23. एवं नामादिभि: प्रस्तीर्णानामधिकृतानां तत्त्वाधिगम: कुत: इत्यत इदमुच्यते –
23. इस प्रकार नामादिकके द्वारा विस्तार को प्राप्त हुए और अधिकृत जीवादिक व सम्यग्दर्शना-दिकके स्वरूपका ज्ञान किसके द्वारा होता है इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
प्रमाणनयैरधिगम:।।6।।
प्रमाण और नयोंसे पदार्थोंका ज्ञान होता है।।6।।
24. नामादिनिक्षेपविधिनोपक्षिप्तानां जीवादीनां
[1]तत्त्वं प्रमाणाभ्यां नयैश्चाधि
[2]गम्यते। प्रमाणनया वक्ष्यमाणलक्षणविकल्पा:। तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्जम्
[3]। श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मकं परार्थम्। तद्विकल्पा नया:
[4] । अत्राह – नयशब्दस्य अल्पाच्तरत्वात्पूर्वनिपात: प्राप्नोति। नैष दोष:। अभ्यर्हितत्वात्प्रमाणस्य
[5] पूर्वनिपात:। अभ्यर्हितत्वं च सर्वतो बलीय:। कुतोऽभ्यर्हितत्वम् ? नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात्। एवं ह्युक्तं ‘प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय:’ इति। सकलविषयत्वाच्च प्रमाणस्य। तथा चोक्तं ‘सकलादेश: प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन:’ इति। नयो द्विविध: द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्च। पर्यायार्थिकनयेन
[6] भावतत्त्वमधिगन्तव्यम्। इतरेषां त्रयाणां
[7] द्रव्यार्थिकनयेन, सामान्यात्मकत्वात्। द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिक:। पर्यायोऽर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायार्थिक:। तत्सर्वं समुदितं प्रमाणेनाधिगन्तव्यम्।
24. जिन जीवादि पदार्थोंका नाम आदि निक्षेप विधिके द्वारा विस्तारसे कथन किया है उनका स्वरूप दोनों प्रमाणों और विविध नयोंके द्वारा जाना जाता है। प्रमाण और नयोंके लक्षण और भेद आगे कहेंगे। प्रमाणके दो भेद हैं – स्वार्थ और परार्थ। श्रुतज्ञानको छोड़कर शेष सब ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं। परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार का है। ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थ प्रमाण कहते हैं और वचनात्मक प्रमाण परार्थ प्रमाण कहलाता है। इनके भेद नय हैं। शंका – नय शब्दमें थोड़े अक्षर हैं, इसलिए सूत्रमें उसे पहले रखना चाहिए ? समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि प्रमाण श्रेष्ठ है, अत: उसे पहले रखा है। ‘श्रेष्ठता सबसे बलवती होती है’ ऐसा नियम है। शंका – प्रमाण श्रेष्ठ क्यों है ? समाधान – क्योंकि प्रमाणसे ही नयप्ररूपणा की उत्पत्ति हुई है, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। आगममें ऐसा कहा है कि वस्तुको प्रमाणसे जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थका निश्चय करना नय है। दूसरे, प्रमाण समग्रको विषय करता है। आगममें कहा है कि ‘सकलादेश प्रमाणका विषय है और विकलादेश नयका विषय है।‘ इसलिए भी प्रमाण श्रेष्ठ है।
नयके दो भेद हैं – द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। पर्यायार्थिक नयका विषय भावनिक्षेप है और शेष तीनको द्रव्यार्थिक नय ग्रहण करता है, क्योंकि नय द्रव्यार्थिक सामान्यरूप है। द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है और पर्याय जिसका प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक नय है। तथा द्रव्य और पर्याय ये सब मिल कर प्रमाणके विषय हैं।
विशेषार्थ – इस सूत्रमें ज्ञानके प्रमाण और नय ऐसे भेद करके उनके द्वारा ‘जीवादि पदार्थोंका ज्ञान होता है यह बतलाया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए टीकामें मुख्यतया चार बातों पर प्रकाश डाला गया है – 1. ज्ञानके पाँच भेदोंमें-से किस ज्ञानका प्रमाण और नय इनमें-से किसमें अन्तर्भाव होता है। 2. नय शब्दमें अल्प अक्षर होनेपर भी सूत्रमें प्रमाण शब्द पहले रखने का कारण। 3. नयके भेद करके चार निक्षेपोंमें-से कौन निक्षेप किस नयका विषय है इसका विचार। 4. प्रमाणके विषयकी चर्चा।
प्रथम बातको स्पष्ट करते हुए जो कुछ लिखा है उसका आशय यह है कि ज्ञानके पाँच भेदोंमें-से श्रुतज्ञानके सिवा चार ज्ञान मात्र ज्ञानरूप माने गये हैं। साथ ही वे वितर्क रहित हैं, इसलिए उनका अन्तर्भाव प्रमाण ज्ञानमें ही होता है। किन्तु श्रुतज्ञान ज्ञान और वचन उभय रूप माना गया है। साथ ही वह सवितर्क है, इसलिए इसके प्रमाणज्ञान और नयज्ञान ऐसे दो भेद हो जाते हैं। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि श्रुतज्ञान जबकि शेष ज्ञानोंके समान ज्ञानका ही एक भेद है तो फिर इसे ज्ञान और वचन उभयरूप क्यों बतलाया है? समाधान है कि आगमरूप द्रव्य श्रुतका अन्तर्भाव श्रुतमें किया जाता है, इसलिए द्रव्य श्रुतको भी उपचारसे श्रुतज्ञान कहा गया है।
दूसरी बातको स्पष्ट करते हुए प्रमाणकी श्रेष्ठतामें दो हेतु दिये हैं। प्रथम हेतु तो यह दिया है कि नय प्ररूपणाकी उत्पत्ति प्रमाणज्ञानसे होती है, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। इसका आशय यह है कि जो पदार्थ प्रमाणके विषय हैं उन्हींमें विवक्षाभेदसे नयकी प्रवृत्ति होती है अन्यमें नहीं, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। दूसरा हेतु यह दिया है कि सकलादेश प्रमाणके अधीन है और विकलादेश नयके अधीन है अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। आशय यह है कि प्रमाण समग्रको विषय करता है और नय एकदेश को विषय करता है, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। जो वचन कालादिककी अपेक्षा अभेदवृत्तिकी प्रधानतासे या अभेदोपचारसे प्रमाणके द्वारा स्वीकृत अनन्त धर्मात्मक वस्तुका एक साथ कथन करता है उसे सकलादेश कहते हैं। और जो वचन कालादिककी अपेक्षा भेदवृत्तिकी प्रधानतासे या भेदोपचारसे नयके द्वारा स्वीकृत वस्तु धर्मका क्रमसे कथन करता है उसे विकलादेश कहते हैं। इनमें-से प्रमाण सकलादेशी होता है और नय विकलादेशी, अत: प्रमाण श्रेष्ठ माना गया है यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
तीसरी बातको स्पष्ट करते हुए नयके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो भेद करके जो नामादि तीन निक्षेपों को द्रव्यार्थिक नयका और भाव निक्षेप को पर्यायार्थिक नयका विषय बतलाया है सो इसका यह अभिप्राय है कि नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीनों निक्षेप सामान्यरूप हैं, अत: इन्हें द्रव्यार्थिक नयका विषय बतलाया है और भावनिक्षेप पर्यायरूप है, अत: इसे पर्यायार्थिक नयका विषय बतलाया है। यहाँ इतना विशेष जानना कि नामको सादृश्य सामान्यात्मक माने बिना शब्दव्यवहारकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है, इसलिए नाम निक्षेप द्रव्यार्थिक नयका विषय है और जिसकी जिसमें स्थापना की जाती है उनमें एकत्वका अध्यवसाय किये बिना स्थापना नहीं बन सकती है, इसलिए स्थापना द्रव्यार्थिक नयका विषय है। शेष कथन सुगम है।
पूर्व सूत्र
अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ तत्त्वं प्रमाणेभ्यो नयै- मु.।
- ↑ –श्चाभिग—आ, दि. 1, दि. 2।
- ↑ वर्ज्यम्। श्रु—मु.।
- ↑ ‘जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया।’ –सन्मति. 3।47।
- ↑ –णस्य तत्पर्वू—मु.।
- ↑ –येन पर्यायत—मु.।
- ↑ –रेषां नामस्थापनाद्रव्याणां द्रव्या—मु.।