ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 188 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहिं । (188)
कम्मरएहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये ॥201॥
अर्थ:
[सप्रदेश:] प्रदेशयुक्त [सः आत्मा] वह आत्मा [समये] यथाकाल [मोहरागद्वेषै:] मोह-राग-द्वेष के द्वारा [कषायित:] कषायित होने से [कर्म-रजोभि: श्लिष्ट:] कर्मरज से लिप्त या बद्ध होता हुआ [बंध इति प्ररूपित:] बंध कहा गया है ।
तत्त्व-प्रदीपिका: GP:प्रवचनसार - गाथा 188 - तत्त्व-प्रदीपिका
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जैसे जगत में वस्त्र सप्रदेश होने से लोध, फिटकरी आदि से कषायित होता है, जिससे वह मजीठादि के रंग से संबद्ध होता हुआ अकेला ही रंगा हुआ देखा जाता है, इसी प्रकार आत्मा भी सप्रदेश होने से यथाकाल मोह-राग-द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज के द्वारा संश्लिष्ट होता हुआ अकेला ही बंध है; ऐसा देखना (मानना) चाहिये, क्योंकि निश्चय का विषय शुद्ध द्रव्य है ॥१८८॥
अब निश्चय और व्यवहार का अविरोध बतलाते हैं :-