ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 152 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अत्थित्तणिच्छिदस्स हि अत्थस्सत्थंतरम्हि संभूदो । (152)
अत्थो पज्जाओ सो संठाणादिप्पभेदेहिं ॥164॥
अर्थ:
[अस्तित्वनिश्चितस्य अर्थस्य हि] अस्तित्व से निश्चित अर्थ का (द्रव्य का) [अर्थान्तरे सद्य:] अन्य अर्थ में (द्रव्य में) उत्पन्न [अर्थ:] जो अर्थ (भाव) [स पर्याय:] वह पर्याय है [संस्थानादिप्रभेदै:] कि जो संस्थानादि भेदों सहित होती है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ पुनरप्यात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वसिद्धये गतिविशिष्टव्यवहारजीवत्वहेतुपर्यायस्वरूपमुपवर्णयति -
स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चित एवान्यस्मिन्नर्थे विशिष्टरूपतया संभावितात्मलाभोऽर्थोनेकद्रव्यात्मक: पर्याय: । स खलु पुद्गलस्य पुद्गलान्तर इव जीवस्य पुद्गले संस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमान: संभाव्यत एव । उपपन्नश्चैवंविध: पर्याय:; अनेकद्रव्यसंयोगात्मत्वेन केवलजीवव्यतिरेकमात्र-स्यैकद्रव्यपर्यायस्यास्खलितस्यान्तरवभासनात् ॥१५२॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
स्वलक्षणभूत स्वरूप-अस्तित्व से निश्चित एक अर्थ का (द्रव्य) का, स्वलक्षणभूत स्वरूपअस्तित्व से ही निश्चित ऐसे अन्य अर्थ में विशिष्ट (भिन्न-भिन्न) रूप से उत्पन्न होता हुआ अर्थ (भाव) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है; जो कि वास्तव में, जैसे पुद्गल की अन्य पुद्गल में अन्य पुद्गलात्मकपर्याय उत्पन्न होती हुई देखी जाती है उसी प्रकार, जीव की पुद्गल में संस्थानादि से विशिष्टतया (संस्थान इत्यादि के भेद सहित) उत्पन्न होती हुई अनुभव में अवश्य आती है । और ऐसी पर्याय योग्य घटित है; क्योंकि जो केवल जीव की व्यतिरेकमात्र है ऐसी अस्खलित एक द्रव्य पर्याय ही अनेक द्रव्यों के संयोगात्मकतया भीतर ज्ञात होती है ।