GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 9 - टीका हिंदी
From जैनकोष
'आप्तोपज्ञं' वह शास्त्र सर्वप्रथम आप्त के द्वारा जाना गया है एवं आप्त के द्वारा ही कहा गया है । इसलिए इन्द्रादिक देव उसका उल्लंघन नहीं करते, किन्तु श्रद्धा से उसे ग्रहण करते हैं । कुछ प्रतियों में 'तस्मादितरवादिनामनुल्लंघ्य' यह पाठ भी है । इसके अनुसार अन्य वादियों के द्वारा उल्लंघन करने योग्य नहीं है । 'अदृष्टेष्टविरोधकम्' इष्ट का अर्थ प्रत्यक्ष तथा अदृष्ट का अर्थ अनुमानादि परोक्ष प्रमाणों को ग्रहण किया है । (यहां अर्थ सही प्रतीत नहीं हो रहा है । -शिखर) आप्त के द्वारा प्रणीत शास्त्र इन प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों के विरोध से रहित है । तथा जीव अजीवादि सात प्रकार के तत्त्वों का उपदेश करने वाला है । अथवा अपने-अपने यथार्थ स्वरूप से सहित छह द्रव्यों का उपदेश करने वाला है । 'सर्वेभ्यो हितं सार्वं' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सब जीवों का हित करने वाला है, यह यथावत् स्वरूप के बिना घटित नहीं हो सकता । और कुत्सित-खोटा मार्ग जो कि मिथ्यादर्शनादिक हैं उनका निराकरण करने वाला है । शास्त्र की ये सभी विशेषताएँ आप्तप्रणीत होने पर ही सिद्ध हो सकती हैं ॥९॥