GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 90 - टीका हिंदी
From जैनकोष
भोगोपभोगपरिमाणव्रत के पाँच अतिचारों का कथन करते हैं । इन्द्रियविषय विष के समान हैं । क्योंकि जिस प्रकार विष प्राणियों को दाह सन्ताप आदि उत्पन्न करता है, उसी प्रकार विषय भी करते हैं । इस विषयरूप विष की उपेक्षा नहीं करना, उनके प्रति आदर बनाये रखना, अनुपेक्षा नामक अतिचार है । विषयों का उपभोग विषयसम्बन्धी वेदना के प्रतिकार के लिए किया जाता है । विषयों का उपभोग कर लेने पर, वेदना का प्रतिकार हो जाने पर भी पुन: संभाषण, आलिंगन आदि में जो आदर होता है, वह अत्यन्त आसक्ति का जनक होने से अतिचार माना जाता है । विषय अनुभव से वेदना का प्रतिकार हो जाने पर भी सौन्दर्य जनित सुख का साधन होने से विषयों का बार-बार स्मरण करना यह अनुस्मृति नाम का अतिचार है । यह अत्यन्त आसक्ति का कारण होने से अतिचार है । विषयों में अत्यन्त गृद्धता रखना, विषयों का प्रतिकार हो जाने पर भी बार-बार उसके अनुभव की आकांक्षा रखना अतिलौल्य नाम का अतिचार है । आगामी भोगों की प्राप्ति की अत्यधिक गृद्धता रखना अतितृषा नाम का अतिचार है । नियतकाल में भी जब भोगोपभोग का अनुभव करता है, तब अत्यन्त आसक्ति से करता है । वेदना के प्रतिकार की भावना से नहीं, अत: यह अतिअनुभव नाम का अतिचार है ।
इस प्रकार समन्तभद्रस्वामिविरचित उपासकाध्ययन की प्रभाचन्द्राचार्यविरचित टीका में तृतीय परिच्छेद पूर्ण हुआ ।