ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 60 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । (60)
खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ॥62॥
अर्थ:
[यत्] जो [केवलं इति ज्ञानं] 'केवल' नाम का ज्ञान है [तत् सौख्यं] वह सुख है [परिणाम: च] परिणाम भी [सः च एव] वही है [तस्य खेद: न भणित:] उसे खेद नहीं कहा है (अर्थात् केवलज्ञान में सर्वज्ञ-देव ने खेद नहीं कहा) [यस्मात्] क्योंकि [घातीनि] घाति-कर्म [क्षयं जातानि] क्षय को प्राप्त हुए हैं ॥६०॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ केवलस्यापि परिणामद्वारेण खेदस्य संभवादैकान्तिकसुखत्वं नास्तीति प्रत्याचष्टे -
अत्र को हि नाम खेद:, कश्च परिणाम:, कश्च केवलसुखयोर्व्यतिरेक:, यत: केवलस्यै-कान्तिकसुखत्वं न स्यात् । खेदस्यायतनानि घातिकर्माणि, न नाम केवलं परिणाममात्रम् । घातिकर्माणि हि महा-मोहोत्पादकत्वादुन्मत्तकवदतस्ंिमस्तद्बुद्धिमाधाय परिच्छेद्यमर्थं प्रत्यात्मानं यत: परिणाम-यन्ति, ततस्तानि तस्य प्रत्यर्थं परिणम्य श्राम्यत: खेदनिदानतां प्रतिपद्यन्ते । तदभावात्कुतो हि नाम केवले खेदस्योद्भेद: ।
यतश्च त्रिसमयावच्छिन्नसकलपदार्थपरिच्छेद्याकारवैश्वरूप्यप्रकाशनास्पदीभूतं चित्रभि-त्तिस्थानीयमनन्तस्वरूपं स्वयमेव परिणमत्केवलमेव परिणाम:, तत: कुतोऽन्य: परिणामो यद्द्वारेण खेदस्यात्मलाभ: ।
यतश्च समस्तस्वभावप्रतिघाताभावात्समुल्लसितनिरकुङ्शानन्तशक्तितया सकलं त्रैका-लिकं लोकालोकाकारमभिव्याप्य कूटस्थत्वेनात्यन्तनि:प्रकम्पं व्यवस्थितत्वादनाकुलतां सौख्यलक्षणभूतामात्मनोऽव्यतिरिक्तां बिभ्राणं केवलमेव सौख्यम्, तत: कुत: केवलसुखयो-र्व्यतिरेक: ।
अत: सर्वथा केवलं सुखमैकान्तिकमनुमोदनीयम् ॥६०॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, ऐसे अभिप्राय का खंडन करते हैं कि 'केवलज्ञान को भी परिणाम के द्वारा खेद का सम्भव होने से केवलज्ञान ऐकान्तिक सुख नहीं है' :-
यहाँ (केवलज्ञान के सम्बन्ध में), (१) खेद क्या, (२) परिणाम क्या तथा (३) केवलज्ञान और सुखका व्यतिरेक (भेद) क्या, कि जिससे केवलज्ञान को ऐकान्तिक सुखत्व न हो ?
- खेद के आयतन (स्थान) घाति-कर्म हैं, केवल परिणाम मात्र नहीं । घाति-कर्म महा मोह के उत्पादक होने से धतूरे की भाँति १अतत् में तत् बुद्धि धारण करवाकर आत्मा को ज्ञेयपदार्थ के प्रति परिणमन कराते हैं; इसलिये वे घातिकर्म, प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमित हो-होकर थकने वाले आत्मा के लिये खेद के कारण होते हैं । उनका (घाति-कर्मों का) अभाव होने से केवलज्ञान में खेद कहाँ से प्रगट होगा ?
- और तीन-कालरूप तीन भेद जिसमें किये जाते हैं ऐसे समस्त पदार्थों की ज्ञेयाकाररूप (विविधता को प्रकाशित करने का स्थानभूत केवलज्ञान, चित्रित-दीवार की भाँति, स्वयं) ही अनन्त-स्वरूप स्वयमेव परिणमित होने से केवलज्ञान ही परिणाम है । इसलिये अन्य परिणाम कहाँ हैं कि जिनसे खेद की उत्पत्ति हो?
- और, केवलज्ञान समस्त २स्वभाव-प्रतिघात के अभाव के कारण निरंकुश अनन्त शक्ति के उल्लसित होने से समस्त त्रैकालिक लोकालोक के- आकार में व्याप्त होकर ३कूटस्थतया अत्यन्त निष्कंप है, इसलिये आत्मा से अभिन्न ऐसा सुख-लक्षणभूत अनाकुलता को धारण करता हुआ केवलज्ञान ही सुख है, इसलिये केवलज्ञान और सुख का व्यतिरेक कहाँ है?
१अतत् में तत्बुद्धि = वस्तु जिस स्वरूप नहीं है उस स्वरूप होने की मान्यता; जैसे कि- जड में चेतन बुद्धि (जड में चेतन की मान्यता), दुःख में सुख-बुद्धि वगैरह ।
२प्रतिघात = विघ्न; रुकावट; हनन; घात
३कूटस्थ = सदा एकरूप रहनेवाला; अचल (केवलज्ञान सर्वथा अपरिणामी नहीं है, किन्तु वह एक ज्ञेय से दूसरे ज्ञेय के प्रति नहीं बदलता-सर्वथा तीनों काल के समस्त ज्ञेयाकारों को जानता है, इसलिये उसे कूटस्थ कहा है)