ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 151 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । (151)
कम्मेहिं सो ण रज्जदि किह तं पाणा अणुचरंति ॥163॥
अर्थ:
[यः] जो [इन्द्रियादिविजयीभूत्वा] इन्द्रियादि का विजयी होकर [उपयोगं आत्मकं] उपयोगमात्र आत्मा का [ध्यायति] ध्यान करता है, [सः] वह [कर्मभि:] कर्मों के द्वारा [न रज्यते] रंजित नहीं होता; [तं] उसे [प्राणा:] प्राण [कथं] कैसे [अनुचरंति] अनुसरण कर सकते हैं? (अर्थात् उसके प्राणों का सम्बन्ध नहीं होता ।)
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तिहेतु-मन्तरङ्गं ग्राहयति -
पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तेरन्तरङ्गो हेतुर्हि पौद्गलिककर्ममूलस्योपरक्तत्वस्याभाव: । सतु समस्तेन्द्रियादिपरद्रव्यानुवृत्तिविजयिनो भूत्वा समस्तोपाश्रयानुवृत्तिव्यावृत्तस्य स्फटिकमणे- रिवात्यन्तविशुद्धमुपयोगमात्रमात्मानं सुनिश्चलं केवलमधिवसत: स्यात् । इदमत्र तात्पर्यं आत्मनोऽत्यन्तविभक्तसिद्धये व्यवहारजीवत्वहेतव: पुद्गलप्राणा एवमुच्छेत्तव्या: ॥१५१॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
वास्तव में पौद्गलिक प्राणों के संतति की निवृत्ति का अन्तरङ्ग हेतु पौद्गलिक कर्म जिसका कारण (निमित्त) है ऐसे उपरक्तता का अभाव है । और वह अभाव जो जीव समस्त इन्द्रियादिक परद्रव्यों के अनुसार परिणति का विजयी होकर, (अनेक वर्णों वाले) आश्रयानुसार सारी परिणति से व्यावृत्त (पृथक्, अलग) हुए स्फटिक मणि की भाँति, अत्यन्त विशुद्ध उपयोगमात्र अकेले आत्मा में सुनिश्चलतया वसता है, उस (जीव) के होता है ।
यहाँ यह तात्पर्य है कि—आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिये व्यवहारजीवत्व के हेतुभूत पौद्गलिक प्राण इस प्रकार उच्छेद करने योग्य हैं ।