ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 194 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । (194)
सागारोऽणगारो खवेदि सो मोहदुग्गंठि ॥207॥
अर्थ:
[यः] जो [एवं ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [विशुद्धात्मा] विशुद्धात्मा होता हुआ [परमात्मानं] परम आत्मा का [ध्यायति] ध्यान करता है, [सः] वह [साकार: अनाकार:] साकार हो या अनाकार [मोहदुर्ग्रंथि] मोहदुर्ग्रंथि का [क्षपयति] क्षय करता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथैवं पूर्वोक्तप्रकारेण शुद्धात्मोपलम्भे सति किं फलं भवतीति प्रश्नेप्रत्युत्तरमाह --
झादि ध्यायति जो यः कर्ता । कम् । अप्पगं निजात्मानम् । कथंभूतम् । परं परमानन्तज्ञानादिगुणाधारत्वात्परमुत्कृष्टम् । किं कृत्वा पूर्वम् । एवं जाणित्ता एवं पूर्वोक्तप्रकारेण स्वात्मो-पलम्भलक्षणस्वसंवेदनज्ञानेन ज्ञात्वा । कथंभूतः सन् ध्यायति । विसुद्धप्पा ख्यातिपूजालाभादिसमस्त-मनोरथजालरहितत्वेन विशुद्धात्मा सन् । पुनरपि कथंभूतः सागारोऽणागारो सागारोऽनागारः । अथवासाकारानाकारः । सहाकारेण विकल्पेन वर्तते साकारो ज्ञानोपयोगः, अनाकारो निर्विकल्पो दर्शनोपयोग-स्ताभ्यां युक्तः साकारानाकारः । अथवा साकारः सविकल्पो गृहस्थः, अनाकारो निर्विकल्पस्तपोधनः । अथवा सहाकारेण लिङ्गेन चिह्नेन वर्तते साकारो यतिः, अनाकारश्चिह्नरहितो गृहस्थः । खवेदि सोमोहदुग्गंठिं य एवंगुणविशिष्टः क्षपयति स मोहदुर्ग्रन्थिम् । मोह एव दुर्ग्रन्थिः मोहदुर्ग्रन्थिः शुद्धात्मरुचि-प्रतिबन्धको दर्शनमोहस्तम् । ततः स्थितमेतत् --आत्मोपलम्भस्य मोहग्रन्थिविनाश एव फ लम् ॥२०७॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[झादि] ध्यान करता है [जो] कर्तारूप जो । किसका ध्यान करता है? [अप्पगं] निजात्मा का ध्यान करता है । कैसे निजात्मा का ध्यान करता है? [परं] परम, अनन्त-ज्ञानादि गुणों का आधार होने से परम-उत्कृष्ट निजात्मा का ध्यान करता है । पहले क्या करके उसका ध्यान करता है? [एवं जाणित्ता] इस- प्रकार पहले (२०३ से २०६ गाथा पर्यन्त) कही गई पद्धति-रूप निजात्मा की प्राप्ति लक्षण स्व-संवदेन ज्ञान से निजात्मा को जानकर फिर उसका ध्यान करता है । वह कैसा होता हुआ उसका ध्यान करता है? [विशुद्धप्पा] ख्याति, पूजा, लाभ आदि सम्पूर्ण इच्छा समूहों से रहित होने के कारण विशुद्धात्मा होता हुआ उसका ध्यान करता है । और भी कैसा है? [सागारोऽणगारो] सागार-अनागार है । अथवा साकार-अनाकार है । जो आकार अर्थात् विकल्प के साथ वर्तता है वह साकार-आकार सहित ज्ञानोपयोग है, अनाकार-विकल्प रहित दर्शनोपयोग -- उन दोनों से सहित साकार-अनाकार है । अथवा साकार अर्थात् सविकल्प गृहस्थ, अनाकार अर्थात् निर्विकल्प मुनिराज । अथवा साकार अर्थात् लिंग--चिन्हरूप से जो वर्तते हैं वे आकार सहित--साकार यति-मुनि हैं और अनाकार अर्थात् चिन्ह रहित गृहस्थ हैं । [खवेदि सो मोहदुग्गंठि] जो इन गुणों से सहित है, वह मोहरूपी दुर्ग्रंथि--बुरी गाँठ का क्षय करता है । मोह ही दुर्ग्रंथि-मोह दुर्ग्रंथि (इसप्रकार कर्मधारय समास किया) शुद्धात्मा की रुचि का प्रतिबन्धक (रोकने वाला) दर्शनमोह, उसे नष्ट करता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि मोह-रूपी ग्रन्थि का विनाश ही, आत्मोपलब्धि का फल है ॥२०७॥