GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 71 - टीका हिंदी
From जैनकोष
चरणमोहपरिणाम अर्थात् भावरूप जो चारित्रमोह परिणति है, जो महाव्रत के लिए कल्पित की गयी है । यहाँ पर प्रत्याख्यान शब्द से प्रत्याख्यानावरण द्रव्य क्रोध, मान, माया, लोभ का ग्रहण होता है, क्योंकि नाम के एकदेश से सर्वदेश का ग्रहण होता है । जिस प्रकार ‘भीम’ पद से भीमसेन का बोध होता है, उसी प्रकार प्रत्याख्यान शब्द का अर्थ सविकल्पपूर्वक हिंसादि पापों का त्यागरूप संयम होता है । उस संयम को जो आवृत करे अर्थात् जिसके उदय से यह जीव हिंसादि पापों का पूर्ण रूप से त्याग करने में समर्थ नहीं हो पाता है, वे प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते हैं । यह कषाय द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार की है, पौद्गलिक कर्मप्रकृति द्रव्यकषाय है और उसके उदय से होने वाले परिणाम भावकषाय हैं । जब गृहस्थ के इन द्रव्यरूप क्रोधादि का इतना मन्द उदय हो जाता है कि चारित्रमोह के परिणाम का अस्तित्व भी बड़ी कठिनता से समझा जाता है, तब उसके उपचार से महाव्रत जैसी अवस्था हो जाती है । दिग्व्रतधारी के मर्यादा के बाहर क्षेत्र में स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के हिंसादि पापों की पूर्णरूप से निवृत्ति हो जाती है । इसलिए उसके अणुव्रत भी उपचार से महाव्रत सरीखे जान पड़ते हैं, परमार्थ से नहीं । अत: द्रव्य क्रोधादिक का मन्दोदय होने से भावक्रोधादि का भी मन्दतरत्व सिद्ध होता है ।