ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 59 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जादं सयं समंतं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । (59)
रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणिदं ॥61॥
अर्थ:
[स्वयं जात] अपने आप ही उत्पन्न [समंतं] समंत (सर्व प्रदेशों से जानता हुआ) [अनन्तार्थविस्तृतं] अनन्त पदार्थों में विस्तृत [विमलं] विमल [तु] और [अवग्रहादिभि: रहितं] अवग्रहादि से रहित- [ज्ञानं] ऐसा ज्ञान [ऐकान्तिकं सुखं] ऐकान्तिक सुख है [इति भणित] ऐसा (सर्वज्ञ-देव ने) कहा है ॥५९॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैतदेव प्रत्यक्षं पारमार्थिकसौख्यत्वेनोपक्षिपति -
स्वयं जातत्वात्, समन्तत्वात्, अनन्तार्थविस्तृतत्वात्, विमलत्वात्, अवग्रहादिरहितत्वाच्च प्रत्यक्षं ज्ञानं सुखमैकान्तिकमिति निश्चीयते, अनाकुलत्वैकलक्षणत्वात्सौख्यस्य । यतो हि परतो जायमानं पराधीनतया, असमंतमितरद्वारावरणेन, कतिपयार्थप्रवृत्तमितरार्थ-बुभुत्सया, समलमसम्यगवबोधेन, अवग्रहादिसहितं क्रमकृतार्थग्रहणखेदेन परोक्षं ज्ञानमत्यन्त-माकुलं भवति । ततो न तत् परमार्थत: सौख्यम् । इदं तु पुनरनादिज्ञानसामान्यस्वभावस्योपरि महाविकाशेनाभिव्याप्य स्वत एव व्यवस्थि-तत्वात्स्वयं जायमानमात्माधीनतया, समन्तात्मप्रदेशान् परमसमक्षज्ञानोपयोगीभूताभिव्याप्य व्यवस्थितत्वात्समन्तम् अशेषद्वारापावरणेन, प्रसभं निपीयसमस्तवस्तुज्ञेयाकारं परमं वैश्व-रूप्यमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वादनंतार्थविस्तृतम् समस्तार्थाबुभुत्सया कलशक्तिप्रतिबंधक-कर्मसामान्यनि:क्रान्ततया परिस्पष्टप्रकाशभास्वरं स्वभावमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वाद्विमलम् सम्यगवबोधेने, युगपत्समर्पितत्रैसमयिकात्मस्वरूपं लोकालोकमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वादव-ग्रहादिरहितम् क्रमकृतार्थग्रहणखेदाभावेन प्रत्यक्षं ज्ञानमनाकुलं भवति । ततस्तत्पारमार्थिकं खलु सौख्यम् ॥५९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, इसी प्रत्यक्षज्ञान को पारमार्थिक सुखरूप बतलाते हैं :-
- स्वयं उत्पन्न होने से,
- १समंत होने से,
- अनन्त-पदार्थों में विस्तृत होने से,
- विमल होने से और
- अवग्रहादि रहित होने से,
- पर के द्वारा उत्पन्न होता हुआ पराधीनता के कारण
- ३असमंत होने से ४इतर द्वारों के आवरण के कारण
- मात्र कुछ पदार्थों में प्रवर्तमान होता हुआ अन्य पदार्थों को जानने की इच्छा के कारण,
- समल होने से असम्यक् अवबोध के कारण (--कर्ममल-युक्त होने से संशय-विमोह-विभ्रम सहित जानने के कारण), और
- अवग्रहादि सहित होने से क्रमश: होने वाले ५पदार्थ-ग्रहण के खेद के कारण
और यह प्रत्यक्ष ज्ञान तो अनाकुल है, क्योंकि-
- अनादि ज्ञान-सामान्यरूप स्वभाव पर महा विकास से व्याप्त होकर स्वत: ही रहने से स्वयं उत्पन्न होता है, इसलिये आत्माधीन है, (और आत्माधीन होने से आकुलता नहीं होती);
- समस्त आत्म-प्रदेशों में परम ६समक्ष ज्ञानोपयोग रूप होकर, व्याप्त होनेसे समंत है, इसलिये अशेष द्वार खुले हुए हैं (और इसप्रकार कोई द्वार बन्द न होने से आकुलता नहीं होती);
- समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकारों को सर्वथा पी जाने से ७परम विविधता में व्याप्त होकर रहने से अनन्त पदार्थों में विस्तृत है, इसलिये सर्व पदार्थों को जानने की इच्छा का अभाव है (और इस प्रकार किसी पदार्थ को जानने की इच्छा न होने से आकुलता नहीं होती);
- सकल शक्ति को रोकनेवाला कर्मसामान्य (ज्ञान में से) निकल जाने से (ज्ञान) अत्यन्त स्पष्ट प्रकाश के द्वारा प्रकाशमान (तेजस्वी) स्वभाव में व्याप्त होकर रहने से विमल है इसलिये सम्यक रूप से (बराबर) जानता है (और इसप्रकार संशयादि रहितता से जानने के कारण आकुलता नहीं होती); तथा
- जिनने त्रिकाल का अपना स्वरूप युगपत् समर्पित किया है (-एक ही समय बताया है) ऐसे लोकालोक मे व्याप्त होकर रहने से अवग्रहादि रहित है इसलिये क्रमश: होने वाले पदार्थ ग्रहण के खेद का अभाव है ।
१समन्त = चारों ओर-सर्व भागों में वर्तमान; सर्व आत्म-प्रदेशों से जानता हुआ; समस्त; सम्पूर्ण, अखण्ड
२ऐकान्तिक = परिपूर्ण; अन्तिम, अकेला; सर्वथा
३परोक्ष ज्ञान खंडित है अर्थात् (वह अमुक प्रदेशों के द्वारा ही जानता है); जैसे-वर्ण आँख जितने प्रदेशों के द्वारा ही (इन्द्रियज्ञान से) ज्ञात होता है; अन्य द्वार बन्द हैं
४इतर = दूसरे; अन्य; उसके सिवाय के
५पदार्थग्रहण अर्थात् पदार्थ का बोध एक ही साथ न होने पर अवग्रह, ईहा इत्यादि क्रमपूर्वक होने से खेद होता है
६समक्ष = प्रत्यक्ष
७परमविविधता = समस्त पदार्थ समूह जो कि अनन्त विविधतामय है