GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 81 - टीका हिंदी
From जैनकोष
निष्प्रयोजन दोषा करने को अनर्थदण्ड कहते हैं । इनके त्याग को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं । इसके पाँच अतिचार हैं । यथा -- यद्यपि कन्दर्प का अर्थ काम है, किन्तु यहाँ पर राग के उद्रेक से हास्य मिश्रित, काम को उत्तेजित करने वाले अश्लील भद्दे वचन बोलना कन्दर्प कहा गया है । भद्दे वचन बोलते हुए हाथ आदि अङ्गों से शरीर की कुचेष्टा करना कौत्कुच्य कहलाता है । धृष्टता से निष्प्रयोजन बहुत बोलना मौखर्य कहलाता है । जितने पदार्थों से अपने भोगोपभोग की पूर्ति होती है, उससे अधिक संग्रह करना अतिप्रसाधन कहलाता है तथा बिना प्रयोजन ही अधिक कार्य करना असमीक्ष्याधिकरण कहलाता है । ये पाँच अनर्थदण्डव्रत के अतिचार हैं ।