ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 40.1 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
मदिणाणं पुण तिविहं उबलद्धी भावणं च उवओगो ।
तह एव चदुवियप्यं दंसणपुव्वं हवदि णाणं ॥42॥
अर्थ:
उपलब्धि, भावना और उपयोग के भेद से मतिज्ञान तीनप्रकार का है; उसीप्रकार वह चार प्रकार का है; तथा वह ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब मति आदि पाँच ज्ञानों का क्रम से पाँच गाथाओं द्वारा व्याख्यान करते हैं। वह इसप्रकार --
[मदिणाणं] वास्तव में निश्चय से अखण्ड, एक, विशुद्ध ज्ञान-मय यह आत्मा व्यवहार-नय से संसार अवस्था में कर्मों से घिरा हुआ, मति-ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर पाँच-इन्द्रिय और मन द्वारा मूर्त-अमूर्त वस्तु को विकल्प रूप से जिसके द्वारा जानता है, वह मतिज्ञान है । [पुण तिविहं] और वह तीन प्रकार का है; [उबलद्धी भावणं च उवओगो] उपलब्धि, भावना और उस रूप उपयोग । मतिज्ञानावरणीय क्षयोपशम से उत्पन्न पदार्थों को जानने की शक्ति उपलब्धि है; उससे जाने गए पदार्थ के सम्बन्ध में पुन:-पुन: चिंतन भावना है; यह नीला, यह पीला इत्यादि रूप से पदार्थ को जानने में व्यापार करना उपयोग है । [तह एव चदुवियप्यं] उसीप्रकार अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार प्रकार का अथवा वर / उत्कृष्ट कोष्ठ-बुद्धि, बीज-बुद्धि, पदानुसारी-बुद्धि, संभिन्नश्रोतृता-बुद्धि के भेद से चार प्रकार का है । [दंसणपुव्वं हवदि णाणं] और वह मति-ज्ञान सत्तावलोकन रूप दर्शन-पूर्वक होता है ।
यहाँ निर्विकार शुद्धात्मानुभूति के सम्मुख जो मतिज्ञान है वह ही उपादेयभूत अनन्त-सुख का साधक होने से निश्चय से उपादेय है, उसका साधक बहिरंग तो व्यवहार से उपादेय है -- ऐसा तात्पर्य है ॥४३॥