ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 93 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । (93)
तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥103॥
अर्थ:
पदार्थ वास्तव में द्रव्यमय हैं, द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं, द्रव्य तथा गुणों से पर्यायें होती हैं; और पर्यायमूढ जीव ही परसमय है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ पदार्थस्य द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं निरूपयति --
अत्थो खलु दव्वमओ अर्थो ज्ञानविषयभूतः पदार्थः खलु स्फुटं द्रव्यमयो भवति । कस्मात् । तिर्यक्-सामान्योद्धर्वतासामान्यलक्षणेन द्रव्येण निष्पन्नत्वात् । तिर्यक्सामान्योर्द्ध्वतासामान्यलक्षणं कथ्यते –एककाले नानाव्यक्तिगतोऽन्वयस्तिर्यक्सामान्यं भण्यते । तत्र दृष्टान्तो यथा – नानासिद्धजीवेषु सिद्धोऽयंसिद्धोऽयमित्यनुगताकारः सिद्धजातिप्रत्ययः । नानाकालेष्वेकव्यक्तिगतोन्वय ऊर्ध्वतासामान्यं भण्यते ।तत्र दृष्टांतः यथा – य एव केवलज्ञानोत्पत्तिक्षणे मुक्तात्मा द्वितीयादिक्षणेष्वपि स एवेति प्रतीतिः । अथवानानागोशरीरेषु गौरयं गौरयमिति गोजातिप्रतीतिस्तिर्यक्सामान्यम् । यथैव चैकस्मिन् पुरुषेबालकुमाराद्यवस्थासु स एवायं देवदत्त इति प्रत्यय ऊर्ध्वतासामान्यम् । दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि द्रव्याणि गुणात्मकानि भणितानि । अन्वयिनो गुणा अथवा सहभुवो गुणा इति गुणलक्षणम् ।यथा अनन्तज्ञानसुखादिविशेषगुणेभ्यस्तथैवागुरुलघुकादिसामान्यगुणेभ्यश्चाभिन्नत्वाद्गुणात्मकं भवति
सिद्धजीवद्रव्यं, तथैव स्वकीयस्वकीयविशेषसामान्यगुणेभ्यः सकाशादभिन्नत्वात् सर्वद्रव्याणि गुणात्मकानि भवन्ति । तेहिं पुणो पज्जाया तैः पूर्वोक्तलक्षणैर्द्रव्यैर्गुणैश्च पर्याया भवन्ति । व्यतिरेकिणःपर्याया अथवा क्रमभुवः पर्याया इति पर्यायलक्षणम् । यथैकस्मिन् मुक्तात्मद्रव्ये किंचिदूनचरम-शरीराकारगतिमार्गणाविलक्षणः सिद्धगतिपर्यायः तथाऽगुरुलघुकगुणषड्वृद्धिहानिरूपाः साधारणस्वभाव-गुणपर्यायाश्च, तथा सर्वद्रव्येषु स्वभावद्रव्यपर्यायाः स्वजातीयविजातीयविभावद्रव्यपर्यायाश्च, तथैव स्वभावविभावगुणपर्यायाश्च 'जेसिं अत्थि सहाओ' इत्यादिगाथायां, तथैव 'भावा जीवादीया' इत्यादि- गाथायां च पञ्चास्तिकाये पूर्वं कथितक्रमेण यथासंभवं ज्ञातव्याः । पज्जयमूढा हि परसमया यस्मादित्थंभूत-द्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानमूढा अथवा नारकादिपर्यायरूपो न भवाम्यहमिति भेदविज्ञानमूढाश्च परसमया मिथ्यादृष्टयो भवन्तीति । तस्मादियं पारमेश्वरी द्रव्यगुणपर्यायव्याख्या समीचीना भद्रा भवतीत्यभि-प्रायः ॥१०३॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अर्थ, ज्ञान का विषयभूत पदार्थ, वास्तव में द्रव्यमय है । पदार्थ द्रव्यमय कैसे है? तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य लक्षण द्रव्य से रचित होने के कारण पदार्थ द्रव्यमय है । तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य का लक्षण कहते हैं --
- एक समय में अनेक वस्तुओं में पाया जाने वाला अन्वय तिर्यक् सामान्य कहलाता है । वहाँ दृष्टांत देते हैं जैसे - अनेक सिद्ध जीवों में 'ये सिद्ध हैं, ये सिद्ध हैं' - इसप्रकार समान स्वभाव वाली सिद्धजाति का ज्ञान तिर्यक् सामान्य है ।
- अनेक समयों में एक वस्तु सम्बन्धी समानता ऊर्ध्वता सामान्य कहलाती है । वहाँ दृष्टान्त देते हैं जैसे - केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय जो मुक्तात्मा हैं दूसरे आदि समयों में भी वही हैं - ऐसी जानकारी ऊर्ध्वता सामान्यरूप है ।
द्रव्य गुणात्मक गुणस्वभावी कहे गये है । यह वही-यह वही गुण हैं अथवा साथ-साथ रहने वाले गुण हैं- इसप्रकार गुण का लक्षण है । जैसे सिद्ध जीव द्रव्य अनन्त ज्ञान, सुख आदि विशेष गुणों के साथ और उसीप्रकार अगुरुलघुक आदि सामान्य गुणों के साथ अभिन्नता होने के कारण गुणात्मक हैं । उसीप्रकार अपने-अपने विशेष-सामान्य गुणों के साथ अभिन्नता होने से सभी द्रव्य गुणात्मक हैं ।
उन पूर्वोक्त लक्षण द्रव्य और गुणों से पर्यायें होती हैं । जो व्यतिरेकि (भिन्न-भिन्न) है, वे पर्यायें हैं अथवा जो क्रम से होती हैं वे पर्यायें है - इसप्रकार पर्याय का लक्षण है । जैसे एक मुक्तात्मा द्रव्य में गति मार्गणा से विलक्षण अन्तिम शरीर के आकार से कुछ कम आकार वाली सिद्ध गति पर्याय तथा अगुरुलघुक गुण की षडवृद्धि-हानि रूप साधारण स्वभाव गुणपर्यायें हैं; उसीप्रकार सभी द्रव्यों में स्वभाव द्रव्य पर्यायें और स्वजातीय-विजातीय विभाव द्रव्य पर्यायें होती हैं और उसीप्रकार 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ में पहले कहे हुये क्रम से 'जिनका अस्ति स्वभाव है' -- इत्यादि गाथा में और उसीप्रकार 'जीवादिक द्रव्य भाव है' इत्यादि गाथा में यथासंभव जानना चाहिये ।
क्योंकि इसप्रकार द्रव्य -गुण-पर्याय की जानकरी के सम्बन्ध में जो मूढ (अज्ञानी) हैं अथवा 'नारकादि पर्याय रूप मैं नहीं हूँ' - इसप्रकार के भेद-विज्ञान में जो अज्ञानी हैं - वे परसमय मिथ्यादृष्टि हैं । इसलिए यह परमेश्वर (वीतराग-सर्वज्ञ देव) द्वारा कही गई द्रव्य-गुण-पर्याय की व्याख्या समीचीन कल्याणकारी है -- यह अभिप्राय है ॥१०३॥