GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 8 - टीका हिंदी
From जैनकोष
अरहन्त भगवान् विपर्ययादि दोषों से रहित श्रेष्ठ भव्य जीवों को दिव्यध्वनि के द्वारा स्वर्गादिक तथा उनके साधनरूप सम्यग्दर्शनादिक का उपदेश देते हैं, किन्तु वे अपने लिए किंचित् भी फलाभिलाषा-रूप राग नहीं रखते हैं तथा उस उपदेश में उनका स्वयं का भी कोई प्रयोजन नहीं रहता । मात्र परोपकार के लिए उनकी दिव्य वाणी की प्रवृत्ति होती है । कहा भी है -- 'परोपकाराय सतां हि चेष्टितम्' अर्थात् सत् पुरुषों की चेष्टा परोपकार के लिए ही होती है । राग तथा निजी प्रयोजन के बिना आप्त कैसे उपदेश देते हैं ? इसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन करते हुए कहते हैं कि जैसे शिल्पी के हाथ के स्पर्श से बजनेवाला, मनुष्य के हाथ की चेष्टा से शब्द करता हुआ मृदंग क्या कुछ चाहता है? कुछ नहीं चाहता । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मृदंग परोपकार के लिए अनेक प्रकार के शब्द करता है, उसी प्रकार आप्त भगवान् भी परोपकार के लिए ही दिव्यध्वनि के माध्यम से उपदेश देते हैं ।