GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 74 - टीका हिंदी
From जैनकोष
व्रतधर का अर्थ पंचमहाव्रतों को धारण करने वाले यति, मुनि, उनमें जो प्रधानभूत तीर्थङ्कर-देवादि वे व्रतधराग्रणी कहलाते हैं । इस तरह व्रतधारियों में अग्रणी तीर्थङ्कर-देव ने अनर्थदण्ड-व्रत का लक्षण इस प्रकार बतलाया है कि दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर निष्प्रयोजन, पापरूप मन-वचन-काय की निवृत्ति होती है और अनर्थदण्डव्रत में दिग्व्रत की सीमा के भीतर होने वाले पापपूर्ण व्यर्थ के कार्यों से निवृत्ति होती है । यही इन दोनों में अन्तर है ।