GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 82 - टीका हिंदी
From जैनकोष
परिग्रह परिमाणव्रत में परिग्रह की जो सीमा निर्धारित की थी, उसमें भी इन्द्रिय-विषयों का जो परिसंख्यान / नियम किया जाता है, वह भोगोपभोग परिमाणव्रत है । यहाँ पर टीकाकार ने 'अर्थवतां' का अर्थ ऐसा भी किया है कि अर्थ-परिग्रह रहित मुनि तो सुखादि लक्षणरूप आवश्यक प्रयोजनक वस्तुओं का परिगणन करते ही हैं, किन्तु अर्थवान् गृहस्थ श्रावक भी राग के तीव्र उद्रेक से होने वाली इन्द्रियविषयों में तीव्र आसक्ति को अत्यन्त कृश करने के लिए भोग सामग्री की नियमरूप परिगणना करते हैं। यह भोगोपभोग परिमाण नामक गुणव्रत है ।