आबाधा
From जैनकोष
कर्म का बंध हो जाने के पश्चात वह तुरत ही उदय नहीं आता, बल्कि कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशाको प्राप्त होकर ही उदय आता है। इस काल को आबाधाकाल कहते हैं। इसी विषय की अनेकों विशेषताओं का परिचय यहाँ दिया गया है।
1. आबाधा निर्देश
1. आबाधा काल का लक्षण
धवला पुस्तक 6/1,9-6,5/148/4
ण बाधा अबाधा, अबाधा चैव आबाधा।
= बाधा के अभाव को अबाधा कहते हैं। और अबाधा ही आबाधा कहलाती है।
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 155
कम्मसरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण। रुवेणुदीरणस्स व आवाहा जाव ताव हवे।
= कार्माण शरीर नामा नाम कर्म के उदय तैं अर जीव के प्रदेशनिका जो चंचलपना सोई योग तिसके निमित करि कार्माण वर्गणा रूप पुद्गल स्कंध मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृति रूप होई आत्मा के प्रदेशनिविषै परस्पर प्रवेश है लक्षण जाका ऐसे बंध रूपकरि जे तिष्ठे हैं ते यावत् उदय रूप वा उदीरणा रूप न प्रवर्तै तिसकालको आबाधा कहिए।
( गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 914)
गोम्मट्टसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 253/523/4
तत्र विवक्षितसमये बद्धस्य उत्कृष्टस्थितिबंधस्य सप्ततिकोटाकोटिसागरोपरममात्रस्य प्रथमसमयादारभ्य सप्तसहस्रवर्षकालपर्यंतमाबाधेति।
= तहाँ विवक्षित कोई एक समय विषै बंध्या कार्माण का समय प्रबद्ध ताकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तरि कोड़ाकोड़ि सागर की बंधी तिस स्थिति के पहले समय ते लगाय सात हजार वर्ष पर्यंत तौ आबाधा काल है तहाँ कोई निर्जरा न होई तातै कोई निषेक रचना नाहीं।
2. आबाधा स्थान का लक्षण
धवला पुस्तक 11/4,2,6.50/162/9
जहण्णाबाहमुक्कस्साबाहादी सोहिय सद्धसेसेम्मि एगरूवे पक्खित्ते आबाहाट्ठाणं। एसत्थो सव्वत्थपरूवेदव्वो।
= उत्कृष्ट आबाधा में-से जघन्य आबाधा को घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अंक मिला देनेपर आबाधा स्थान होता है। इस अर्थ की प्ररूपणा सभी जगह करनी चाहिए।
3. आबाधा कांडक का लक्षण
धवला पुस्तक 6/1,9-6,5/149/1
कधमाबाधाकंडयस्सुप्पत्ती। उक्कस्साबाधं विरलिय उक्कस्सट्ठिदिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि आबाधा कंडयपमाणं पावेदि।
= प्रश्न - आबाधा कांडक की उत्पत्ति कैसे होती है? उत्तर - उत्कृष्ट आबाधा को विरलन करके उसके ऊपर उत्कृष्ट स्थिति के समान खंड करके एक-एक रूप के प्रति देने पर आबाधा कांडक का प्रमाण प्राप्त होता है। उदाहरण- मान लो उत्कृष्ट स्थिति 30 समय; आबाधा 3 समय। तो 10 10 10/1 1 1 अर्थात 30/3 = 10 यह आबाधा कांडक का प्रमाण हुआ। और उक्त स्थिति बंध के भीतर 3 आबाधा के भेद हुए।
विशेषार्थ - कर्म स्थिति के जितने भेदों में एक प्रमाण वाली आबाधा है. उतने स्थिति के भेदों को आबाधा कांडक कहते है।
धवला पुस्तक 11/4,2,6,17/143/4
अप्पण्णो जहण्णाबाहाए समऊणाए अप्पप्पण्णो समऊणजहण्णट्टिदीए ओवट्टिदाए एगमाबाधाकंदयमागच्छदि।...सगसगउक्कस्साबाहाए सग-सगउक्कस्सट्ठिदीए ओवटिट्दाए एगमाबाह कंदयमागच्छदि।
धवला पुस्तक 11/4,2,6,122/268/2
आबाहचरिमसमयं णिरुंभिदूण उक्कस्सियं ट्ठिदिं बंधदि। तत्तो समऊणं पि बंधदि। एवं दुसमऊणादिकमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेगूणाट्ठिदि त्ति। एवमेदेण आवाहाचरिमसमएणबंधपाओग्गट्ठिदिविसेसाणमेगमाबाहाकंदयमिदि सण्णा त्ति वुत्तं होदि। आबाधाए दुचरिमसयस्स णिरुं भणं कादूण एवं चेव बिदियमाबाहाकंदयं परूवेदव्वं। आबाहाए तिचरिमसमयणिरुं भणं कादूण पुव्वं व तदिओ आबाहाकंदओ परूवेदव्वो। एवं णेयव्वं जाव जहण्णिया ट्ठिदि त्ति। एदेण सुत्तेण एगाबाहाकंदयस्स पमाणपरूवणा कदा।
धवला पुस्तक 11/4,2,6,128/271/3
एगेगाबाहट्ठाणस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तट्ठिदिबंधट्ठाणाणमाबाहाकंदयसण्णिदाणं।
= 1. एक समय कम अपनी-अपनी आबाधा का अपनी-अपनी एक समय कम जघन्य स्थिति में भाग देने पर एक आबाधा कांडक का प्रमाण आता है। 2...अपनी-अपनी उत्कृष्ट आबाधा का अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने पर एक आबाधा कांडक आता है। 3. आबाधा के अंतिम समय को विवक्षित करके उत्कृष्ट स्थिति को बाँधता है। उससे एक समय कम भी स्थिति को बाँधता है इस प्रकार दो समय कम इत्यादि क्रम से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से रहित स्थिति तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार आबाधा के इस अंतिम समय में बंध के योग्य स्थिति विशेषों की एक आबाधा कांडक संज्ञा है। यह अभिप्राय है। आबाधा के द्विचरम समय की विवक्षा करके इसी प्रकार की द्वितीय आबाधा कांडक की प्ररूपणा करना चाहिए। आबाधा के त्रिचरम समय की विवक्षा करके पहिले के समान तृतीय आबाधा कांडक की प्ररूपणा करना चाहिए। इस प्रकार जघन्य स्थिति तक यही क्रम जानना चाहिए। इस सूत्र के द्वारा एक आबाधा कांडक के प्रमाण की प्ररूपणा की गयी है। एक-एक आबाधा स्थान संबंधी जो पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिबंध स्थान हैं उनकी आबाधा कांडक संज्ञा है।
2. आबाधा संबंधी कुछ नियम-
1. आबाधा संबंधी सारणी
आबाधाकाल
प्रमाण | विषय | आबाधा काल जघन्य | आबाधा काल उत्कृष्ट |
---|---|---|---|
1. उदय अपेक्षा | |||
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा150/185 | संज्ञी पंचे. का मिथ्यात्व कर्म | समयोनमुहूर्त | 7000 वर्ष |
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 156/189 | आयुके बिना 7 कर्मों की सामान्य आबाधा | प्रतिसागर स्थिति पर साधिक सं.उच्छ्वास | प्रति को.को. सागर पर 100 वर्ष, ( धवला पुस्तक 6/172) |
धवला पुस्तक 6/166/13 | आयुकर्म (बद्ध्यमान) | असंक्षेपाद्धा अंतर्मुहूर्त आ/असं. | कोडि पूर्व वर्ष/3 |
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 917 | आयुकर्मका सामान्य नियम | आयु बंध भये पीछे शेष भुज्यमानायु | |
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 916 | 92592592 16/27 कोड सा.वाला कर्म | अंतर्मुहूर्त सं. | अंतर्मुहूर्त |
2. उदीरणा अपेक्षा | |||
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 159 | आयु बिना 7 कर्मों की | आवली | X |
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 918 | बध्यमानायु | X | X |
भुज्यमानायु (केवल कर्मभूमिया) कदली घात द्वारा उदीरणा होवे, इसलिए उसकी आबाधा भी नहीं है। देव, नारकी व भोग भूमियों में आयु की उदीरणा संभव नहीं।
• कर्मो की जघन्य उत्कृष्ट स्थिति व तत्संबंधित आबाधा काल - देखें स्थिति - 6।
2. आबाधा निकालने का सामान्य उपाय
प्रत्येक एक कोड़ाकोड़ी स्थिति की उत्कृष्ट आबाधा = 100वर्ष
70 या 30 कोड़ाकोड़ी स्थिति की उत्कृष्ट आबाधा = 100X70 या 100X30 या 100X10 = 7000 या 3000 या 1000 वर्ष
1 लाख कोड़ सागर स्थिति की उत्कृष्ट आबाधा = 100/(10X10) = 1 वर्ष
100 कोड़ सागर की उत्कृष्ट आबाधा = 1 वर्ष /(10X10X10) = 1/1000 वर्ष
10 कोड़ सागर की उत्कृष्ट आबाधा = 365X24X60/10,000 = 52x14/25 मिनिट
92592x16/27 कोड़ सागर की उत्कृष्ट आबाधा = उत्कृष्ट अंतर्मूहूर्त
नोट - उदीरणा की अपेक्षा जघन्य आबाधा, सर्वत्र आवली मात्र जानना, क्योंकि बंध हुए पीछे इतने काल पर्यंत उदीरणा नहीं हो सकती।
3. एक कोड़ाकोडी सागर स्थिति की आबाधा 100 वर्ष होती है
धवला पुस्तक 6/1,9-6,31/172/8
सागरोवमकोडोकाडीए वाससदमाबाधा होदि।
= एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम की आबाधा सौ वर्ष होती है।
4. इससे कम स्थितियों की आबाधा निकालने की विशेष प्रक्रिया
धवला पुस्तक 6/1,9-7,4/183/6
सग-सगजादि पडिबद्धाबाधाकंडएहि सगसगट्ठिदीसु ओवट्टिदासु सग सग आबाधासमुप्पत्तीदो। ण च सव्वजादीसु आबाधाकंडयाणं सरिसत्तं, संखेज्जवस्सट्ठदिबंधेसु अंतोमुहुत्तमेत्तआबाधोवट्ठिदेसु संखेज्जसमयमेत्तआबाधाकंडयदंसणादो। तदो संखेज्जरूवेहि जहण्णट्ठिदिम्हि भागे हिदे संखेज्जावलियमेत्ता णिसेगट्ठिदीदो संखेज्ज गुणहीणा जहण्णाबाधा होदि।
= अपनी-अपनी जातियों में प्रतिबद्ध आबाधा कांडकों के द्वारा अपनी-अपनी स्थितियों के अपवर्तित करने पर अपनी-अपनी अर्थात् विवक्षित प्रकृतियों की, आबाधा उत्पन्न होती है। तथा, सर्व जाति वाली प्रकृतियों में आबाधा कांडकों के सदृशता नहीं है, क्योंकि संख्यात् वर्ष वाले स्थिति बंधो में अंतर्मूहूर्त मात्र आबाधा से अपवर्तन करने पर संख्यात समय मात्र आबाधा कांडक उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। इसलिए संख्यात रूपों से जघन्य स्थिति में भाग देने पर निषेक स्थिति से संख्यात गुणित हीन संख्यात आवलि मात्र जघन्य आबाधा होती है।
5. एक आबाधा कांडक घटने पर एक समय स्थिति घटती है
धवला पुस्तक 6/1,9,5/149/4
एगाबाधाकंडएणूणउक्कस्सट्ठिदिंबंधमाणस्ससमऊणतिण्णिवाससहस्साणि आबाधा होदि। एदेण सरूवेण सव्वट्ठिदीणं पि आबाधापरूवणं जाणिय कादव्वं। णवरि दोहिं आबाधाकंडएहि अणियमुक्कस्सट्ठिदिं बंधमाणस्स आबाधा उक्कस्सिया दुसमऊणा होदि। तीहि आबाधाकंडएहि ऊणियमुक्कस्सट्ठिदि बंधमाणस्स आबाधा उक्कसिया तिसमऊणा। चउहि..चदुसमऊणा। एवं णेदव्वं जाव जहण्णट्ठिदि त्ति। सव्वाबाधाकंडएसु वीचारट्ठाणत्तं पत्तेसु समऊणाबाधाकंडयमेत्तट्ठिदोणमवट्ठिदा आबाधा होदि त्ति घेत्तव्वं।
= एक आबाधा कांडक से हीन उत्कृष्ट स्थिति को बाँधने वाले समय प्रबद्ध के एक समय कम तीन हजार वर्ष की आबाधा होती है। इसी प्रकार सर्व कर्म स्थितियों की भी प्ररूपणा जानकर करना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि दो आबाधा कांडकों से हीन उत्कृष्ट स्थिति को बाँधने वाले जीव के समयप्रबद्ध की उत्कृष्ट आबाधा दो समय कम होती है। तीन आबाधा कांडकों से हीन उत्कृष्ट स्थिति कों बाँधने वाले जीव के समयप्रबद्ध की उत्कृष्ट आबाधा तीन समय तक होती है। चार आबाधा कांडकों से हीन वाले के उत्कृष्ट आबाधा चार समय कम होती है। इस प्रकार यह क्रम विवक्षित कर्म की जघन्य स्थिति तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार सर्व आबाधा कांडकों के विचार स्थानत्व अर्थात स्थिति भेदों को, प्राप्त होने पर एक समय कम आबाधा कांडक मात्र स्थितियों की आबाधा अवस्थित अर्थात् एक सी होती है, यह अर्थ जानना चाहिए।
उदाहरण - मान लो उत्कृष्ट स्थिति 64 समय और उत्कृष्ट आबाधा 16 समय है। अतएव आबाधा कांडक का प्रमाण 64/16 = 4 होगा।
मान लो जघन्य स्थिति 45 समय है। अतएव स्थितियों के भेद 64 से 45 तक होंगे जिनकी रचना आबाधा कांडकों के अनुसार इस प्रकार होगी -
1. प्रथमकांडक - 64,63,62,61 समय स्थितिकी उ. आबाधा = 16 समय
2. द्वितीयकांडक - 60,59,58,57 समय स्थितिकी उ. आबाधा = 15 समय
3. तृतीयकांडक - 56,55,54,53 समय स्थितिकी उ. आबाधा = 14 समय
4. चतुर्थकांडक - 52,51,50,49 समय स्थितिकी उ. आबाधा = 13 समय
5. पंचमकांडक - 48,47,46,45 समय स्थितिकी उ. आबाधा = 12 समय
यह उपरोक्त पाँच तो आबाधा के भेद हुए।
स्थिति भेद - आबाधा कांडक 5 X हानि 4 समय = 20 विचार स्थान अतः स्थिति भेद 20-1 = 19
इन्हीं विचार स्थानों से उत्कृष्ट स्थिति में से घटाने पर जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। स्थिति की क्रम हानि भी इतने ही स्थानों में होती है।
6. क्षपक श्रेणी में आबाधा सर्वत्र अंतर्मुहूर्त होती है
कषायपाहुड़ पुस्तक 3/3,22/$380/210/3
सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं जदि सत्तावाससहस्समेत्ताबाहा लब्भदि तो अट्ठण्हं बस्साणं किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुफिदफले ओवट्टिदे जेण एगसमयस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि तेण अट्ठण्णं वस्साणमाबाहा अंतोमुहूत्तमेत्ता त्ति ण घडदे। ण एस दोसो, संसारावत्थ मोत्तूण खवगसेढीए एवं विहणियमाभावादो।
= प्रश्न - सत्तरि कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थिति की यदि सात हजार प्रमाण आबाधा पायी जाती है तो आठ वर्ष प्रमाण स्थिति की कितनी आबाधा प्राप्त होगी, इस प्रकार त्रैराशिक विधि के अनुसार इच्छाराशि से फलराशि को गुणित करके प्रमाण राशि का भाग देने पर चूँकि एक समय का संख्यातवाँ भाग आता है, इसलिए आठ वर्ष की आबाधा अंतर्मूहूर्त प्रमाण होती है, यह कथन नहीं बनता है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसार अवस्था को छोड़ कर क्षपक श्रेणी में इस प्रकार का नियम नहीं पाया जाता है।
7. उदीरणा की आबाधा आवली मात्र ही होती है
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 918/1103
आवलियं आबाहा उदीरणमासिज्जसत्तकम्माणं ॥918॥
= उदीरणा का आश्रय करि आयु बिना सात कर्म की आबाधा आवली मात्र है बंधे पीछैं उदीरणा होई तो आवली काल भए ही हौ जाई।
8. भुज्यमान आयु का शेष भाग ही बद्ध्यमान आयु की आबाधा है
धवला पुस्तक 6/1,9-6,22/166/9
एवमाउस्स आबाधा णिसेयट्ठिदी अण्णोण्णायत्तादो ण होंति त्ति जाणावणट्ठं णियेसट्ठिदी चेव परूविदा। पुव्वकोडितिभागमादिं कादूण जाव असंखेपाद्धा त्ति एदेसु आबाधावियप्पेसु देव णिरयाणं आउअस्स उक्कस्स णिसेयट्ठिदी संभवदि त्ति उत्त होदि।
= उस प्रकार आयुकर्म की आबाधा और निषेक स्थिति परस्पर एक दूसरे के अधीन नहीं है (जिस प्रकार कि अन्य कर्मों की होती है)। ...इसका यह अर्थ होता है कि पूर्वकोटी वर्ष के त्रिभाग अर्थात् तीसरे भाग को आदि करके असंक्षेपाद्धा अर्थात् जिससे छोटा (संक्षिप्त) कोई काल न हो, ऐसे आवली के असंख्यातवें भागमात्र काल तक जितने आबाधा काल के विकल्प होते है, उनमें देव और नारकियों के आयु की उत्कृष्ट निषेक स्थिति संभव है। (अर्थात् देव और नरकायु की आबाधा मनुष्य व तिर्यंचों के बद्ध्यमान भव में ही पूरी हो जाती है।) तथा इसी प्रकार अन्य सर्व आयु कर्मों की आबाधा के संबंध में भी यथायोग्य जानना।
गोम्मटसार कर्मकांड भाषा 160/195/12
आयु कर्म की आबाधा तो पहला भव में होय गई पीछे जो पर्याय धरया तहाँ आयु कर्म की स्थिति के जेते निषैक हैं तिन सर्व समयनि विषैं प्रथम समयस्यों लगाय अंत समय पर्यंत समय-समय प्रति परमाणू क्रमतैं खिरै हैँ।
9. आयुकर्म की आबाधा संबंधी शंका समाधान
धवला पुस्तक 6/1,9-6,26/6/169/10
पुव्वकोडितिभागादो आबाधा अहिया किण्ण होदि। उच्चदे-ण तावदेव-णेरइएसु बहुसागरोवमाउट्ठिदिएसु पुव्वकोडितिभागादो अधिया आबाधा अत्थि, तेसिं छम्मासावसेसे भुंजमाणाउए असंखेपाद्धापज्जवसाणे संते परभवियमाउअबंधमाणाणं तदसंभवा। णं तिरिक्ख-मणुसेसु वि तदो अहिया आबाधा अत्थि, तत्थ पुव्वकोडीदो अहियमवट्ठिदीए अभावा। असंखेज्जवसाऊ तिरिक्ख मणुसा अत्थि त्ति चे ण, तेसिं देव-णेरइयाणं व भुंजमाणाउए छम्मासादो अहिए संते परभवियआउअस्स बंधाभावा।
धवला पुस्तक 6/1,9-7,31/193/5
पुव्वकोडितिभागे वि भुज्जमाणाउए संते देवणेरइयदसवाससहस्सआउट्ठिदिबंधसंभवादो पुव्वकोडितिभागो आबाधा त्ति किण्ण परूविदो। ण एवं संते जहण्णट्ठिदिए अभावप्पसंगादो।
= प्रश्न - आयु कर्म की आबाधा पूर्व कोटी के त्रिभाग से अधिक क्यों नहीं होती? उत्तर - (मनुष्यों और तिर्यंचों में बंध होने योग्य आयु तो उपरोक्त शंका उठती ही नहीं) और न ही अनेक सागरोपम की आयु में स्थिति वाले देव और नारकियों में पूर्व कोटि के त्रिभाग से अधिक आबाधा होती है, क्योंकि उनकी भुज्यमान आयु के (अधिक से अधिक) छह मास अवशेष रहने पर (तथा कम से कम) असंक्षेपाद्धा काल के अवशेष रहने पर आगामी भव संबंधी आयु को बाँधने वाले उन देव और नारकियों के पूर्व कोटि को त्रिभाग से अधिक आबाधा का होना असंभव है। न तिर्यंच और मनुष्यों में भी इससे अधिक आबाधा संभव हैं, क्योंकि उनमें पूर्व कोटि से अधिक भवस्थिति का अभाव है। प्रश्न - (भोग भूमियों में) असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच और मनुष्य होते हैं। (फिर उनके पूर्व कोटि के त्रिभाग से अधिक आबाधा का होना संभव क्यों नहीं है?) उत्तर - नहीं, क्योंकि, उनके देव और नारकियों के समान भुज्यमान आयु के छह मास से अधिक होने पर भवसंबंधी आयु के बंध का अभाव है, (अतएव पूर्व कोटी के त्रिभाग से अधिक आबाधा का होना संभव नहीं है) (क्रमशः) प्रश्न - भुज्यमान आयु में पूर्वकोटि का त्रिभाग अवशिष्ट रहने पर भी देव और नारक संबंधी दश हजार वर्ष की जघन्य आयु स्थिति का बंध संभव है, फिर `पूर्वकोटि का त्रिभाग आबाधा' है ऐसा सूत्र में क्यों नहीं प्ररूपण किया? उत्तर - नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने पर जघन्य स्थिति के अभाव का प्रसंग आता है अर्थात् पूर्वकोटि का त्रिभाग मात्र आबाधा काल जघन्य आयु स्थिति बंध के साथ संभव तो है, पर जघन्य कर्म स्थिति का प्रमाण लाने के लिए तो जघन्य आबाधा काल ही ग्रहण करना चाहिए, उत्कृष्ट नहीं।
10. नोकर्मों की आबाधा संबंधी
धवला पुस्तक 14/5,6,246/332/11
णोकम्मस्स आबाधाभावेण..किमट्ठमेत्थ णथ्थि आबाधा। सामावियादो।
= नोकर्म की आबाधा नहीं होनेके कारण....। प्रश्न - यहाँ आबाधा किस कारण से नहीं है? उत्तर - क्योंकि ऐसा स्वभाव है।
• मूलोत्तर प्रकृतियों की जघन्य उत्कृष्ट आबाधा व उनका स्वामित्व - देखें स्थिति - 6।