेटी! बौद्ध साधु बहुत ज्ञानी होते हैं, उन्हें देने के लिए हमें भोजन बनाकर दो । तदनन्तर नीली ने बौद्ध साधुओं को निमन्त्रित कर बुलाया और उनकी एक-एक प्राणहिता जूती को अच्छी तरह पीसकर तथा मसालों से सुसंस्कृत कर उन्हें खाने के लिए दे दिया । वे बौद्ध साधु भोजन कर जब जाने लगे तो उन्होंने पूछा कि हमारी जूतियाँ कहाँ हैं ? नीली ने कहा कि आप ही अपने ज्ञान से जानिये, जहाँ वे स्थित हैं । यदि ज्ञान नहीं है, तो वमन कीजिये । आपकी जूतियाँ आपके ही पेट में स्थित हैं । इस प्रकार वमन किये जाने पर उनमें जूतियों के टुकड़े दिखाई दिये । इस घटना से नीली के श्वसुरपक्ष के लोग बहुत रुष्ट हो गये ।
तदनन्तर सागरदत्त की बहन ने क्रोधवश उसे पर पुरुष के संसर्ग का झूठा दोष लगाया । जब इस दोष की प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी, तब नीली भगवान्जिनेन्द्र के आगे संन्यास लेकर कायोत्सर्ग से खड़ी हो गयी और उसने नियम ले लिया कि इस दोष से पार होने पर ही मेरी भोजन आदि में प्रवृत्ति होगी, अन्य प्रकार से नहीं । तदनन्तर क्षोभ को प्राप्त हुई नगरदेवता ने आकर रात्रि में उससे कहा कि हे महासती! इस तरह प्राण-त्याग मत करो, मैं राजा को तथा नगर के प्रधान पुरुषों को स्वप्त देती हूँ कि नगर के सब प्रधान द्वारा कीलित हो गये हैं । वे महापतिव्रता स्त्री के बायें चरण के स्पर्श से खुलेंगे । वे प्रधान द्वार प्रात:काल आपके पैर का स्पर्शकर ही खुलेंगे, ऐसा कहकर वह नगर देवता राजा आदि को वैसा स्वप्न दिखाकर तथा नगर के प्रधान द्वारों को बन्द कर बैठ गयी । प्रात:काल नगर के प्रधान द्वारों को कीलित देखकर राजा आदि ने पूर्वोक्त स्वप्र का स्मरण कर नगर की सब स्त्रियों के पैरों से द्वारों की ताडऩा करायी । परन्तु किसी भी स्त्री के द्वारा एक भी प्रधान द्वार नहीं खुला । सब स्त्रियों के बाद नीली को भी वहाँ उठाकर ले जाया गया । उसके चरणों के स्पर्श से सभी प्रधान द्वार खुल गये । इस प्रकार नीली निर्दोष घोषित हुई और राजा आदि के द्वारा सम्मान को प्राप्त हुई । यह चतुर्थ अणुव्रत की कथा पूर्ण हुई ।
परिग्रह-विरति-अणुव्रत से जयकुमार पूजातिशय को प्राप्त हुआ था । उसकी कथा इस प्रकार है-
जयकुमार की कथा
कुरुजांगल देश के हस्तिनागपुर नगर में कुरुवंशी राजा सोमप्रभ रहते थे । उनके जयकुमार नामका पुत्र था ।वह जयकुमार परिग्रह-परिमाण-व्रत का धारी था तथा अपनी स्त्री सुलोचना से ही सम्बन्ध रखता था । एक समय, विद्याधर अवस्था के पूर्वभवों की कथा के बाद जिन्हें अपने पूर्वभवों का ज्ञान हो गया था, ऐसे जयकुमार और सुलोचना हिरण्यधर्मा और प्रभावती नामक विद्याधर पुद्गल का रूप रखकर मेरु आदि पर वन्दना-भक्ति करके कैलास पर्वत पर भरत चक्रवर्ती के द्वारा प्रतिष्ठापित चौबीस जिनालयों की वन्दना करने के लिए आये । उसी अवसर पर सौधर्मेन्द्र ने स्वर्ग में जयकुमार के परिग्रह-परिमाण-व्रत की प्रशंसा की । उसकी परीक्षा करने के लिए रतिप्रभ नामका देव आया । उसने स्त्री का रूप रख चार स्त्रियों के साथ जयकुमार के समीप जाकर कहा कि सुलोचना के स्वयंवर के समय जिसने तुम्हारे साथ युद्ध किया था, उस नमि विद्याधर राजा की रानी को, जो कि अत्यन्त रूपवती, नवयौवनवती, समस्त विद्याओं को धारण करने वाली और उससे विरक्त-चित्त है, स्वीकृत करो, यदि उसका राज्य और अपना जीवन चाहते हो तो । तदनन्तर उस स्त्री ने जयकुमार पर बहुत उपसर्ग किया, परन्तु उसका चित्त विचलित नहीं हुआ । अनन्तर वह रतिप्रभ देव माया को संकुचित कर पहले का सब समाचार कहकर प्रशंसा कर और वस्त्र आदि से पूजा कर स्वर्ग चला गया । इस प्रकार पञ्चम अणुव्रत की कथा पूर्ण हुई ॥१८॥