32. किमेतैरेव जीवादीनामधिगमो भवति उत अन्योऽप्यधिगमोपायोऽस्तीति परिदृष्टोऽस्तीत्याह-
32. क्या इन उपर्युक्त कारणोंसे ही जीवादि पदार्थोंका ज्ञान होता है या और दूसरे भी ज्ञानके उपाय हैं इस प्रकार ऐसा प्रश्न करनेपर दूसरे उपाय हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च।।8।।
सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वसे भी सम्यग्दर्शन आदि विषयों का ज्ञान होता है।।8।।
33. सदित्यस्तित्वनिर्देश:
[1]। स प्रशंसादिषु वर्तमानो नेह गृह्यते। संख्या भेदगणना। क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषय:। तदेव स्पर्शनं त्रिकालगोचरम्। कालो द्विविध: - मुख्यो व्यावहारिकश्च। तयोरुत्तरत्र निर्णयो वक्ष्यते। अन्तरं विरहकाल:। भाव: औपशमिकादिलक्षण:। अल्पबहुत्वमन्योऽन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्ति:। एतैश्च सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनां चाधिगमो वेदितव्य:। ननु च निर्देशादेव सद्ग्रहणं सिद्धम्। विधानग्रहणात्संख्यागति:। अधिकरणग्रहणात्क्षेत्रस्पर्शनावबोध:। स्थितिग्रहणात्कालसंग्रह:। भावो नामादिषु संगृहीत एव। पुनरेषां किमर्थं ग्रहणमिति। सत्य
[2]सिद्धम्। विनेयाशयवशात्तत्त्वदेशनाविकल्प:। केचित्संक्षेपरुचय:
[3] केचित् विस्तररुचय:।अपरे नातिसंक्षेपेण नातिविस्तरेण प्रतिपाद्या:। सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयास इति अधिगमाभ्युपायभेदोद्देश: कुत:। इतरथा हि ‘प्रमाणनयैरधिगम:’’ इत्यनेनैव सिद्धत्वादितरेषां ग्रहणमनर्थकं स्यात्।
33. ‘सत्’ अस्तित्वका सूचक निर्देश है। वह प्रशंसा आदि अनेक अर्थोंमें रहता है, पर उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया है। संख्यासे भेदोंकी गणना ली हैं। वर्तमानकालविषयक निवासको क्षेत्र कहते हैं। त्रिकालविषयक उसी निवासको स्पर्शन कहते हैं। काल दो प्रकारका है – मुख्य और व्यावहारिक। इनका निर्णय आगे करेंगे। विरहकालको अन्तर कहते हैं। भावसे औपशमिक आदि भावोंका ग्रहण किया गया है और एक दूसरेकी अपेक्षा न्यूनाधिकका ज्ञान करनेको अल्पबहुत्व कहते हैं। इन सत् आदिके द्वारा सम्यग्दर्शनादिक और जीवादि पदार्थोंका ज्ञान होता है ऐसा यहाँ जानना चहिए। शंका – निर्देशसे ही ‘सत्’ का ग्रहण हो जाता है। विधानके ग्रहणसे संख्याका ज्ञान हो जाता है। अधिकरणके ग्रहण करनेसे क्षेत्र और स्पर्शनका ज्ञान हो जाता है। स्थितिके ग्रहण करनेसे कालका संग्रह हो जाता है। भावका नामादिकमें संग्रह हो ही गया है फिर इनका अलगसे किसलिए ग्रहण किया है ? समाधान – यह बात सही है कि निर्देश आदिके द्वारा ‘सत्’ आदिकी सिद्धि हो जाती है तो भी शिष्योंके अभिप्रायानुसार तत्त्वदेशनामें भेद पाया जाता है। कितने ही शिष्य संक्षेपरुचिवाले होते हैं। कितने ही शिष्य विस्ताररुचिवाले होते हैं और दूसरे शिष्य न तो अतिसंक्षेप कथन करनेसे समझते हैं और न अति विस्तृत कथन करनेसे समझते हैं। किन्तु सज्जनोंका प्रयास सब जीवों का उपकार करना है, इसलिए यहाँ अलगसे ज्ञानके उपायके भेदोंका निर्देश किया है। अन्यथा ‘प्रमाणनयैरधिगम:’ इतनेसे ही काम चल जाता, अन्य उपायोंका ग्रहण करना निष्फल होता।
34. तत्र जीवद्रव्यमधिकृत्य सदाद्यनुयोगद्वारनिरूपणं क्रियते। जीवाश्चतुर्दशसु गुणस्थानेषु व्यवस्थिता:। मिथ्यादृष्टि: सासादनसम्यग्दृष्टि: सम्यङ्मिथ्यादृष्टि: असंयतसम्यग्दृष्टि: संयतासंयत: प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत: अपूर्वकरणस्थाने उपशमक: क्षपक: अनिवृत्तिबादरसांपरायस्थाने उपशमक: क्षपक: सूक्ष्मसांपरायस्थाने उपशमक: क्षपक: उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ: क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ:
[4]सयोगकेवली अयोगकेवली चेति। ऐताषामेव जीवसमासानां निरूपणार्थं चतुर्दश मार्गणास्थानानि ज्ञेयानि। गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभव्यसम्यक्त्त्वसंज्ञाहारका इति।
34. अब जीव द्रव्यकी अपेक्षा ‘सत्’ आदि अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं यथा – जीव चौदह गुणस्थानोंमें स्थित हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, अनिवृत्तिबादरसाम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोगकेवली और अयोगकेवली। इन चौदह जीवसमासोंके निरूपण करनेके लिए चौदह मार्गणास्थान जानने चाहिए। यथा – गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहारक।
35. तत्र सत्प्ररूपणा द्विविधा सामान्येन विशेषेण च। सामान्येन अस्ति मिथ्यादृष्टि: सासादनसम्यग्दृष्टिरित्येवमादि। विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु आद्यानि चत्वारि गुणस्थानानि सन्ति। तिर्यग्गतौ तान्येव संयतासंयतस्थानाधिकानि सन्ति। मनुष्यगतौ चतुर्दशापि सन्ति। देवगतौ नारकवत्। इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियादिषु चतुरिन्द्रियपर्यन्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम्। पञ्चेन्द्रियेषु चतुर्दशापि सन्ति। कायानुवादेन पृथिवीकायादि1वनस्पतिकायान्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम्। त्रसकायेषु चतुर्दशापि सन्ति। योगानुवादेन त्रिषु योगेषुत्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति। तत: परं अयोगकेवली। वेदानुवादेन त्रिषु वेदेषु मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्ति बादरान्तानि सन्ति। अपगतवेदेषु अनिवृत्तिबादराद्ययोगकेवल्यन्तानि।
35. इनमें-से सामान्य और विशेषकी अपेक्षा सत्प्ररूपणा दो प्रकारकी है। मिथ्यादृष्टि है, सासादन सम्यग्दृष्टि है इत्यादिरूपसे कथन करना सामान्यकी अपेक्षा सत्प्ररूपणा है। विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब पृथिवियोंमें प्रारम्भके चार गुणस्थान हैं। तिर्यंचगतिमें वे ही चार गुणस्थान हैं किन्तु संयतासंयत एक गुणस्थान और है। मनुष्यगतिमें चौदह ही गुणस्थान हैं और देवगतिमें नारकियोंके समान चार गुणस्थान हैं। इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंसे लेकर चौइन्द्रिय तकके जीवोंमें एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। पंचेन्द्रियोंमें चौदह ही गुणस्थान हैं। कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायसे लेकर वनस्पति तकके जीवोंमें एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। त्रसकायिकोंमें चौदह ही गुणस्थान हैं। योग मार्गणाके अनुवादसे तीनों योगोंमें तेरह गुणस्थान हैं और इसके बाद अयोगकेवली गुणस्थान है। वेदमार्गणाके अनुवादसे तीनों वेदोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक नौ गुणस्थान हैं। अपगतवेदियोंमें अनिवृत्तिबादरसे लेकर अयोगकेवली तक छह गुणस्थान हैं।
36. कषायानुवादेन क्रोधमानमायासु मिथ्यादृष्ट्यादीनि अनिवृत्तिबादरस्थानान्तानि सन्ति। लोभकषाये तान्येव सूक्ष्मसांपरायस्थानाधिकानि। अकषाय: उपशान्तकषाय: क्षीणकषाय: सयोगकेवली अयोगकेवली
[5] चेति।
36. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोध, मान और माया कषायमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक नौ गुणस्थान हैं, लोभकषायमें वे ही नौ गुणस्थान हैं, किन्तु सूक्ष्मसाम्पराय एक गुणस्थान और है। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगी और अयोगी ये चार गुणस्थान कषायरहित हैं।
37. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानेषु मिथ्यादृष्टि: सासादनसम्यग्दृष्टिश्चास्ति
[6]। आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानेषु असंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनि क्षीणकषायान्तानि सन्ति। मन:पर्ययज्ञाने प्रमत्तसंयतादय: क्षीणकषायान्ता: सन्ति। केवलज्ञाने सयोगोऽयोगश्च।
37. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञानमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान हैं। आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक नौ गुणस्थान हैं। मन:पर्ययज्ञानमें प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय तक सात गुणस्थान हैं। केवलज्ञानमें सयोग और अयोग ये दो गुणस्थान हैं।
38. संयमानुवादेन संयता: प्रमत्तादयोऽयोगकेवल्यन्ता:। सामायिकच्छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयता: प्रमत्तादयोऽनिवृत्तिस्थानान्ता:। परिहारविशुद्धिसंयता: प्रमत्ताश्चप्रमत्ताश्च। सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयता एकस्मिन्नेव सूक्ष्मसांपरायस्थाने। यथाख्यातविहारशुद्धिसंयता उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ता:। संयतासंयता एकस्मिन्नेव संयतासंयतस्थाने। असंयता आद्येषु चतुर्षुगुणस्थानेषु।
38. संयम मार्गणाके अनुवादसे प्रमत्तसंयतसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक संयत जीव होते हैं। सामायिक संयत और छेदोपस्थापस्थापनशुद्धिसंयत जीव प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्ति गुणस्थान तक होते हैं। परिहारविशुद्धिसंयत जीव प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत जीव एक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होते हैं। यथाख्यात विहार शुद्धिसंयत जीव उपशान्तकषाय गुणस्थानसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक होते हैं। संयतासंयत जीव एक संयतासंयत गुणस्थानमें होते हैं। असंयत जीव प्रारम्भके चार गुणस्थानोंमें होते हैं।
39. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनयोर्मिथ्यादृष्ट्यादीनि क्षीणकषायान्तानि सन्ति। अवधिदर्शने असंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनि क्षीणकषायान्तानि सन्ति। केवलदर्शने सयोगकेवली अयोगकेवली च।
39. दर्शन मार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान हैं। अवधिदर्शनमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक नौ गुणस्थान हैं। केवलदर्शनमें सयोगकेवली और अयोगकेवली ये दो गुणस्थान हैं।
40. लेश्यानुवोदन कृष्णनीलकपोतलेश्यासु मिथ्यादृष्ट्यादीनि असंयतसम्यग्दृष्ट्यन्तानि सन्ति। तेज:पद्मलेश्ययोर्मिथ्यादृष्ट्यादीनि अप्रमत्तस्थानान्तानि। शुक्ललेश्यायां मिथ्यादृष्ट्यादीनि सयोगकेवल्यन्तानि। अलेश्या अयोगकेवलिन:।
40. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कपोत लेश्यामें मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक चार गुणस्थान हैं। पीत और पद्मलेश्यामें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक सात गुणस्थान हैं। शुक्ललेश्यामें मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक तेरह गुणस्थान हैं। किन्तु अयोगकेवली जीव लेश्या रहित हैं।
41. भव्यानुवादेन भव्येषु चतुर्दशापि सन्ति। अभव्या आद्य एव स्थाने।
41. भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्योंमें चौदह ही गुणस्थान हैं। किन्तु अभव्य पहले ही गुणस्थान में पाये जाते हैं।
42. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनि अयोगकेवल्यन्तानि सन्ति। क्षायोपशमिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनि अप्रमत्तान्तानि। औपशमिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनि उपशान्तकषायान्तानि। सासादनसम्यग्दृष्टि: सम्यङ्मिथ्यादृष्टिर्मिथ्यादृष्टिश्च स्वे स्वे स्थाने।
42. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिकसम्यक्त्वमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक ग्यारह गुणस्थान हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थान हैं। औपशमिक सम्यक्त्वमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर उपशान्तकषाय तक आठ गुणस्थान हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि अपने-अपने गुणस्थान में होते हैं।
43. संज्ञानुवोदेन संज्ञिषु द्वादश गुणस्थानानि क्षीणकषायान्तानि। असंज्ञिषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम्। तदुभयव्यपदेशरहित: सयोगकेवली अयोगकेवली च।
43. संज्ञामार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान हैं। असंज्ञियोंमें एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। संज्ञी और असंज्ञी इस संज्ञासे रहित जीव सयोगकेवली और अयोगकेवली इन दो गुणस्थानवाले होते हैं।
44. आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्ट्यादीनि केवल्यन्तानि। अनाहारकेषु विग्रहगत्यापन्नेषु त्रीणि गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टि: सासादनसम्यग्दृष्टिरसंयतसम्यग्दृष्टिश्च। समुद्घातगत: सयोगकेवली अयोगकेवली च। सिद्धा: परमेष्ठिन: अतीतगुणस्थाना:। उक्ता सत्प्ररूपणा।
44. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगकेवली तक तेरह गुणस्थान होते हें। विग्रहगतिको प्राप्त अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं। तथा समुद्घातगत सयोगकेवली और अयोगकेवली जीव भी अनाहारक होते हैं। सिद्ध परमेष्ठी गुणस्थानातीत हैं। इस प्रकार सत्प्ररूपणाका कथन समाप्त हुआ।
45. संख्याप्ररूपणोच्यते। सा द्विविधा
[7] सामान्येन विशेषेण च। सामान्येन तावद् जीवा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ता:। सासादनसम्यग्दृष्टय: सम्यङ्मिथ्ययादृष्टयोऽसंयतसम्यग्दृष्टय: संयतासंयताश्च पल्योपमासंख्येयभागप्रमिता:। प्रमत्तसंयता: कोटीपृथक्त्वसंख्या:। पृथक्त्वमित्यागमसंज्ञा तिसृणां कोटीनाममुपरि नवानामध:। अप्रमत्तसंयता: संख्येया:। चत्वार उपशमका: प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा। उत्कर्षेण चतु:पञ्चाशत्। स्वकालेन समुदिता: संख्येया:। चत्वार: क्षपका अयोगकेवलिनश्च प्रवेशेन एकौ वा द्वौ वा त्रयो वा। उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्या:। स्वकालेन समुदिता: संख्येया:। सयोगकेवलिन: प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा। उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्या:। स्वकालेन समुदिता: शतसहस्रपृथक्त्वसंख्या:।
45. अब संख्या प्ररूपणाका कथन करते हैं। सामान्य और विशेषकी अपेक्षा वह दो प्रकारकी है। सामान्यकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इनमें-से प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। प्रमत्त संयतोंकी संख्या कोटिपृथक्त्व है। पृथक्त्व आगमिक संज्ञा है। इससे तीनसे ऊपर और नौके नीचे मध्यकी किसी संख्याका बोध होता है। अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं। चारों उपशमक गुणस्थानवाले जीव प्रवेशकी अपेक्षा एक, दो या तीन हैं, उत्कृष्टरूपसे चौवन हैं और अपने कालके द्वारा संचित हुए उक्त जीव संख्यात हैं। चारों क्षपक और अयोगकेवली प्रवेशकी अपेक्षा एक, दो या तीन हैं, उत्कृष्टरूपसे एकसौ आठ हैं और अपने कालके द्वारा संचित हुए उक्त जीव संख्यात हैं। सयोगकेवली जीव प्रवेशकी अपेक्षा एक, दो या तीन हैं, उत्कृष्टरूपसे एकसौ आठ हैं और अपने कालके द्वारा संचित हुए उक्त जीव लाखपृथक्त्व हैं।
46. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ प्रथमायां पृथिव्यां नारका मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येया: श्रेणय: प्रतरासंख्येयभागप्रमिता:। द्वितीयादिष्वा सप्तम्या मिथ्यादृष्टय: श्रेण्यसंख्येयभागप्रमिता:। स चासंख्येयभाग: असंख्येया योजनकोटीकोट्य:। सर्वासु पृथिवीषु सासादनसम्यग्दृष्टय: सम्यङ्मिथ्यादृष्टयोऽसंयतसम्यग्दृष्टयश्च पल्योपमासंख्येयभागप्रमिता:। तिर्यग्गतौ तिरश्चां
[8] मध्ये मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ता:। सासादनसम्यग्दृष्ट्यादय: संयतासंयतान्ता: पल्योपमासंख्येयभागप्रमिता:। मनुष्यगतौ मनुष्या मिथ्यादृष्टय: श्रेण्यसंख्येयभागप्रमिता:। स चासंख्येयभाग: असंख्येया योजनकोटीकोट्य:। सासादनसम्यग्दृष्ट्यादय: संयतासंयतान्ता: संख्येया:। प्रमत्तादीनां सामान्योक्ता संख्या। देवगतौ देवा मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येया: श्रेणय: प्रतरासंख्येयभागप्रमिता:। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टय: पल्योपमासंख्येयभागप्रमिता:।
46. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें पहली पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि नारकी
असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण[9] हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके[10] असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि नारकी जगश्रेणीके असंख्यातवें[11] भाग प्रमाण हैं, जो जगश्रेणीका असंख्यातवाँ भाग असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजनप्रमाण हैं। सब पृथिवियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। तिर्यंचगतिमें मिथ्यादृष्टि तिर्यंच अनन्तानन्त हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले तिर्यंच पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्यगतिमें मिथ्यादृष्टि मनुष्यजग[12]श्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, जो जगश्रेणीका असंख्यातवाँ भाग असंख्यातकोड़ाकोड़ी योजन प्रमाण है। [13]सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनुष्य संख्यात हैं। प्रमत्तसंयत आदि मनुष्योंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कह आये हैं। देवगतिमें मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण[14] हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इनमें-से प्रत्येक गुणस्थानवाले देव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
47. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रिया मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ता:। द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रिया असंख्येया: श्रेणय: प्रतरासंख्येयभागमिता:। पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येया: श्रेणय: प्रतरासंख्येयभागप्रमिता:। सासादनसम्यग्यदृष्ट्यादयोऽयोगकेवल्यन्ता: सामान्योक्तसंख्या:।
47. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं। दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय और चार इन्द्रिय जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। पंचेन्द्रियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवाले पंचेन्द्रियोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कह आये हैं।
48. कायानुवादेन पृथिवीकायिका अप्कायिकास्तेज:कायिका वायुकायिका असंख्येया लोका:। वनस्पतिकायिका: अनन्तानन्ता:। त्रसकायिकसंख्या पञ्चेन्द्रियवत्।
48. काय मार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी संख्या असंख्यात लोकप्रमाण है। वनस्पतिकायिक जीव अनन्तानन्त हैं और त्रसकायिक जीवोंकी संख्या पंचेन्द्रियोंके
[15] समान है।
49. योगानुवादेन मनोयोगिनो वाग्योगिनश्च मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येया: श्रेणय: प्रतरासंख्येयभागप्रमिता:। काययोगिनो
[16] मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ता:
[17]। त्रयाणामपि योगिनां सासादनसम्यग्दृष्ट्यादय: संयतासंयतान्ता: पल्योपमासंख्येयभागप्रमिता:। प्रमत्तसंयतादय: सयोगकेवल्यन्ता: संख्येया:। अयोगकेवलिन: सामान्योक्तसंख्या:।
49. योग मार्गणाके अनुवादसे मनोयोगी और वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। काययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं। तीनों योगवालोंमें सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। प्रमत्तसंयत से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तकके तीनों योगवाले जीव प्रत्येक गुणस्थानमें संख्यात हैं। अयोगकेवलियोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कह आये हैं।
50. वेदानुवादेन स्त्रीवेदा: पुंवेदाश्च मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येया: श्रेणय: प्रतरासंख्येयभागप्रमिता:। नपुंसकवेदा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ता:। स्त्रीवेदा नुपंसकवेदाश्च सासादनसम्यग्दृष्ट्यादय: संयतासंयतान्ता: सामान्योक्तसंख्या:। प्रमत्तसंयतादयोऽनिवृत्तिबादरान्ता: संख्येया:। पुंवेदा: सासादनसम्यग्दृष्ट्यादयो
[18]निवृत्तिबादरान्ता: सामान्योक्तसंख्या:। अपगतवेदा अनिवृत्तिबादरादयोऽयोगकेवल्यन्ता: सामान्योक्तसंख्या:।
50. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदवाले मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। नपुंसकवेदवाले मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक स्त्रीवेदवाले और नपुंसकवेदवाले जीवोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कही है। प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक स्त्रीवेदवाले और नपुंसक वेदवाले जीव संख्यात हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक पुरुषवेदवालोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कही है। अनिवृत्तिबादरसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक अपगतवेदवाले जीवोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कही है।
51. कषायानुवादेन क्रोधमानमायासु मिथ्यादृष्ट्यादय: संयतासंयतान्ता: सामान्योक्तसंख्या:। प्रमत्तसंयतादयोऽनिवृत्तिबादरान्ता: संख्येया:। लोभकषायाणामुक्त एव क्रम:। अयं तु विशेष: सूक्ष्मसांपरायसंयता: सामान्योक्तसंख्या:। अकषाया उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ता: सामान्योक्तसंख्या:।
51. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोध, मान और माया कषायमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले जीवोंकी वही संख्या है जो
[19]सामान्यसे कही है। प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक उक्त कषायवाले जीव संख्यात हैं। यही क्रम लोभकषायवाले जीवोंका जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सूक्षमसाम्परायिक संयत जीवोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कही गयी है। उपशान्त कषायसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक कषाय रहित जीवोंकी संख्या सामान्यवत्
[20] है।
52. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिन: श्रुताज्ञानिनश्च मिथ्यादृष्टि
[21]सासादनसमयग्दृष्टय: सामान्योक्तसंख्या:। विभङ्गज्ञानिनो मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येया: श्रेणय: प्रतरासंख्येयभागप्रमिता:। सासादनसम्यग्दृष्टय: पल्योपमासंख्येयभागप्रमिता:। मतिश्रुतज्ञानिनोऽसंयतसम्यग्दृष्ट्यादय: क्षीणकषायान्ता: सामान्योक्तसंख्या:। अवधिज्ञानिनोऽसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयता:
[22] सामान्योक्तसंख्या:। प्रमत्तसंयतादय: क्षीणकषायान्ता: संख्येया:। मन:पर्ययज्ञानिन: प्रमत्तसंयतादय: क्षीणकषायान्ता: संख्येया:। केवलज्ञानिन: सयोगा अयोगाश्च सामान्योक्तसंख्या:।
52. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंकी संख्या सामान्यवत्
[23] है। विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातें भाग प्रमाण हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि विभंगज्ञानी जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंकी संख्या सामान्यवत्
[24] है। असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत अवधिज्ञानी जीवोंकी संख्या सामान्यवत्
[25] है। प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानमें अवधिज्ञानी जीव संख्यात हैं। प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानमें मन:पर्ययज्ञानी जीव संख्यात हैं। सयोगी और अयोगी केवलज्ञानियोंकी संख्या सामान्यवत्
[26] है।
53. संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयता: प्रमत्तादयोऽनिवृत्तिबादरान्ता: सामान्योक्तसंख्या:। परिहारविशुद्धिसंयता: प्रमत्ताश्चाप्रमत्ताश्च संख्येया:। सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयता यथाख्यातविहारशुद्धिसंयता: संयतासंयता असंयताश्च सामान्योक्तसंख्या:।
53. संयममार्गणाके अनुवादसे प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है।
[27] प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें परिहार-विशुद्धिसंयत जीव संख्यात हैं। सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, संयतासंयत और असंयत जीवोंकी संख्या सामान्यवत्
[28] है।
54. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिनो मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येया: श्रेणय: प्रतरासंख्येयभागप्रमिता:। अचक्षुर्दर्शनिनो मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ता:। उभये च सासादनसम्यग्दृष्ट्यादय: क्षीणकषायान्ता: सामान्योक्तसंख्या:। अवधिदर्शनिनोऽवधिज्ञानिवत् केवलदर्शनिन: केवलज्ञानिवत्।
54. दर्शन मार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणी प्रमाण हैं जो श्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अचक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके उक्त दोनों दर्शनवाले जीवोंकी संख्या सामान्यवत्
[29] है। अवधिदर्शनवाले जीवोंकी संख्या अवधिज्ञानियों के समान है। केवलदर्शनवाले जीवोंकी संख्या केवलज्ञानियों के समान है।
55. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्या मिथ्यादृष्ट्यादयोऽसंयतसम्यग्दृष्ट्यन्ता: सामान्योक्तसंख्या:। तेज:पद्मलेश्या मिथ्यादृष्ट्यादय: संयतासंयतान्ता: स्त्रीवेदवत्। प्रमत्ताप्रमत्तसंयता: संख्येया:। शुक्ललेश्या मिथ्यादृष्ट्यादय: संयतासंयतान्ता: पल्योपमासंख्येयभागप्रमिता:। प्रमत्ताप्रमत्तसंयता: संख्येया:। अपूर्वकरणादय: सयोगकेवल्यन्ता अलेश्याश्च सामान्योक्तसंख्या:।
55. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंकी संख्या
[30] सामान्यवत् है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक पीत और पद्मलेश्यावाले जीवों की संख्या
[31]स्त्रीवेदके समान है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवाले पीत और पद्मलेश्यावाले जीव संख्यात हैं। मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक शुक्ल लेश्यावाले जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं। अपूर्वकरणसे लेकर सयोगकेवली तक जीव सामान्यवत्
[32] हैं। लेश्यारहित जीव सामान्यवत् हैं।
56. भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्ट्यादयोऽयोगकेवल्यन्ता: सामान्योक्तसंख्या:। अभव्या अनन्ता:।
56. भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्योंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक जीव सामान्यवत्
[33] हैं। अभव्य अनन्त हैं।
57. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टय: पल्योपमासंख्येयभागप्रमिता:। संयतासंयतादय उपशान्तकषायान्ता: संख्येया:। चत्वार: क्षपका: सयोगकेवलिनोऽयोगकेवलिनश्च सामान्योक्तसंख्या:। क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्ट्यादयोऽप्रमत्तान्ता: सामान्योक्तसंख्या:। औपशमिकसम्यग्दृष्टिषु असंतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयता: पल्योपमासंख्येयभागप्रमिता:। प्रमत्ताप्रमत्तसंयता: संख्येया:। चत्वार औपशमिका: सामान्योक्तसंख्या:। सासादनसम्यग्दृष्टय: सम्यङ्मिथ्यादृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च सामान्योक्तसंख्या:।
57. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीव पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं। संयतासंयतसे लेकर उपशान्तकषाय तक जीव संख्यात हैं। चारों क्षपक, सयोगकेवली और अयोगकेवली सामान्यवत् हैं। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों में असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक सामान्यवत् हैं। औपशमिक सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं। प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं। चारों उपशमक सामान्यवत् हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है।
58. संज्ञानुवादेन संज्ञिषु मिथ्यादृष्ट्यादय: क्षीणकषायान्ताश्चक्षुर्दर्शनिवत् । असंज्ञिनो मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ता:। तदुभयव्यपदेशरहिता: सामान्योक्तासंख्या:।
58. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक जीवोंकी संख्या चक्षुदर्शनवाले जीवोंके समान
[34] है। असंज्ञी मिथ्यादृष्टि अनन्तानन्त हैं। संज्ञी और असंज्ञी संज्ञासे रहित जीवोंकी संख्या सामान्यवत्
[35] है।
59. आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्ट्यादय: सयोगकेवल्यन्ता: सामान्योक्तसंख्या:। अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टय: सामान्योक्तसंख्या:। सयोगकेवलिन: संख्येया:। अयोगकेवलिन: सामान्योक्तसंख्या: । संख्या निर्णीता।
59. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक जीवोंकी संख्या सामान्यवत्
[36] है। अनाहारकोंमे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंकी संख्या सामान्यवत्
[37] है। सयोगकेवली संख्यात हैं और अयोगकेवली जीवोंकी संख्या सामान्यवत्
[38] है। इस प्रकार संख्याका निर्णय किया।
60. क्षेत्रमुच्यते। तद् द्विविधं सामान्येन विशेषेण च। सामान्येन तावद् – मिथ्यादृष्टीनां सर्वलोक:। सासादनसम्यग्दृष्टष्यादीनामयोगकेवल्यन्तानां लोकस्यासंख्येयभाग:। सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभागो
[39]ऽसंख्येया भागा: सर्वलोको वा।
60. अब क्षेत्रका कथन करते हैं। सामान्य और विशेषकी अपेक्षा वह दो प्रकार का है। सामान्यसे मिथ्यादृष्टियोंका सब लोक क्षेत्र है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे लेकर अयोगकेवली तक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। सयोगकेवलियोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सब लोक क्षेत्र है।
61. विशेषेण गत्यानुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु नारकाणां चतुर्षुगुणस्थानेषु लोकस्यासंख्येयभाग:। तिर्यग्गतौ तिरश्चां मिथ्यादृष्ट्यादिसंयतासंयतान्तानां सामान्योक्तं क्षेत्रम्। मनुष्यगतौ मनुष्याणां मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां लोकस्यासंख्येयभाग:। सयोगकेवलिनां सामान्योक्तं क्षेत्रम् देवगतौ देवानां सर्वेषां चतुर्षु गुणस्थानेषु लोकस्यासंख्येयभाग:।
61. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब पृथिवियों में नारकियोंका चार गुणस्थानोंमें लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। तिर्यंचगतिमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले तिर्यंचोंका क्षेत्र सामान्यवत् है। अर्थात् मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंका सब लोक क्षेत्र है और शेष तिर्यंचोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। मनुष्यगतिमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनुष्योंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है। सयोगकेवलियोंका सामान्यवत् क्षेत्र है। देवगतिमें सब देवोंका चार गुणस्थानोंमें लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है।
62. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां क्षेत्रं सर्वलोक:। विकलेन्द्रियाणां लोकस्यासंख्येयभाग:। पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्यवत्।
62. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंका सब लोक क्षेत्र है। विकलेन्द्रियोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र हे और पंचेन्द्रियोंका मनुष्योंके समान क्षेत्र है।
63. कायानुवादेन पृथिवीकायादिवनस्सपतिकायान्तानां सर्वलोक:। त्रसकाकायिकानां पञ्चेन्द्रियवत्।
63. काय मार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायसे लेकर वनस्पतिकाय तकके जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। त्रसकायिकोंका पंचेन्द्रियोंके समान क्षेत्र है।
64. योगानुवादेन वाङ्मनसयोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादिसयोगकेवल्यन्तानां लोकस्यासंख्येयभाग:। काययोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादिसयोगकेवल्यन्तानामयोगकेवलिनां च सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
64. योग मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले वचन योगी और मनोयोगी जीवोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले काययोगी जीवोंका और अयोगकेवली जीवोंका सामान्यवत् क्षेत्र है।
65. वेदानुवादेन
[40]स्त्रीपुंवेदानां मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां लोकस्यासंख्येयभाग:। नपुंसकवेदानां मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानामपगतवेदानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
65. वेदमार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्ति बादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। तथा मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले नपुंसकवेदी जीवों का और अपगतवेदियोंका सामान्यवत् क्षेत्र है।
66. कषायानुवादेन क्रोधमानमायाकषायाणां
[41]लोभकषायाणां च मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सूक्षमसांपरायाणामकषायाणां च सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
66. कषायमार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्रोध, मान, माया व लोभ कषायवाले, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें लोभ कषायवाले और कषाय रहित जीवोंका सामान्यवत् क्षेत्र है।
67. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिनां मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तं क्षेत्रम्। विभङ्गज्ञानिनां मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां लोकस्यासंख्येयभाग:। आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानिनामसंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनां क्षीणकषायान्तानां मन:पर्ययज्ञानिनां च प्रमत्तादीनां क्षीणकषायान्तानां केवलज्ञानिनां सयोगानामयोगानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
67. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवाले मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि विभंगज्ञानियोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंका, प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मन:पर्ययज्ञानी जीवोंका तथा सयोग और अयोग गुणस्थानवाले केवलज्ञानी जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है।
68. संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतानां चतुर्णां परिहारविशुद्धिसंयतानां प्रमत्ताप्रमत्तानां सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयतानां यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतानां चतुर्णां संयतासंयतानामसंयतानां च चतुर्णां सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
68. संयम मार्गणाके अनुवादसे प्रमत्तादि चार गुणस्थानवाले सामायिक और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंका, प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानवाले परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंका, सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंका, उपशान्त मोह आदि चार गुणस्थानवाले यथाख्यात विहार-विशुद्धिसंयत जीवोंका ओर संयतासंयत तथा चार गुणस्थानवाले असंयत जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है।
69. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिनां मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां लोकस्यासंख्येयभाग:। अचक्षुर्दर्शनिनां मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तं क्षेत्रम्। अवधिदर्शनिनामवधिज्ञानिवत्। केवलदर्शनिनां केवलज्ञानिवत्।
69. दर्शन मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानमें चक्षुदर्शनवाले जीवोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले अचक्षुदर्शनवाले जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है। तथा अवधिदर्शनवालोंका अवधिज्ञानियोंके समान और केवलदर्शनवालोंका केवलज्ञानियोंके समान क्षेत्र है।
70. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यानां मिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतसम्यग्दृष्ट्यन्तानां सामान्योक्तं क्षेत्रम्। तेज:पद्मलेश्यानां मिथ्यादृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां लोकस्यासंख्येयभाग:। शुक्ललेश्यानां मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां लोकस्यासंख्येयभाग:। सयोगकेवलिनामलेश्यानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
70. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक प्रत्येक गुणस्थानवाले कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले शुक्ललेश्यावाले जीवोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है तथा शुक्ललेश्यावाले सयोगकेवलियोंका और लेश्या रहित जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है।
71. भव्यानुवादेन भव्यानां चतुर्दशानां सामान्योक्तं क्षेत्रम्। अभव्यानां सर्वलोक:।
71. भव्य मार्गणाके अनुवादसे चौदह गुणस्थानवाले भव्य जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है। अभव्योंका सब लोक क्षेत्र है।
72. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानामौपशमिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दृष्ट्याद्युपशान्तकषायान्तानां सासादनसम्यग्दृष्टीनां सम्यङ्मिथ्यादृष्टीनां मिथ्यादृष्टीनां च सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
72. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका, असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थान-वाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियोंका, असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवाले औपशमिक सम्यग्दृष्टियोंका तथा सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टियों का सामान्योक्त क्षेत्र है।
73. संज्ञानुवादेन संज्ञिनां चक्षुर्दर्शनिवत्। असंज्ञिनां सर्वलोक:। तदुभयव्यपदेशरहितानां सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
73. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंका चक्षुदर्शनवाले जीवोंके समान, असंज्ञियोंका सब लोक और संज्ञी-असंज्ञी इस संज्ञासे रहित जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है।
74. आहारानुवादेन आहारकाणां मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तं क्षेत्रम्। सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभाग:। अनाहारकाणां मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्ट्ययोगकेवलिनां सामान्योक्तं क्षेत्रम्। सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येया
[42] भागा: सर्वलोको वा। क्षेत्रनिर्णय: कृत:।
74. आहार मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले आहारकोंका सामान्योक्त क्षेत्र है। सयोगकेवलियों का लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अयोगकेवली अनाहारक जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है। तथा सयोगकेवली अनाहारकोंका लोकका असंख्यात बहुभाग और सब लोक क्षेत्र है।विशेषार्थ – क्षेत्रप्ररूपणामें केवल वर्तमान कालीन आवासका विचार किया जाता है। मिथ्यादृष्टि जीव सब लोकमें पाये जाते हैं इसलिए उनका सब लोक क्षेत्र बतलाया है। अन्य गुणस्थानवाले जीव केवल लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में ही पाये जाते हैं इसलिए इनका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र बतलाया है। केवल सयोगिकेवली इसके अपवाद हैं। यों तो स्वस्थानगत सयोगिकेवलियोंका क्षेत्र भी लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है फिर भी जो सयोगिकेवली समुद्घात करते हैं उनका क्षेत्र तीन प्रकारका प्राप्त होता है। दण्ड और कपाटरूप समुद्घातके समय लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, प्रतररूप समुद्घातके समय लोकका असंख्यात बहुभाग और लोकपूरक समुद्घातके समय सब लोक क्षेत्र प्राप्त होता है इसलिए इनके क्षेत्रका निर्देश तीन प्रकारसे किया गया है। गति आदि मार्गणाओंके क्षेत्रका विचार करते समय इसी दृष्टिको सामने रखकर विचार करना चाहिए। साधारणतया कहाँ कितना क्षेत्र है इसका विवेक इन बातोंसे किया जा सकता है – 1. मिथ्यादृष्टियोंमें एकेन्द्रियोंका ही सब लोक क्षेत्र प्राप्त होता है। शेषका नहीं। इनके कुछ ऐसे अवान्तर भेद हैं जिनका सब लोक क्षेत्र नहीं प्राप्त होता पर वे यहाँ विवक्षित नहीं। इस हिसाबसे जो-जो मार्गणा एकेन्द्रियोंके सम्भव हो उन सबके सब लोक क्षेत्र जानना चाहिए। उदाहरणार्थ- गति मार्गणामें तिर्यंचगति मार्गणा, इन्द्रिय मार्गणामें एकेन्द्रिय मार्गणा, काय-मार्गणामें पृथिवी आदि पाँच स्थावर काय मार्गणा, योग मार्गणामें काययोग मार्गणा, वेदमार्गणामें नपुंसक वेदमार्गणा, कषाय मार्गणामें क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय मार्गणा, ज्ञान मार्गणामें मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान मार्गणा, संयम मार्गणामें असंयत संयम मार्गणा, दर्शनमार्गणा में अचक्षुदर्शन मार्गणा, लेश्या मार्गणामें कृष्ण, नील और कापोत लेश्या मार्गणा, भव्य मार्गणामें भव्य और अभव्य मार्गणा, सम्यक्त्व मार्गणामें मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व मार्गणा, संज्ञा मार्गणामें संज्ञी असंज्ञी मार्गणा तथा आहार मार्गणामें आहार और अनाहार मार्गणा इनका सब लोक क्षेत्र बन जाता है। 2. सासादन सम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके जीवोंका और अयोगकेवलियोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है। 3. दोइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रियोंमें असंज्ञियों का क्षेत्र भी लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। 4. संज्ञियोंमें समुद्घातगत सयोगिकेवलियोंके सिवा शेष सबका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इन नियमोंके अनुसार जो मार्गणाएँ सयोगिकेवलीके समुद्घातके समय सम्भव हैं उनमें भी सब लोक क्षेत्र बन जाता है। शेषके लोकका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण ही क्षेत्र जानना चाहिए। सयोगिकेवलीके लोकपूरण समुद्घातके समय मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस काय, काययोग, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यात संयम, केवलदर्शन, शुक्ल लेश्या, भव्यत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, न संज्ञी न असंज्ञी और अनाहार ये मार्गणाएँ पायी जाती हैं इसलिए लोकपूरण समुद्घातके समय इन मार्गणाओंका क्षेत्र भी सब लोक जानना चाहिए। केवलीके प्रतर समुद्घातके समय लोकका असंख्यात बहुभाग प्रमाण क्षेत्र पाया जाता है। इसलिए इस समय जो मार्गणाएँ सम्भव हों उनका क्षेत्र भी लोकका असंख्यात बहुभाग प्रमाण बन जाता है। उदाहरण के लिए लोक पूरण समुद्घातके समय जो मार्गणाएँ गिनायी हैं वे सब यहाँ भी जानना चाहिए। इनके अतिरिक्त शेष सब मार्गणाएँ ऐसी हैं जिनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्त होता है। लोक पूरण और प्रतर समुद्घातके समय प्राप्त होनेवाली जो मार्गणाएँ गिनायी हैं उनमें-से काययोग, भव्यत्व और अनाहार इन तीनको छोड़कर शेष सब मार्गणाएँ भी ऐसी हैं जिनका भी क्षेत्र उक्त अवस्थाके सिवा अन्यत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार क्षेत्रका निर्णय किया।
75. स्पर्शनमुच्यते। तद् द्विविधं सामान्येन विशेषेण च। सामान्येन तावन्मिथ्यादृष्टिभि: सर्वलोक: स्पृष्ट:। सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ द्वादश चतुर्दशभागा वा देशोना:। सम्यङ्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोना:। संयतासंयतैर्लोकस्यासंख्येयभाग: षट् चतुर्दशभागा वा देशोना:। प्रमत्तसंयतादीनामयोगकेवल्यन्तानां क्षेत्रवत्स्पर्शनम्।
75. अब स्पर्शनका कथन करते हैं – यह दो प्रकारका है – सामान्य और विशेष। सामान्यकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टियोंने सब लोकका स्पर्श किया है। सासादन सम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[43]आठ भाग और कुछ कम
[44]बारह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियों व असंयतसम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भागका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[45]आठ भागका स्पर्श किया है। संयतासंयतोंने लोकके असंख्यातवें भागका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम छह
[46]भागका स्पर्श किया है। तथा प्रमत्तसंयतोंसे लेकर अयोग केवली गुणस्थान तकके जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है।
76. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ प्रथमायां पृथिव्यां नारकैश्चतुर्गुणस्थानैर्लोकस्यासंख्येयभाग: स्पृष्ट:। द्वितीयादिषु प्राक्सप्तम्या मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: एको द्वौ त्रय: चत्वार: पञ्च चतुर्दशभागा वा देशोना:। सम्यङ्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग:। सप्तम्यां पृथिव्यां मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: षट् चतुर्दशभागा वा देशोना:। शेषैस्त्रिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग:। तिर्यग्गतौ तिरश्चां मिथ्यादृष्टिभि: सर्वलोक: स्पृष्ट:। सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: सप्त चतुर्दशभागा वा देशोना:। सम्यङ्मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग:। असंयतसम्यग्दृष्टि
[47]संयतासंयतैर्लोकस्यासंख्येयभाग: षट् चतुर्दशभागा वा देशोना:। मनुष्यगतौ मनुष्यैर्मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: सर्वलोको वा स्पृष्ट:। सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: सप्त चतुर्दशभागा वा देशोना:। सम्यङ्मिथ्यादृष्ट्यादीनामयोगकेवल्यन्तानां क्षेत्रवत्स्पर्शनम्। देवगतौ देवैर्मिथ्यादृष्टि
[48]सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ नव चतुर्दशभागा वा देशोना:। सम्यङ्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोना:।
76. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरक गतिमें पहली पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानवाले नारकियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। दूसरीसे लेकर छठी पृथिवी तकके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और क्रमसे लोक नाड़ीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम एक राजु, कुछ कम दो राजु, कुछ कम तीन राजु, कुछ कम चार राजु और कुछ कम पाँच राजु क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श किया है। सातवीं पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि नारकियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम छह राजु क्षेत्रका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष तीन गुणस्थानवाले उक्त नारकियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तिर्यंचगतिमें मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंने सब लोकका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाड़ीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[49]सात भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यंचोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोक नाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम छह
[50]भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। मनुष्यगतिमें मिथ्यादृष्टि मनुष्योंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोकका
[51] स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोक नाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[52]सात भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तकके मनुष्योंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। देवगतिमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[53]आठ भाग और कुछ कम नौ
[54]भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[55]आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है।
77. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियै: सर्वलोक: स्पृष्ट:। विकलेन्द्रियैर्लोकस्यासंख्येयभाग: सर्वलोको वा। पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोना: सर्वलोको वा। शेषाणां सामान्योक्तं स्पर्शनम्।
77. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंने
[56]सब लोकका स्पर्श किया है। विकलेन्द्रियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्श किया है। पंचेन्द्रियोंमें मिथ्यादृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[57]आठ भाग क्षेत्रका और
[58]सब लोकका स्पर्श किया है। शेष गुणस्थानवाले पञ्चेन्द्रियोंका स्पर्श ओघके समान है।
78. कायानुवादेन स्थावरकायिकै: सर्वलोक: स्पृष्ट:। त्रसकायिकानां पञ्चेन्द्रियवत् स्पर्शनम्।
78. काय-मार्गणाके अनुवादसे स्थावरकायिक जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है। त्रसकायिकों-
का स्पर्श पञ्चेन्द्रियोंके समान है।
79. योगानुवादेन वाङ्मनसयोगिनां मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोना: सर्वलोको वा। सासादनसम्यग्दृष्ट्यादीनां क्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम्। सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभाग:। काययोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादीनां सयोगकेवल्यन्तानामयोगकेवलिनां च सामान्योक्तं स्पर्शनम्।
79. योग मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टि वचनयोगी और मनोयोगी जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[59]आठ भाग क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे लेकर क्षीणकषाय तकके गुणस्थानवालों का स्पर्श ओघके समान है। सयोगकेवली जीवोंका स्पर्श लोकका
[60] असंख्यातवाँ भाग है। तथा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तकके काययोगवालोंका और अयोगकेवली जीवोंका स्पर्श ओघके समान है।
80. वेदानुवादेन
[61]स्त्रीपुंवेदैर्मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: स्पृष्ट:
[62]अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोना: सर्वलोको
[63] वा। सासादनसम्यग्दृष्टिभि: लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ नव चतुर्दशभागा वा देशोना:। सम्यङ्मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम्। नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टीनां सासादनसम्यग्दृष्टीनां च सामान्योक्तं स्पर्शनम्।
[64]सम्यङ्मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग:। असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतैर्लोकस्यासंख्येयभाग: षट् चतुर्दशभागा वा देशोना:। प्रमत्ताद्यनिवृत्तिबादरान्तानामपगतवेदानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम्।
80. वेद मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा लोक नाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[65]आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। सासादन सम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[66]आठ भाग और कुछ कम नौ
[67]भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर अनिवृत्ति बादर गुणस्थान तकके जीवोंका स्पर्श
[68]ओघके समान है। नपुंसकवोदियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टियोंका स्पर्श ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्श किया है। असंतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडी के चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[69]छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा प्रमत्तसंयतोंसे लेकर अनिवृत्ति बादर गुणस्थान तकके जीवोंका स्पर्श ओघके समान है।
81. कषायानुवादेन चतुष्कषायाणामकषायाणां च सामान्योक्तं स्पर्शनम्।
81. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधादि चारों कषायवाले और कषायरहित जीवोंका स्पर्श ओघके समान है।
82. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिनां मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तं स्पर्शनम्। विभङ्गज्ञानिनां मिथ्यादृष्टीनां लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोना: सर्वलोको वा। सासादनसम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तं स्पर्शनम्। आभिनिबोधिकश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलज्ञानिनां सामान्योक्तं स्पर्शनम्।
82. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्श ओघके समान है। विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टियोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग, लोकनाडीके समान चौदह भागोंमें-से कुछ कम आठ
[70] भाग और सर्व लोक
[71] है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंका स्पर्श ओघके समान है। आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीवोंका स्पर्श ओघके समान है।
83. संयमानुवादेन संयतानां सर्वेषां संयतासंयतानामसंयतानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम्।
83. संयम मार्गणाके अनुवादसे सब संयतोंका, संयतासंयतोंका और असंयतोंका स्पर्श ओघके समान है।
84. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिनां मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां पञ्चेन्द्रियवत्। अचक्षुर्दर्शनिनां मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानामवधिकेवलदर्शनिनां च सामान्योक्तं स्पर्शनम्।
84. दर्शन मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर क्षीणकषाय तकके चक्षुदर्शनवाले जीवोंका स्पर्श पंचेन्द्रियोंके समान है। मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर क्षीणकषाय तकके अचक्षुदर्शनवाले जीवोंका तथा अवधिदर्शनवाले और केवलदर्शनवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है।
85. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यैर्मिथ्यादृष्टिभि: सर्वलोक: स्पृष्ट:। सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: पञ्च चत्वारो द्वौ चतुर्दशभागा वा
[72] देशोना:। सम्यङ्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग:। तेजोलेश्यैर्मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ नव चतुर्दशभागा वा देशोना:। सम्यङ्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोना:। संयतासंयतैर्लोकस्यासंख्येयभाग: अध्यर्धचतुर्दशभागा वा देशोना:। प्रमत्ताप्रमत्तैर्लोकस्यासंख्येयभाग:। पद्मलेश्यैर्मिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतसम्यग्दृष्ट्यन्तैर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोना:। संयतासंयतैर्लोकस्यासंख्येयभाग: पञ्च चतुर्दशभागा वा देशोना:। प्रमत्ताप्रमत्तैर्लोकस्यासंख्येयभाग:। शुक्ललेश्यैर्मिथ्यादृष्ट्यादिसंयतासंयतान्तैर्लोकस्यासंख्येयभाग: षट् चतुर्दशभागा वा देशोना:। प्रमत्तादिसयोगकेवल्यन्तानां अलेश्यानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम्।
85. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले मिथ्यादृष्टियोंने सब लोकका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से क्रमश: कुछ कम पाँच
[73] भाग, कुछ कम चार भाग और कुछ कम दो भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। पीतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम आठ
[74] भाग और कुछ कम नौ भाग
[75] क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम आठ
[76] भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। संयतासंयतोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम डेढ़
[77] भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टियों तकके पद्मलेश्यावाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाड़ीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम आठ
[78] भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। संयतासंयतोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम
[79] पाँच भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर संयतासंयतों तकके शुक्ललेश्यावाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम छह
[80] भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। प्रमत्तसंयत आदि सयोगकेवली तकके शुक्ललेश्यावालोंका और लेश्यारहित जीवोंका स्पर्श ओघके समान है।
86. भव्यानुवादेन भव्यानां मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम्। अभव्यै: सर्वलोक: स्पृष्ट:।
86. भव्य मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर अयोगकेवली तकके भव्योंका स्पर्श ओघके समान है। अभव्योंने सब लोकका स्पर्श किया है।87. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्योक्तम्। किंतु संयतासंयतानां लोकस्यासंख्येयभाग:। क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तम्। औपशमिकसम्यक्त्वनामसंयतसम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तम्। शेषाणां लोकस्यासंख्येयभाग:। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टिमिथ्यादृष्टीनां सामान्योक्तम्।87. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे लेकर अयोगकेवली तकके क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका स्पर्श ओघके समान है। किन्तु संयतासंयतोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियोंका स्पर्श ओघके समान है। असंयतसम्यग्दृष्टि औपशमिक सम्यग्दृष्टियों का स्पर्श ओघके समान है। तथा शेष औपशमिक सम्यग्दृष्टियोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टियोंका सामान्योक्त स्पर्श है।
88. संज्ञानुवादेन संज्ञिनां चक्षुदर्शनिवत्। असंज्ञिभि: सर्वलोक: स्पृष्ट:। तदुभयव्यपदेशरहितानां सामान्योक्तम्।
88. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंका स्पर्श चक्षुदर्शनवाले जीवोंके समान है। असंज्ञियोंने सब लोकका स्पर्श किया है। इन दोनों व्यवहारोंसे रहित जीवोंका स्पर्श ओघके समान है।
89. आहारानुवादेन आहारकाणां मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तम्। सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभाग:। अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टिभि: सर्वलोक: स्पृष्ट:। सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: एकादश चतुर्दशभागा वा देशोना:। असंयतसम्यग्दृष्टिभि: लोकस्यासंख्येयभाग: षट् चतुर्दश भागा वा देशोना:। सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभागा: सर्वलोको वा। अयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभाग:। स्पर्शनं व्याख्यातम्।
89. आहार मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर क्षीणकषाय तकके आहारकोंका स्पर्श ओघके समान है। तथा सयोगकेवलियोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग है। अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टियोंने सब लोकका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम ग्यारह
[81] भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। असंयतसम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम छह
[82] भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सयोगकेवलियोंने लोकके असंख्यात बहुभाग क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्श किया है। तथा अयोगकेवलियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इस प्रकार स्पर्शनका व्याख्यान किया।
90. काल: प्रस्तूयते। स द्विविध: - सामान्येन विशेषेण च। सामान्येन तावद् मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवापेक्षया त्रयो भङ्गा:। अनादिरपर्यवसान: अनादि: सपर्यवसान: सादि: सपर्यवसानश्चेति। तत्र सादि: सपर्यवसानो जघन्येनान्तमुहूर्त्त:। उत्कर्षेणार्धपुद्गलपरिवर्त्तो देशोन:। सासादनसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभाग:। एकजीवं प्रति जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण षडावलिका:। सम्यङ्मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त:। उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभाग:। एकजीवं प्रति जघन्य: उत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्त्त:। असंयतसमयग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त:
[83] । उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि। संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघेन्येनान्तर्मुहूर्त्त:। उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना। प्रमत्ताप्रमत्तयोर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त्त:। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त्त:। चतुर्णां क्षपकाणामयोगकेवलिनां च नानाजीवापेक्षया एकजीवोपक्षया च जघन्यश्चोत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्त्त:। सयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त:। उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना।
90. अब कालका कथन करते हैं। सामान्य और विशेषकी अपेक्षा वह दो प्रकारका है। सामान्यकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल हैं अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव सदा पाये जाते हैं। एक जीवकी अपेक्षा तीन भंग हैं – अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त। इनमें-से सादि-सान्त मिथ्यादृष्टिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है। सासादनसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवलि है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस
[84] सागरोपम है। संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक
[85]पूर्वकोटि है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय
[86] और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। चारों उपशमकोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय
[87] है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। चारों क्षपक और अयोगकेवलियोंका नाना जीव और एकजीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मूहूर्त है। सयोगकेवलियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है।
91. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ नारकेषु सप्तसु पृथिवीषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त:। उत्कर्षेण यथासंख्यं एक-त्रि-सप्त—दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि। सासादनसम्यग्दृष्टे: सम्यग्मिथ्यादृष्टेश्च सामान्योक्त: काल:। असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण उक्त एवोत्कृष्टो देशोन:।
91. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरक गतिमें नारकियोंमें सातों पृथिवियोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमश: एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका काल ओघके समान है। असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ
[88] कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
92. तिर्यग्गतौ तिरश्चां मिथ्यादृष्टीनां नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्त-र्मुहूर्त:। उत्कर्षेणानन्त: कालोऽसंख्येया:पुद्गलपरिवर्ता:। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टि-संयतासंयतानां सामन्योक्त: काल:। असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येना-न्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि।
92. तिर्यंचगतिमें मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंका नानाजीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात
[89] पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत तिर्यंचोंका सामान्योक्ति काल है। असंयत-सम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम है।
93. मनुष्यगतौ मनुष्येषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मूहूर्त:। उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकानि। सासादनसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त:। एकजीवं प्रति जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण षडावलिका:। सम्यग्मिथ्यादृष्टे-र्नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्यश्चोत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्त:। असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त: उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि सातिरेकाणि। शेषाणां सामान्योक्त: काल:।
93. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि
[90]पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम है। सासादनसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवली है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और
[91] उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्योपम है। तथा संयतासंयत आदि शेषका काल ओघके समान है।
94. देवगतौ देवेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि। सासादनसम्यग्दृष्टे: सम्यग्मिथ्यादृष्टेश्च सामान्योक्त: काल:। असंयतसम्य-ग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि।
94. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका काल ओघके समान है। असंयत सम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है।
95. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम्। उत्कर्षेणानन्त: कालोऽसंख्येया: पुद्गलपरिवर्ता:। विकलेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम्। उत्कर्षेण संख्येयानि वर्षसहस्राणि। पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टे-र्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वै-रभ्यधिकम्। शेषाणां सामान्योक्त: काल:।
95. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। विकलेन्द्रियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल संख्यात
[92] हजार वर्ष है। पंचेन्द्रियोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक हजार सागरोपम है। तथा शेष गुणस्थानोंका काल ओघके समान है।
96. कायानुवादेन पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम्। उत्कर्षेणासंख्येया
[93] लोका:। वनस्पतिकायिकानामेकेन्द्रियवत्। त्रसकायिकेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके। शेषाणां पञ्चेन्द्रियवत्।
96. काय मार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। वनस्पतिकायिकोंका एकेन्द्रियोंके समान काल है। त्रसकायिकोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। इनके शेष गुणस्थानोंका काल पंचेन्द्रियोंके समान है।
97. योगानुवादेन वाङ्मनसयोगिषु मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त:। सासादनसम्यग्दृष्टे: सामान्योक्त: काल: सम्यङ्मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकसमय:। उत्कर्षेण पल्योपमसंख्येयभाग:। एकजीवं प्रति जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त:। चतुर्णामुपशमकानां क्षपकाणां च नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्येनैकसमय:। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त:। काययोगिषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनैकसमय:। उत्कर्षेणानन्त: कालोऽसंख्येया: पुद्गलपरिवर्ता:। शेषाणां मनोयोगिवत्। अयोगानां सामान्यवत्।
97. योग मार्गणाके अनुवादसे वचनयोगी और मनोयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवलियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक
[94]समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सासादनसम्यग्दृष्टिका सामान्योक्त काल है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक
[95]समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्महूर्त है। चारों उपशमक और चारों क्षपकोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक
[96]समय है और उत्कृष्ट काल अर्न्मुहूर्त है। काययोगियोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकीअपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। शेषका काल मनोयोगियोंके समान है। तथा अयोगियोंका काल ओघके समान है।
98. वेदानुवादेन स्त्रीवेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम्। सासादनसम्यग्दृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्त: काल:। किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकाल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि देशोनानि। पुंवेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम्। सासादनसम्यग्दृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्त: काल:। नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणानन्त: कालोऽसंख्येय: पुद्गलपरिवर्ता:। सासादनसम्यग्दृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्यवत्। किंत्वसंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि। अपगतवेदानां सामान्यवत्।
98. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदवालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सौ पल्योपम पृथक्त्व है। सासादन सम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है। किन्तु असंयत सम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम
[97]पचपन पल्योपम है। पुरुषवेदवालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मूहूर्त है और उत्कृष्ट काल सौ
[98]सागरोपम पृथक्त्व है। तथा सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक का सामान्योक्त काल है। नपुंसकवेदवालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट
[99]अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। तथा सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है। किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस
[100]सागरोपम है। तथा वेदरहित जीवोंका काल ओघके समान है।
99. कषायानुवादेन चतुष्कषायाणां मिथ्यादृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां मनोयोगिवत्। द्वयोरुपशमकयोर्द्वयो: क्षपकयो: केवललोभस्य च अकषायाणां च सामान्योक्त: काल:।
99. कषाय मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक चारों कषायोंका काल मनोयोगियोंके समान है। तथा दोनों उपशमक, दानेां क्षपक, केवल लोभवाले और कषायरहित जीवोंका सामान्योक्त काल है।
100. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिषु मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्ट्यो: सामान्यवत्। विभङ्गज्ञानिषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि। सासादनसम्यग्दृष्टे: सामान्योक्त: काल:। आभिनिबोधिकश्रुतावधि-मन:पर्ययकेवलज्ञानिनां च सामान्योक्त:।
100. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यगदृष्टिका काल ओघके समान है। विभंज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस
[101]सागरोपम है। तथा सासादनसम्यग्दृष्टिका सामान्योक्त काल है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानियोंका सामान्योक्त काल है।
101. संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातशुद्धिसंयतानां संयतासंयतानामसंयतानां च चतुर्णां सामान्योक्त: काल:।
101. संयम मार्गणाके अनुवादसे सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, यथाख्यातशुद्धिसंयत, संयतासंयत और चारों असंयतोंका सामान्योक्त काल है।
102. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे। सासादनसम्यग्दृष्ट्यादीनां क्षीणकषायान्तानां सामान्योक्त: काल:। अचक्षुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्त: काल:। अवधिकेवलदर्शनिनोरवधिकेवलज्ञानिवत्।
102. दर्शन मार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल दो हजार सागरोपम है। तथा सासादन सम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है। अचक्षुदर्शनवालोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है। अवधिदर्शनवाले और केवलदर्शनवाले जीवोंका काल अवधिज्ञानी और केवलज्ञानियोंके समान है।
103. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यासु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि सातिरेकाणि। सासादनसम्यग्दृष्टि-सम्यङ्मिथ्यादृष्ट्यो: सामान्योक्त: काल:। असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि देशोनानि। तेज:पद्मलेश्ययोर्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट्यौ: सामान्योक्त: काल:। संयतासंयत-प्रमत्ताप्रमत्तानां नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त:। शुक्ललेश्यानां मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि। सासादनसम्यग्दृष्ट्यादिसयोगकेवल्यन्तानामलेश्यानां च सामान्योक्त: काल:। किं तु संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त:।
103. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमश:
[102]साधिक तेतीस सागरोपम, साधिक सत्रह सागरोपम और साधिक सात सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका सामान्योक्त काल है। असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमश: कुछ कम तेतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है। पीत और पदृमलेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमश: साधिक
[103] दो सागरोपम और साधिक
[104] अठारह सागरोपम है। सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका सामान्योक्त काल है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल
[105] एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शुक्ल लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागरोपम है। सासादन सम्यग्दृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक प्रत्येकका और लेश्यारहित जीवोंका सामान्योक्त काल है। किन्तु संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
104. भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवापेक्षया द्वौ भङ्गौ अनादि: सपर्यवसान: सादि: सपर्यवसानश्च। तत्र सादि: सपर्यवसानो जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणार्द्धपुद्गलपरिवर्तो देशोन:। सासादनसम्यग्दृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्योक्त: काल:। अभव्यानामनादिरपर्यवसान:।
104. भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्योंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा दो भंग हैं अनादि-सान्त और सादि-सान्त। इनमेंसे सादि-सान्त भंगकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है। अभव्योंका अनादि-अनन्त काल है।
105. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्योक्त: काल:। क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टीनां चतुर्णां सामान्योक्त: काल:। औपशमिकसम्यक्त्वेषु असंयतसम्यग्दृष्टि-संयतासंयतयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभाग:। एकजीवं प्रति जघन्यश्चोत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्त:। प्रमत्ताप्रमत्तयोश्चतुर्णामुपशमकानां च नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त:। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्टिमिथ्यादृष्टीनां सामान्योक्त: काल:।
105. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है। चारों क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टियोंका सामान्योक्त काल है। औपशमिक सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। प्रमत्तसयंत, अप्रमत्तसंयत और चारों उपशमकोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टिका सामान्योक्त काल है।
106. संज्ञानुवादेन संज्ञिषु मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां पुंवेदवत्। शेषाणां सामान्योक्त:।
[106]असंज्ञिनां नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम्।
[107]उत्कर्षेणानन्त: कालोऽसंख्येया: पुद्गलपरिवर्ता:। तदुभयव्यपदेशरहितानां सामान्योक्त:।
106. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येकका काल पुरुषवेदियोंके समान है। तथा शेष गुणस्थानोंका सामान्योक्त काल है। असंज्ञियों का नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। संज्ञी और असंज्ञी व्यवहारसे रहित जीवोंका सामान्योक्त काल है।
107. आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणांगुलासंख्येयभाग: असंख्येयासंख्येया
[108] उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य:। शेषाणां सामान्योक्त: काल:। अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्व: काल:। एकजीवं प्रति जघन्येनैक: समय: उत्कर्षेण त्रय: समया:। सासादनसम्यग्दृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेणावलिकाया असंख्येयभाग:। एकजीवं प्रति जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण द्वौ समयौ। सयोगकेवलिनो नानाजीवापेक्षया जघन्येन त्रय: समया:। उत्कर्षेण संख्येया: समया:। एकजीवं प्रति जघन्यश्चोत्कृष्टश्च त्रय: समया:। अयोगकेवेलिनां सामान्योक्त: काल:। कालो वर्णित:।
107. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जिसका प्रमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है। शेष गुणस्थानोंका सामान्योक्त काल है। अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। सयोगकेवलीका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अयोगकेवलियोंका सामान्योक्त काल है। इस प्रकार कालका वर्णन किया।
108. अन्तरं निरूप्यते। विवक्षितस्य गुणस्य गुणान्तरसंक्रमे सति पुनस्तत्प्राप्ते: प्राङ्मध्यमन्तरम्। तद् द्विविधं सामान्येन विशेषेण च। सामान्येन तावद् मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण द्वे षट्षष्टी देशोने सागरोपमाणाम्। सासादनसम्यग्दृष्टेरन्तरं नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभाग:। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभाग:। उत्कर्षेणार्द्धपुद्गलपरिवर्तो देशोन:। सम्यग्मिथ्यादृष्टेरन्तरं नानाजीवापेक्षया सासादनवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणार्द्धपुद्गलपरिवर्तो देशोन:। असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणार्द्धपुद्गलपरिवर्तो देशोन:। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणार्द्धपुद्गलपरिवर्तो देशोना:। चतुर्णां क्षपकाणामयोगकेवलिनां च नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण षण्मासा:। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। सयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम्।
108. अब अन्तरका निरूपण करते हैं। जब विवक्षित गुण गुणान्तररूपसे संक्रमित हो जाता है और पुन: उसकी प्राप्ति होती है तो मध्यके कालको अन्तर कहते हैं। वह सामान्य और विशेषकी अपेक्षा दो प्रकारका है। सामान्यकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम
[109]दो छ्यासठ सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक
[110] समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर पल्योपमका असंख्यातवाँ
[111] भाग और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तन है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर सासादनसम्यग्दृष्टियोंके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येकका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर
[112]अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। चारों क्षपक और अयोगकेवलियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सयोगकेवलियोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है।
109. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ नारकाणां सप्तसु पृथिवीषु मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण एक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभाग:। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेण एक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि।
109. विशेषकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें सातों पृथिवियोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमश: कुछ कम एक सागरोपम, कुछ कम तीन सागरोपम, कुछ कम सात सागरोपम, कुछ कम दस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम, कुछ कम बाईस सागरोपम और कुछ कम तेतीस
[113] सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर सातों नरकोंमें क्रमश: कुछ कम एक सागरोपम कुछ कम तीन सागरोपम, कुछ कम सात सागरोपम, कुछ कम दस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम, कुछ कम बाईस सागरोपम और कुछ कम तेतीस
[114]सागरोपम है।
110. तिर्यग्गतौ तिरश्चां मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि देशोनानि। सासादनसम्यग्दृष्ट्यादीनां चतुर्णां सामान्योक्तमन्तरम्।
110. तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन
[115]पल्योपम है। तथा सासादनसम्यग्दृष्टि आदि चारोंका सामान्योक्त अन्तर है।
111. मनुष्यगतौ मनुष्याणां मिथ्यादृष्टेस्तिर्यग्वत्। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकानि। असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकानि। संयतासंयत-प्रमत्ताप्रमत्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पूर्वकोटीपृथक्त्वानि। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पूर्वकोटीपृथक्त्वानि। शेषाणां सामान्यवत्।
111. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर तिर्यंचोंके
[116]समान है। सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन
[117]पल्योपम है। असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक तीन
[118]पल्योपम है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व
[119] है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व है। शेष गुणस्थानों का अन्तर ओघके समान है।
112. देवगतौ देवानां मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि।
112. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस
[120]सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है।
113. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम्। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके। विकलेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम्। उत्कर्षेणानन्त: कालोऽसंख्येया: पुद्गलपरिवर्ता:। एवमिन्द्रियं प्रत्यन्तरमुक्तम्। गुणं प्रत्युभयतोऽपि नास्त्यन्तरम्। पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टे: सामान्यवत्। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम्। असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम्। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम्। शेषाणां सामान्योक्तम्।
113. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार
[121]सागरोपम है। विकलेन्द्रियोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। इस प्रकार इन्द्रियकी अपेक्षा अन्तर कहा। गुणस्थानकी अपेक्षा विचार करने पर तो इनके नाना जीवोंकी अपेक्षा और एक जीवकी अपेक्षा दोनों अपेक्षाओंसे भी अन्तर नहीं है या उत्कृष्ट और जघन्य दोनों प्रकारसे अन्तर नहीं है। पंचेन्द्रियोंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम
[122] है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम है। शेष गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है।
114. कायानुवादेन पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम्। उत्कर्षेणानन्त: कालोऽसंख्येया: पुद्गलपरिवर्ता:। वनस्पतिकायिकानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम्। उत्कर्षेणासंख्येया लोका:। एवं काय प्रत्यन्तरमुक्तम्। गुणं प्रत्युभयतोऽपि नास्त्यन्तरम्। त्रसकायिकेषु मिथ्यादृष्टे: सामान्यवत्। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येय- भागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके
[123]। असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मूहूर्त:। उत्कर्षेण द्वे सागरोपसहस्रे पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके। शेषाणां पञ्चेन्द्रियवत्।
114. कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंका नाना जीवोंकीअपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। वनस्पतिकायिकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एकजीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। इस प्रकार कायकी अपेक्षा अन्तर कहा। गुणस्थानकी अपेक्षा विचार करने पर तो नाना जीवोंकी अपेक्षा और एक जीवकी अपेक्षा इन दोनों अपेक्षाओंसे भी अन्तर नहीं है। या उत्कृष्ट और जघन्य इन दोनेां अपेक्षाओंसे अन्तर नहीं है। त्रसकायिकोंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघ के समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। तथा शेष गुणस्थानोंका अन्तर पंचेन्द्रियोंके समान है।
115. योगानुवादेन कायवाङ्मनसयोगिनां मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्त-सयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। चतुर्णां क्षपकाणामयोगकेवलिनां च सामान्यवत्।
115. योग मार्गणाके अनुवादसे काययोगी, वचनयोगी और मनोयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवलीका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। चारों क्षपक और अयोगकेवलियोंका अन्तर ओघके समान है।
116. वेदानुवादेन स्त्रीवेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्त:। उत्कर्षेण पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि देशोनानि। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम्। असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम्। द्वयोरुपशमकयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम्। द्वयो: क्षपकयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्।
116. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन
[124] पल्योपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्योपम
[125]पृथक्त्व है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्योपम पृथक्त्व है। दोनों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्योपम पृथक्त्व है। दोनों क्षपकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व
[126] है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है।
117. पुंवेदेषु मिथ्यादृष्टे: सामान्यवत्। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम्। असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमतान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम्। द्वयोरुपशमकयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम्। द्वयो: क्षपकयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण संवत्सर: सातिरेक:। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्।
117. पुरुषवेदियों में मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर सौ
[127]सागरोपम पृथक्त्व है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है। दोनों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है। दोनों क्षपकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर
[128]साधिक एक वर्ष है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है।
118. नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवोपक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशतसागरोपमाणि देशोनानि। सासादनसम्यग्दृष्ट्याद्यनिवृत्त्युपशमकान्तानां सामान्योक्तम्। द्वयो: क्षपकयो: स्त्रीवेदवत्। अपगतवेदेषु अनिवृत्तिबादरोपशमकसूक्ष्मसांपरायोपशमकयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्योक्तम्। एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्त:। उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। शेषाणां सामान्यवत्।
118. नपुंसक वेदवालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्ति उपशमक तक प्रत्येक गुणस्थानका सामान्योक्त अन्तर है। तथा दोनों क्षपकोंका अन्तर स्त्रीवेदियोंके समान है। अपगतवेदवालोंमें अनिवृत्तिबादर उपशमक और सूक्ष्मसाम्पराय उपशमकका नाना जीवोंकी अपेक्षा सामान्योक्त अन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। उपशान्तकषायका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। शेष गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है।
119. कषायानुवादेन क्रोधमानमायालोभकषायाणां मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्त्युपशमकान्तानां मनोयोगिवत्। द्वयो: क्षपकयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण संवत्सर: सातिरेक:। केवललोभस्य सूक्ष्मसांपरायोपशमकस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। क्षपकस्य तस्य सामान्यवत्। अकषायेषु उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। शेषाणां त्रयाणां सामान्यवत्।
119. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोध, मान, माया और लोभ में मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर उपशमक तक प्रत्येक गुणस्थानका अन्तर मनोयोगियोंके समान है। दोनों क्षपकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है। लोभ कषायमें सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमकका नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सूक्ष्मलोभवाले क्षपकका अन्तर ओघके समान है। कषायरहित जीवोंमें उपशान्तकषायका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। शेष तीन गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है।
120. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानिषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम्। सासादनसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्।। आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानिषु असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवोपक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना। संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि सातिरेकाणि। प्रमत्ताप्रमत्तयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि सातिरेकाणि। चतुर्णां क्षपकाणां सामान्यवत्। किं तु अवधिज्ञानिषु नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। मन:पर्ययज्ञानिषु प्रमत्ताप्रमत्तसंयतयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्त:। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना। चतुर्णां क्षपकाणामवधिज्ञानिवत्। द्वयो: केवलज्ञानिनो: सामान्यवत्।
120. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सासादन सम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक
[129]पूर्वकोटी है। संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छ्यासठ
[130]सागरोपम है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस
[131] सागरोपम है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छ्यासठ
[132] सागरोपम है। चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है। किन्तु अवधिज्ञानियोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व
[133] है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। मन:पर्ययज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त
[134] है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक
[135] पूर्वकोटी है। चारों क्षपकोंका अन्तर अवधिज्ञानियोंके समान है। दोनों केवलज्ञानियोंका अन्तर ओघके समान है।
121. संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयतेषु प्रमत्ताप्रमत्तयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्त:। द्वयोरुपशमकयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना। द्वयो: क्षपकयो: सामान्यवत्। परिहारशुद्धिसंयतेषु प्रमत्ताप्रमत्तयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्मुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्त:। सूक्ष्मसांपरायशुद्धि
[136]संयतेषूपशमकस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। तस्यैव क्षपकस्य सामान्यवत्। यथाख्याते अकषायवत्। संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम्। असंयतेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि। शेषाणां त्रयाणां सामान्यवत्।
121. संयम मार्गणाके अनुवादसे सामायिक शुद्धिसंयत और छेदोपस्थापनशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त
[137] है। दोनों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक
[138] पूर्वकोटी है। दोनों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है। परिहारशुद्धि संयतोंमें प्रमत्तसयंत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट
[139]अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतोंमें उपशमकका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। तथा उसी सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकका अन्तर ओघके समान है। यथाख्यातमें अन्तर कषायरहित जीवोंके समान है। संयतासंयतका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। असंयतोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरोपम
[140] है। शेष तीन गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है।
122. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्टे: सामान्यवत्। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे देशोने। असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त: उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे देशोने। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्योक्तम्
[141]। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे देशोने। चतुर्णां क्षपकाणां सामान्योक्तम्। अचक्षुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तमन्तरम्। अवधिदर्शनिनोऽवधिज्ञानिवत्। केवलदर्शनिन: केवलज्ञानिवत्।
122. दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ
[142] कम दो हजार सागरोपम है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम
[143] है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम
[144] है। चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है। अचक्षुदर्शनवालोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानका सामान्योक्त अन्तर है। अवधिदर्शनवालोंका अवधिज्ञानियोंके समान अन्तर है। तथा केवलदर्शनवालोंके केवलज्ञानियोंके समान अन्तर है।
123. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यासु मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्ट्योर्नानाजीवोपेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि देशोनानि। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि देशोनानि।
123. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमश: कुछ कम तेतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दोनों गुणस्थानोंमें क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर तीनों लेश्याओंमें क्रमश: कुछ कम तेतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है।
124. तेज:पद्मलेश्ययोर्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि। संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम्।
124. पीत और पद्म लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर दोनों लेश्याओंमें क्रमश: साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नानाजीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है और एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर दोनों गुणस्थानोंमें क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर दोनों लेश्याओंमें क्रमश: साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीव और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है।
125. शुक्ललेश्येषु मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवोपक्षया सामान्योक्तम्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि। संयतासंयतप्रमत्तसंयतोस्तेजोलेश्यावत्। अप्रमत्तसंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्त:
[145] । त्रयाणामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्मुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्त:। उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। चतुर्णां क्षपकाणां सयोगकेवलिनामलेश्यानां च सामान्यवत्।
125. शुक्ल लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है। संयतासंयत और प्रमत्तसंयतका अन्तरकथन पीतलेश्याके समान है। तथा अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर
[146]अन्तर्मुहूर्त है। तीन उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर
[147]अन्तर्मुहूर्त है। उपशान्तकषायका नाना जीवकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। चारों क्षपक, सयोगकेवली और लेश्यारहित जीवोंका अन्तर ओघके समान है।
126. भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत्। अभव्यानां नानाजीवापेक्षया एकजीवोपक्षया च नास्त्यन्तरम्।
126. भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्योंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानका अन्तर ओघके समान है। अभव्योंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है।
127. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिष्वसंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त: उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना। संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि। शेषाणां सामान्यवत्।
127. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ
[148] कम एक पूर्वकोटी है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर
[149]साधिक तैंतीस सागरोपम है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर
[150]साधिक तैंतीस सागरोपम है। तथा शेष गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है।
128. क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिष्वसंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना। संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि देशोनानि। प्रमत्ताप्रमत्तसंयतयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि।
128. क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ
[151] कम एक पूर्वकोटी है। संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छ्यासठ
[152] सागरोपम है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक
[153] तैंतीस सागरोपम है।
129. औपशमिकसम्यग्दृष्टिष्वसंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण सप्त रात्रिं
[154]दिनानि। एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्त:। संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण चतुर्दश रात्रिंदिनानि। एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्त:। प्रमत्ताप्रमत्तसंयतयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण पंचदश रात्रिंदिनानि। एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्त:। त्रयाणामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम्। एकजीवं प्रति जघन्मुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्त:। उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभाग:। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम्।
129. औपशमिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयत सम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन रात है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन रात्रि है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिन रात है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तीन उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। उपशान्तकषायका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर
[155] नहीं है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है।
130. संज्ञानुवादेन संज्ञिषु मिथ्यादृष्टे: सामान्यवत्। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम्। असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम्। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम्। चतुर्णां क्षपकाणां सामान्यवत्। असंज्ञिनां नानाजीवापेक्षयैकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम्। तदुभयव्यपदेशरहितानां सामान्यवत्।
130. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एकजीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है। चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है। असंज्ञियोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। संज्ञी और असंज्ञी व्यवहारसे रहित जीवोंका अन्तर ओघके समान है।
131. आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टे: सामान्यवत्। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च। उत्कर्षेणाङ्गुलासंख्येयभागोऽसंख्येयासंख्येया
[156] उत्सर्पिण्यवर्पिण्य:। असंयतसम्यग्दृष्ट्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणाङ्गुलासंख्येयभागोऽसंख्येया
[157] उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य:। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त:। उत्कर्षेणाङ्गुलासंख्येयभागोऽसंख्येयासंख्येया
[158] उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य:। चतुर्णां क्षपकाणां सयोगकेवलिनां च सामान्यवत्।
131. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासानदसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अंगुलका असंख्यातवाँ भाग है जिसका प्रमाण असंख्यातासंख्यात उपसर्पिणी और अवसर्पिणी है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलका असंख्यातवाँ भाग है जिसका प्रमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलका असंख्यातवाँ भाग है जिसका प्रमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है। चारों क्षपक और सयोगकेवलियोंका अन्तर ओघके समान है।
132. अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम्। सासादनसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभाग:। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण मासपृथक्त्वम्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। सयोगकेवलिन: नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम्। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। अयोगकेवलिन: नानाजीवापेक्षया जघन्येनैक: समय:। उत्कर्षेण षण्मासा:। एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। अन्तरमवगतम्।
132. अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सासादनसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्व है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सयोगकेवलीका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। अयोगकेवलीका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। इस प्रकार अन्तरका विचार किया।
133. भावो विभाव्यते। स द्विविध: सामान्येन विशेषेण च। सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टिरित्यौदयिको भाव:। सासादनसम्यग्दृष्टिरिति पारिणामिको भाव:। सम्यङ्मिथ्यादृष्टिरिति क्षायोपशमिको भाव:। असंयतसम्यग्दृष्टिरिति औपशमिको वा क्षायिको वा क्षायोपशमिको वा भाव:। असंयत: पुनरौदयिकेन भावेन। संयतासंयत: प्रमत्तसंयतोऽप्रमत्तसंयत इति क्षायोपशमिको भाव:। चतुर्णामुपशमकानामौपशमिको भाव:। चतुर्षु क्षपकेषु सयोगायोगकेवलिनोश्च क्षायिको भाव:।
133. अब भावका विचार करते हैं। वह दो प्रकारका है – सामान्य और विशेष। सामान्यकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि यह औदयिकभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि यह पारिणामिक
[159] भाव है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह क्षायोपशमिक
[160] भाव है। असंयतसम्यग्दृष्टि यह औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव है। किन्तु इसमें असंयतपना औदयिक भावकी अपेक्षा है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह क्षायोपशमिक भाव है। चारों उपशमकोंके औपशमिक भाव हैं। चारों क्षपक, सयोगकेवली और अयोगकेवलीके क्षायिक भाव हैं।
134. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ प्रथमायां पृथिव्यां नारकाणां मिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतसम्यग्दृष्ट्यन्तानां सामान्यवत्। द्वितीयादिष्वा सप्तम्या मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्टीनां सामान्यवत्। असंयतसम्यग्दृष्टेरौपशमिको वा क्षायोपशमिको वा भाव:। असंयत: पुनरौदयिकेन भावेन। तिर्यग्गतौ तिरश्चां मिथ्यादृष्ट्यादिसंयतासंयतान्तानां सामान्यवत्। मनुष्यगतौ मनुष्याणां मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगकेवल्यान्तानां सामान्यवत्। देवगतौ देवानां मिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतसम्यग्दृष्ट्यन्तानां सामान्यवत्।
134. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरक गतिमें पहली पृथिवी में नारकियोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक ओघके समान भाव है। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंके ओघके समान भाव है। असंयतसम्यग्दृष्टिके औपशमिक या क्षायोपशमिक भाव हैं। किन्तु इसमें असंयतपना औदयिक भावकी अपेक्षा है। तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक ओघके समान भाव है। मनुष्यगतिमें मनुष्योंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक ओघके समान भाव हैं। देवगतिमें देवोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक ओघके समान भाव है।
135. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामौदयिको भाव:। पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत्।
135. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंके औदयिक भाव है। पंचेन्द्रियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानका ओघके समान भाव है।
136. कायानुवादेन स्थावरकायिकानामौदयिको भाव:। त्रसकायिकानां सामान्यमेव।
136. कायमार्गणाके अनुवादसे स्थावरकायिकोंके औदयिक भाव है। त्रसकायिकोंके ओघके समान भाव है।
137. योगानुवादेन कायवाङ्मनसयोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादिसयोगकेवल्यन्तानां च सामान्यमेव।
137. योगमार्गणाके अनुवादसे काययोगी, वचनयोगी और मनोयोगी जीवोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक और अयोगकेवलीके ओघके समान भाव हैं।
138. वेदानुवादेन स्त्रीपुन्नपुंसकवेदानामवेदानां च सामान्यवत्।
138. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और वेदरहित जीवोंके ओघके समान भाव हैं।
139. कषायानुवादेन क्रोधमानमायालोभकषायाणामकषायाणां च सामान्यवत्।
139. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोध कषायवाले, मान कषायवाले, माया कषाय वाले, लोभ कषायवाले और कषाय रहित जीवोंक समान भाव हैं।
140. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिविभङ्गज्ञानिनां मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलज्ञानिनां च सामान्यवत्।
140. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीवोंके ओघके समान भाव हैं।
141. संयमानुवादेन सर्वेषां संयतानां संयतासंयतानां असंयतानां च सामान्यवत्।
141. संयम मार्गणाके अनुवादसे सब संयतोंके, संयतासंयतोके और असंयतोंके ओघके समान भाव हैं।
142. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनिनां सामान्यवत्।
142. दर्शन मार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले और केवलदर्शनवाले जीवोंके ओघके समान भाव हैं।
143. लेश्यानुवादेन षड्लेश्यालेश्यानां च सामान्यवत्।
143. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे छहों लेश्यावाले और लेश्या रहित जीवोंके ओघके समान भाव हैं।
144. भव्यानुवादेन भव्यानां मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत्। अभव्यानां पारिणामिको भाव:।
144. भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्योंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक ओघके समान भाव हैं। अभव्योंके पारिणामिक
[161] भाव है।
145. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टे: क्षायिको भाव:। क्षायिकं सम्यक्त्वम्। असंयतत्वमौदयिकेन भावेन। संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भाव:। क्षायिकं सम्यक्त्वम्। चतुर्णामुपशमकानामौपशमिको भाव:। क्षायिकं सम्यक्त्वम्। शेषाणां सामान्यवत्। क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टे: क्षायोपशमिको भाव:। क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम्। असंयत: पुनरौदयिकेन भावेन। संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भाव:। क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम्। औपशमिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टेरौपशमिको भाव:। औपशमिकं सम्यक्त्वम्। असंयत: पुनरौदयिकेन भावेन। संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भाव:। औपशमिकं सम्यक्त्वम्। चतुर्णामुपशमकानामौपशमिको भाव:। औपशमिकं सम्यक्त्वम्। सासादनसम्यग्दृष्टे: पारिणामिको भाव:। सम्यङ्मिथ्यादृष्टे: क्षायोपशमिको भाव:। मिथ्यादृष्टेरौदयिको भाव:।
145. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टिके क्षायिक भाव है। क्षायिक सम्यक्त्व है। किन्तु असंयतपना औदयिक भाव है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतके क्षायोपशमिक भाव है। क्षायिक सम्यक्त्व है। चारों उपशमकों के औपशमिक भाव है। क्षायिक सम्यक्त्व है। शेष गुणस्थानोंका ओघके समान भाव है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिके क्षायोपशमिक भाव है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। किन्तु असंयतपना औदयिक भाव है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतके क्षायोपशमिक भाव है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। औपशमिक सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिके औपशमिक भाव है। औपशमिक सम्यक्त्व है। किन्तु असंयतपना औदयिक भाव है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतके क्षायोपशमिक भाव हैं। औपशमिक सम्यक्त्व है। चारों उपशमकोंके औपशमिक भाव है। औपशमिक सम्यक्त्व है। सासादनसम्यग्दृष्टिके पारिणामिकभाव है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिके क्षायोपशमिक भाव है। मिथ्यादृष्टिके औदयिक भाव है।
146. संज्ञानुवादेन संज्ञिनां सामान्यवत्। असंज्ञिनामौदयिको भाव:। तदुभयव्यपदेशरहितानां सामान्यवत्।
146. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंके ओघके समान भाव हैं। असंज्ञियोंके औदयिक भाव हैं। तथा संज्ञी और असंज्ञी व्यवहारसे रहित जीवोंक ओघके समान भाव हैं।
147. आहारानुवादेन आहारकाणामनाहारकाणां च सामान्यवत्। भाव: परिसमाप्त:।
147. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारक और अनाहारक जीवोंके ओघके समान भाव हैं। इस प्रकार भाव समाप्त हुआ।
148. अल्पबहुत्वमुपवर्ण्यते। तद् द्विविधं सामान्येन विशेषेण च। सामान्येन तावत् सर्वत: स्तोका: त्रय उपशमका: स्वगुणस्थानकालेषु प्रवेशेन तुल्यसंख्या:। उपशान्तकषायास्तावन्त एव। त्रय: क्षपका: संख्येयगुणा:। क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थास्तावन्त एव। सयोगकेवलिनोऽयोगकेवलिनश्च प्रवेशेन तुल्यसंख्या:। सयोगकेवलिन: स्वकालेन समुदिता: संख्येयगुणा:। अप्रमत्तसंयता: संख्येयगुणा:। प्रमत्तसंयता: संख्येयगुणा:। संयतासंयता
[162] असंख्येयगुणा:। सासादनसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। सम्यग्मिथ्यादृष्टय:
[163] संख्येयगुणा:। असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणा:।
148. अब अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। वह दो प्रकारका है – सामान्य और विशेष। सामान्यकी अपेक्षा तीनों उपशमक सबसे थोड़े हैं जो अपने-अपने गुणस्थानके कालोंमें प्रवेशकी अपेक्षा समान
[164] संख्यावाले हैं। उपशान्तकषाय जीव उतने ही हैं। इनसे अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानके क्षपक संख्यात
[165] गुणे हैं। क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ उतने ही हैं। सयोगकेवली और अयोगकेवली प्रवेशकी अपेक्षा समान संख्यावाले हैं। इनसे अपने कालमें समुदित हुए सयोगकेवली संख्यातगुणे हैं। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं। इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे मिथ्यादृष्टि अनंतगुणे हैं।
149. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु नारकेषु सर्वत: स्तोका: सासादनसम्यग्दृष्टय:। सम्यग्मिथ्यादृष्टय: संख्येयगुणा:। असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। तिर्यग्गतौ तिरश्चां सर्वत: स्तोका: संयतासंयता:। इतरेषां समान्यवत्। मनुष्यगतौ मनुष्याणामुपशमकादिप्रमत्तसंयतान्तानां सामान्यवत्। तत: संख्येयगुणा: संयतासंयता:। सासादनसम्यग्दृष्टय: संख्येयगुणा:। सम्यग्मिथ्यादृष्टय: संख्येयगुणा:। असंयतसम्यग्दृष्टय: संख्येयगुणा:। मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। देवगतौ देवानां नारकवत्।
149. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब पृथिवियोंमें नारकियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे थोड़े हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणे हैं। तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें संयतासंयत सबसे थोड़े हैं। शेष गुणस्थानवाले तिर्यंचोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। मनुष्यगतिमें मनुष्योंके उपशमकोंसे लेकर प्रमत्तसंयत तकका अल्पबहुत्व ओघके समान है। प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि संयख्यातगुणे हैं। इनसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणे हैं। देवगतिमे देवोंका अल्पबहुत्व नारकियोंके समान है।
150. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियविकलेन्द्रियेषु गुणस्थानभेदो नास्तीत्यल्पबहुत्वाभाव:
[166] । पञ्चेन्द्रियाणां सामान्यवत्। अयं तु विशेष: मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणा:।
150. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंमें गुणस्थान भेद न होनेसे अल्पबहुत्व नहीं है। पंचेन्द्रियोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रियोंसे मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय असंख्यातगुणे हैं।
151. कायानुवादेन स्थावरकायेषु गुणस्थानभेदाभावादल्पबहुत्वाभाव:
[167] । त्रसकायिकानां पञ्चेन्द्रियवत्।
151. काय मार्गणाके अनुवादसे स्थावरकायिकोंमें गुणस्थान भेद न होनेसे अल्पबहुत्व नहीं है। त्रसकायिकोंका अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियोंके समान है।
152. योगानुवादेन वाङ्मनसयोगिनां पञ्चेन्द्रियवत्। काययोगिनां सामान्यवत्। वेदानुवादेन स्त्रीपुंवेदानां पञ्चेन्द्रियवत्। नपुंसकवेदानामवेदानां च सामान्यवत्।
152. योग मार्गणाके अनुवादसे वचनयोगी और मनोयोगी जीवोंका अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियोंके समान है। काययोगियोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी पुरुषवेदी जीवोंका अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियोंके समान है। नपुंसकवेदी और वेदरहित जीवोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है।
153. कषायानुवादेन क्रोधमानमायाकषायाणां पुंवेदवत्। अयं तु विशेष: मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणा:। लोभकषायाणां द्वयोरुपशमकयोस्तुल्या संख्या। क्षपका: संख्येयगुणा:। सूक्षमसांपरायशुद्ध्युपशमकसंयता विशेषाधिका:। सूक्षमसांपरायक्षपका: संख्येयगुणा:। शेषाणां सामान्यवत्।
153. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले और मायाकषायवाले जीवोंका अल्पबहुत्व पुरुषवेदियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें असंयत सम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं। लोभ कषायवालोंमें दोनों उपशमकोंकी संख्या समान है। इनसे क्षपक संख्यातगुणे हैं। इनसे सूक्ष्मसाम्परायशुद्धि उपशमकसंयत विशेष अधिक हैं। इनसे सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक संख्यातगुणे हैं। शेष गुणस्थानवालोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है।
154. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिषु सर्वत: स्तोका: सासादनसम्यग्दृष्टय:। मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणा
[168]:। विभङ्गज्ञानिषु सर्वत: स्तोका: सासादनसम्यग्दृष्टय:। मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। मतिश्रुतावधिज्ञानिषु सर्वत: स्तोकाश्चत्वार उपशमकाश्चत्वार: क्षपका: संख्येयगुणा:। अप्रमत्तसंयता: संख्येयगुणा:। प्रमत्तसंयता: संख्येयगुणा:। संयतासंयता:
[169]असंख्येयगुणा:। असंयतसम्यग्दृष्टय:
[170] असंख्येयगुणा:। मन:पर्ययज्ञानिषु सर्वत: स्तोकाश्चत्वार उपशमका:। चत्वार: क्षपका: संख्येयगुणा:। अप्रमत्तसंयता: संख्येयगुणा:। प्रमत्तसंयता: संख्येयगुणा:। केवलज्ञानिषु अयोगकेवलिभ्य: सयोगकेवलिन: संख्येयगुणा:।
154. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे थोड़े हैं। मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं। विभंगज्ञानियों में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे थोड़े हैं। मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणे हैं। मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें चारों उपशमक सबसे थोड़े हैं। इनसे चारों क्षपक संख्यातगुणे हैं। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। मन:पर्ययज्ञानियोंमें चारों उपशमक सबसे थोडे़ हैं। इनसे चारों क्षपक संख्यातगुणे हें। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। केवलज्ञानियोंमें ओयागकेवलियोंसे सयोगकेवली संख्यातगुणे हैं।
155. संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतेषु द्वयोरुपशमकयोस्तुल्या संख्या। तत: संख्येयगुणौ क्षपकौ। अप्रमत्ता: संख्येयगुणा:। प्रमत्ता: संख्येयगुणा:। परिहारशुद्धिसंयतेषु अप्रमत्तेभ्य: प्रमत्ता: संख्येयगुणा:। सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयतेषु उपशमकेभ्य: क्षपका: संख्येयगुणा:। यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतेषु उपशान्तकषायेभ्य: क्षीणकषाया: संख्येयगुणा:। अयोगकेवलिनस्तावन्त एव। सयोगकेवलिन: संख्येयगुणा:। संयतासंयतानां नास्त्यल्पबहुत्वम्। असंयतेषु सर्वत: स्तोका: सासादनसम्यग्दृष्टय:। सम्यङ्मिथ्यादृष्टय:
[171] संख्येयगुणा:। असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणा:।
155. संयम मार्गणा के अनुवादसे सामायिक और छेदोपस्थापना शुद्धिसंयतोंमें दोनों उपशमक समान संख्यावाले हैं। इनसे दोनों क्षपक संख्यातगुणे हैं। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। परिहारविशुद्धि संयतोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयतोंमें उपशमकोंसे क्षपक संख्यातगुणे हैं। यथाख्यात विहार शुद्धिसंयतोंमें उपशान्त कषायवालोंसे क्षीणकषाय जीव संख्यातगुणे हैं। अयोगकेवली उतने ही हैं। सयोगकेवली संख्यातगुणे हैं। संयतासंयतोंका अल्पबहुत्व नहीं है। असंयतोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे थोड़े हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं।
156. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिनां मनोयोगिवत्। अचक्षुर्दर्शनिनां काययोगिवत्। अवधिदर्शनिनामवधिज्ञानिवत्। केवलदर्शनिनां केवलज्ञानिवत्।
156. दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंका अल्पबहुत्व मनोयोगियोंके समान है। अचक्षुदर्शनवालोंका अल्पबहुत्व काययोगियोंके समान है। अवधिदर्शनवालोंका अल्पबहुत्व अवधिज्ञानियोंके समान है और केवलदर्शनवालोंका अल्पबहुत्व केवलज्ञानियोंके समान है।
157. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यानां असंयतवत्। तेज:पद्मलेश्यानां सर्वत: स्तोका अप्रमत्ता:। प्रमत्ता: संख्येयगुणा:। एवमितरेषां पंचेन्द्रियवत्। शुक्ललेश्यानां सर्वत: स्तोका उपशमका:। क्षपका: संख्येयगुणा:। सयोगकेवलिन: संख्येयगुणा:। अप्रमत्तसंयता: संख्येयगुणा:। प्रमत्तसंयता: संख्येयगुणा:। संयतासंयता
[172] असंख्येयगुणा:। सासादनसम्यग्दृष्टयोऽ
[173]संख्येयगुणा:। सम्यग्मिथ्यादृष्टय: संख्येयगुणा:। मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। असंयतसम्यग्दृष्टय:
[174]संख्येयगुणा:।
157. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंका अल्पबहुत्व असंयतोंके समान है। पीत और पद्म लेश्यावालोंमें अप्रमत्तसंयत सबसे थोड़े हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इस प्रकार शेष गुणसथानवालोंका अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियोंके समान है। शुक्ल लेश्यावालोंमें उपशमक सबसे थोड़े हैं। इनसे क्षपक संख्यातगुणे हैं। इनसे सयोगकेवली संख्यातगुणे हैं। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं। इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं। इनसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणे हैं।
158. भव्यानुवादेन भव्यानां सामान्यवत्। अभव्यानां नास्त्यल्पबहुत्वम्।
158. भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्योंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। अभव्योंका अल्पबहुत्व नहीं है।
159. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु सर्वत: स्तोकाश्चत्वार उपशमका:। इतरेषां प्रमत्तान्तानां सामान्यवत्। तत: संयतासंयता: संख्येयगुणा:। असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिषु सर्वत: स्तोका अप्रमत्ता। प्रमत्ता: संख्येयगुणा:। संयतासंयता
[175] असंख्येयगुणा:। असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। औपशमिकसम्यग्दृष्टीनां सर्वत: स्तोकाश्चत्वार उपशमका:। अप्रमत्ता: संख्येयगुणा:। प्रमत्ता संख्येयगुणा:। संयतासंयता:
[176] असंख्येयगुणा:। असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। शेषाणां नास्त्यल्पबहुत्वम्
[177]।
159. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें चारों उपशमक सबसे थोड़े हैं । प्रमत्तसंयतों तक शेषका अल्पबहुत्व ओघके समान है। प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियोंमें अप्रमत्तसंयत सबसे थोड़े हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। औपशमिकसम्यग्दृष्टियोंमें चारों उपशमक सबसे थोड़े हैं। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे है। इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंयत सम्यग्दृष्टि अंसख्यातगुणे हैं। शेष सासादन सम्यग्दृष्टि आदिका अल्पबहुत्व नहीं है।
160. संज्ञानुवादेन संज्ञिनां चक्षुर्दर्शनिवत्। असंज्ञिनां नास्त्यल्पबहुत्वम्। तदुभयव्यपदेशरहितानां केवलज्ञानिवत्।
160. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंका अल्पबहुत्व चक्षुदर्शनवालोंके समान है। असंज्ञियोंका अल्पबहुत्व नहीं है। संज्ञी और असंज्ञी व्यवहारसे रहित जीवोंका अल्पबहुत्व केवलज्ञानियोंके समान है।
161. आहारानुवादेन आहारकाणां काययोगिवत्। अनाहारकाणां सर्वत: स्तोका: सयोगकेवलिन:। अयोगकेवलिन: संख्येयगुणा:। सासादनसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणा:।
161. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारकोंका अल्पबहुत्व काययोगियोंके समान है। अनाहाराकोंमें सयोगकेवली सबसे थोड़े हैं। इनसे अयोगकेवली संख्यातगुणे हैं। इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं। अल्पबहुत्वका कथन समाप्त हुआ।
162. एवं मिथ्यादृष्ट्यादीनां गत्यादिषु मार्गणा कृता सामान्येन। तत्र सूक्ष्मभेद आगमविरोधेनानुसर्तव्य:।
162. इस प्रकार गत्यादि मार्गणाओंमें मिथ्यादृष्टि आदिका सामान्यसे विचार किया। इसमें उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद आगमानुसार जान लेना चाहिए।
पूर्व सूत्र
अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ –र्देश:। प्रशंसा—मु. ता. न.।
- ↑ ग्रहणमुच्यते ? सत्यं ता. न.।
- ↑ संक्षेपरूचय: अपरे नाति—मु.।
- ↑ 1.कायादिषु वनस्प—मु.न.।
- ↑ --वली च। ज्ञाना—ता.न.।
- ↑ दृष्टिश्चास्ति। सम्यग्मिथ्यादृष्टे: टिप्पणकारकाभिप्रायेण ज्ञातव्यम्। आभिनि—न.।
- ↑ द्विविधा। सामान्येन तावत्—मु.।
- ↑ तिरश्चां मिथ्या—मु.।
- ↑ सात राजु लम्बी और एक प्रदेशप्रमाण चौड़ी आकाश प्रदेश-पंक्तिको जगश्रेणि कहते हैं। ऐसी जगतप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण जगश्रेणियोंमें जितने प्रदेश होते हैं उतने प्रथम नरकके मिथ्यादृष्टि नारकी हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
- ↑ जगश्रेणिके वर्गको जगप्रतर कहते हैं।
- ↑ जगश्रेणिमें ऐसे असंख्यातका भाग दो जिससे असंख्यात योजन कोटाकोटि प्रमाण आकाश प्रदेश प्राप्त हों, इतनी दूसरे आदि प्रत्येक नरकके नारकियोंकी संख्या है। यह संख्या उत्तरोत्तर हीन है।
- ↑ इसमें संमूर्च्छिम मनुष्योंकी संख्या सम्मिलित है।
- ↑ सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानवाले मनुष्योंकी संख्या जीवस्थान द्रव्यप्रमाणानुगमकी धवला टीकामें विस्तारसे बतायी है।
- ↑ मिथ्यादृष्टि देवोंकी संख्याका खुलासा प्रथम नरकके मिथ्यादृष्टि नारकियोंके खुलासाके समान जानना चाहिए। आगे भी इसी प्रकार यथायोग सुस्पष्ट कर लेना चाहिए।
- ↑ वैसे तो त्रसकायिकोंकी संख्या पंचेन्द्रियोंकी संख्यासे अधिक है। पर असंख्यात सामान्य की अपेक्षा यहाँ त्रसकायिकों की संख्याको पंचेन्द्रियोंकी संख्याके समान बतलाया है।
- ↑ योगिषु मिथ्या—मु.। –योगेषु मिथ्या—दि. 2।
- ↑ –नन्ता:। त्रियोगिनां सासा—मु.।
- ↑ –दयो संयतासंयतान्ता: सामान्योक्तसंख्या:। प्रमत्तसंयतादयोऽनिवृत्ति—मु., आ., दि. 1 दि. 2।
- ↑ यों तो जिस गुणस्थानवालोंकी संख्या बतलायी है वह क्रोध आदि चार भागोंमें बँट जाती है फिर भी सामान्यसे उस संख्याका अतिक्रम नहीं होता इसलिए क्रोध, मान, माया और लोभ कषायमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवालोंकी संख्या ओघके समान बतलायी है। आगे भी जहाँ इस प्रकार संख्या बतलायी हो वहाँ यही क्रम जान लेना चाहिए।
- ↑ संख्यात।
- ↑ –दृष्टय: सासा—ता.।
- ↑ –यतान्ता: सामा—मु., दि. 1, दि. 2, आ.।
- ↑ अनन्तानन्त।
- ↑ जिस गुणस्थानवालोंकी जितनी संख्या है सामान्यसे उतनी संख्या है।
- ↑ पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण।
- ↑ संख्यात।
- ↑ संख्यात।
- ↑ सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत और यथाख्यात विहारशुद्धिसंयत जीव संख्यात हैं। तथा संयतासंयत जीव पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और असंयत जीव अनन्तानन्त हैं।
- ↑ जिस गुणस्थानवालोंकी जितनी संख्या है सामान्यसे उतनी संख्या उस गुणस्थानमें चक्षु और अचक्षु दर्शनवालोंकी है।
- ↑ मिथ्यात्वमें अनन्तानन्त और शेष गुणस्थानोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण।
- ↑ असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण।
- ↑ जिस गुणस्थानवालों की जितनी संख्या है उतनी है।
- ↑ जिस गुणस्थानवालोंकी जितनी संख्या है उतनी है। केवल मिथ्यात्वमें अभव्योंकी संख्या कम हो जाती है।
- ↑ मिथ्यादृष्टि संज्ञी असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण हैं। सासादन आदि संज्ञियोंकी संख्या जिस गुणस्थानवालोंकी जितनी संख्या है उतनी है।
- ↑ संख्यात।
- ↑ मिथ्यादृष्टि आहारक अनन्तानन्त हैं। सासादनसे लेकर संयतासंयत तकके आहारक पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। शेष संख्यात हैं।
- ↑ मिथ्यादृष्टि अनाहारक अनन्तानन्त हैं। तथा सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि अनाहारक पल्यके असंख्यातवें भाग हैं।
- ↑ संख्यात।
- ↑ –भाग:। समुद्घातेसंख्येया वा भागा: सर्व—मु. न.।
- ↑ स्त्रीपुंसवेदा—ता.।
- ↑ –मायालोभ—आ., दि. 2। मायानां लोभ—दि. 1।
- ↑ –स्यासंख्येयभाग: मु., दि. 1, दि. 2।
- ↑ मेरुपर्वतके मूलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु। यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ मेरु पर्वतके मूलसे नीचे कुछ कम पाँच राजु और ऊपर सात राजु। यह स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ मेरु पर्वतके मूलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु। यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है। असंयत सम्यग्दृष्टियोंके मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा भी यह स्पर्शन बन जाता है।
- ↑ ऊपर अच्युत कल्पतक छह राजु। इसमें-से चित्रा पृथिवीका एक हजार योजन व आरण अच्युत कल्पके उपरिम विमानोंके ऊपरका भाग छोड़ देना चाहिए। यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ –दृष्टिभि: संयता—मु. ता., न.।
- ↑ दृष्टिभि: सासा—ता.।
- ↑ मेरुपर्वतके मूलसे ऊपर सात राजु। यह स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है। यद्यपि तिर्यंच सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मेरूपर्वतके मूलसे नीचे भवनवासियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं तथापि इतने मात्रसे स्पर्शन क्षेत्र सात राजुसे अधिक न होकर कम ही रहता है। ऐसे जीव मेरुपर्वतके मूलसे नीचे एकेन्द्रियोंमें व नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
- ↑ ऊपर अच्युत कल्प तक छह राजु। इसमें-से चित्रा पृथिवीका एक हजार योजन व आरण अच्युत कल्पके उपरिम विमानोंके ऊपरका भाग छोड़ देना चाहिए। यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ मारणान्तिक-समुद्घात और उपपादपदकी अपेक्षा यह स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण कहा है।
- ↑ भवनवासी लोकसे लेकर ऊपर लोकाग्र तक। इसमें-से अगम्यप्रदेश छूट जानेसे कुछ कम सात राजु स्पर्श रह जाता है। यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु। यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर सात राजु । यह स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु। यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ विकलेन्द्रियोंका सब लोक स्पर्श मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु। यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ सब लोक स्पर्श मारणान्तिक और उपपादकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु। यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ समुद्घातके कालमें मनोयोग और वचनयोग नहीं होता, इससे वचनयोगी और मनोयोगी सयोगी केवलियों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है।
- ↑ स्त्रीपुंसवे—ता।
- ↑ अष्टौ नव चतु—मु.।
- ↑ लोको वा। नपुंसकवेदेषु मु.।
- ↑ सम्यङ्मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येभाग: स्पृष्ट:। सासादनसम्यग्दृष्टिभि: लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ नव चतुर्दश भागा वा देशोना:। सम्यग्मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम्। असंयतसम्य—मु.।
- ↑ मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु। यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। सब लोक स्पर्श मारणान्तिक और उपपादकी पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु। यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर सात राजु। यह स्पर्शन मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। यहाँ उपपाद पदकी अपेक्षा ग्यारह घनराजु स्पर्शन प्राप्त होता है। किन्तु उपपादकी विवक्षा नहीं होनेसे उसका उल्लेख नहीं किया है। यह स्पर्शन मेरुतलसे नीचे कुछ कम पाँच राजु और ऊपर छह राजु इस प्रकार प्राप्त होता है।
- ↑ यहाँ नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन ओघके समान बतलाया है। सो यह सामान्य निर्देश है। विशेषकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि नपुंसकवेदियोंने वैक्रियिक पदकी अपेक्षा पाँच घनराजु क्षेत्रका स्पर्श किया है, क्योंकि वायुकायिक जीव इतने क्षेत्रमें विक्रिया करते हुए पाये जाते हैं। नपुंसकवेदी सासादन सम्यग्दृष्टियोंने स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उपपादपदकी अपेक्षा कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भाग त्रसनालीका स्पर्श किया है। मारणान्तिक पदकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग त्रसनालीका स्पर्श किया है। शेष कथन ओघके समान है।
- ↑ यह स्पर्श मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ यह स्पर्श विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है, क्योंकि नीचे दो राजु और ऊपर छह राजु क्षेत्रमें गमनागमन देखा जाता है।
- ↑ यह स्पर्शन मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। क्योंकि ये जीव सब लोकमें मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं।
- ↑ वा देशोना:। द्वादशभागा: कुतो न लभ्यन्ते इति चेत् तत्रावस्थितलेश्यापेक्षया पञ्चैव। अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ता:। सम्यङ्मिथ्या–मु., आ., दि.1।
- ↑ यह स्पर्श मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा बतलाया है। कृष्ण लेश्यावालेके कुछ कम पाँच राजु, नील लेश्यावालेके कुछ कम चार राजु और कापोत लेश्यावालेके कुछ कम दो राजु यह स्पर्श होता है। जो नारकी तिर्यंच सासादन सम्यग्दृष्टियोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हीके यह स्पर्श सम्भव है।
- ↑ यह स्पर्शन विहार, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है, क्योंकि पीतलेश्यावाले सासादनोंका नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु क्षेत्रमें गमनागमन देखा जाता है।
- ↑ यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है क्योंकि ऐसे जीव तीसरी पृथिवीसे ऊपर कुछ कम नौ राजु क्षेत्रमें मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं। उपपाद पदकी अपेक्षा इनका स्पर्श कुछ कम डेढ़ राजु होता है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए।
- ↑ यह स्पर्श विहार, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। युक्तिका निर्देश पहले किया ही है। इतनी विशेषता है कि मिश्र गुणस्थानमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं होता।
- ↑ यह स्पर्श मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। इनके उपपाद पद नहीं होता।
- ↑ यह स्पर्श विहार, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। इनके उपपाद पदकी अपेक्षा स्पर्श कुछ कम पाँच राजु होता है। इतनी विशेषता है कि मिश्र गुणस्थानमें मारणान्तिक और उपपाद पद नहीं होता।
- ↑ यह स्पर्श मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है, क्योंकि पद्म लेश्यावाले संयतासंयत ऊपर कुछ कम पाँच राजु क्षेत्रमें मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं।
- ↑ विहार, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन प्राप्त होता है। सो भी मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानोंकी अपेक्षा यह कथन किया है। संयतासंयत शुक्ल लेश्यावालोंके तो विहार, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही स्पर्शन प्राप्त होता है। उपपादकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि शुक्ल लेश्यावालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अविरतसम्यग्दृष्टि शुक्ल लेश्यावालोंका स्पर्श कुछ कम छह राजु है। संयतासंयतोंके उपपादपद नहीं होता। फिर भी इनके मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम छह राजु स्पर्श बन जाता है।
- ↑ मेरु तलसे नीचे कुछ कम पाँच राजु और ऊपर छह राजु। यह स्पर्श उपपाद पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
- ↑ अच्युत कल्प तक ऊपर कुछ कम राजु। तिर्यंच असंयत सम्यग्दृष्टि जीव मर कर अच्युत कल्प तक उत्पन्न होते हैं इसलिए उपपाद पदकी अपेक्षा यह स्पर्श बन जाता है।
- ↑ —हूर्त:। तिण्णि सहसा सत्त य सदाणि तेहत्तरिं च उस्सासा। एसो हवइ मुहुत्तो सव्वेसिं चेव मुणयाणं।।‘ उत्क—मु.।
- ↑ जो उपशम श्रेणिवाला जीव मर कर एक समय कम तेतीस सागरकी आयु लेकर अनुत्तर विमानमें पैदा होता है। फिर पूर्वकोटिकी आयुवाले मुनष्योंमें पैदा होकर जीवनभर असंयमके साथ रहा है। केवल जीवनमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर संयमको प्राप्त होकर सिद्ध होता है। उसके असंयत सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। यह काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अधिक एक समय कम तेतीस सागर है।
- ↑ पूर्वकोटिकी आयु वाला जो सम्मूर्छिम तिर्यंच उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद वेदक सम्यक्त्वके साथ संयमासंयमको प्राप्त करता है संयमासंयमका उत्कृष्ट काल होता है। यह काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि है।
- ↑ जघन्य काल एक समय मरणकी अपेक्षा बतलाया है।
- ↑ जघन्य काल एक समय मरणकी अपेक्षा बतलाया है।
- ↑ अन्तर्मुहूर्त कम। इतनी विशेषता है कि प्रारम्भके छह नरकोंमें मिथ्यात्वके साथ उत्पन्न करावे फिर अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्वको उत्पन्न कराकर जीवन-भर सम्यक्त्वके साथ रखकर उत्कृष्ट काल प्राप्त करे। परन्तु सातवें नरकमें प्रवेश और निर्गम दोनों ही मिथ्यात्वके साथ करावे।
- ↑ यहाँ असंख्यातसे आवलिका असंख्यातवाँ भाग लिया गया है।
- ↑ यहाँ पूर्वकोटि पृथक्त्वसे सैंतालीस पूर्वकोटियोंका ग्रहण किया है। यद्यपि पृथक्त्व यह तीनसे ऊपर और नौसे नीचेकी संख्याका द्योतक है तथापि यहाँ बाहुल्यकी अपेक्षा पृथक्त्व पदसे सैंतालीसका ग्रहण किया है।
- ↑ यहाँ साधिक पदसे कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभाग लिया गया है। उदाहरणार्थ – एक पूर्वकोटिके आयुवाले जिस मनुष्यने त्रिभागमें मनुष्यायुका बन्ध किया। फिर अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वपूर्वक क्षायिकसम्यग्दर्शनको प्राप्त किया और आयुके अन्तमें मरकर तीन पल्यकी आयुके साथ उत्तम भोगभूमिमें पैदा हुआ उसके अविरत सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है।
- ↑ लगातार दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय या चौइन्द्रिय होनेका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। इसलिए इनका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है।
- ↑ –ख्येय: काल:। वन-मु.।
- ↑ मनोयोग, वचनयोग और काययोगका जघन्य काल एक समय योगपरावृत्ति, गुणपरावृत्ति, मरण और व्याघात इस तरह चार प्रकारसे बन जाता है। इनमें-से मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत यहाँ पर चारों प्रकार सम्भव हैं। अप्रमत्तसंयतके व्याघातके बिना तीन प्रकार सम्भव हैं, क्योंकि व्याघात और अप्रमत्तभावका परस्परमें विरोध है और सयोगिकेवलीके एक योगपरावृत्तिसे ही जघन्य काल एक समय प्राप्त होना सम्भव है।
- ↑ मरणके बिना शेष तीन प्रकारसे यहाँ जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिए।
- ↑ उपशमकोंके व्याघातके बिना तीन प्रकारसे और क्षपकोंके मरण और व्याघातके बिना दो प्रकारसे जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है।
- ↑ देवीकी उत्कृष्ट आयु पचपन पल्य है। इसमें-से प्रारम्भका अन्तर्मुहूर्त काल कम कर देनेपर स्त्रीवेदमें असंयतसम्य-ग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य प्राप्त हो जाता है।
- ↑ तीन सौ सागरसे ऊपर और नौ सौ सागरके नीचे।
- ↑ यह सादि सान्त कालका निर्देश है।
- ↑ सातवें नरकमें असंयत सम्यग्दृष्टिका जो उत्कृष्ट काल है वही यहाँ नपुंसकवेदमें असंयत सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल कहा है।
- ↑ मिथ्यादृष्टि नारकी या देवके उत्पन्न होनेके बाद पर्याप्त होने पर ही विभंगज्ञान प्राप्त होता है। इसीसे यहाँ एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टिके विभंगज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है।
- ↑ जो जिस लेश्यासे नरकमें उत्पन्न होता है उसके मरते समय अन्तर्मुहूर्त पहले वही लेश्या आ जाती है। इसीप्रकार नरकसे निकलनेपर भी अन्तर्मुहूर्त तक वही लेश्या रहती है। इसीसे यहाँ मिथ्यादृष्टिके कृष्ण, नील और कापोत लेश्याका उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागरोपम, साधिक सत्रह सागरोपम और साधिक सात सागरोपम बतलाया है।
- ↑ मिथ्यादृष्टिके पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो सागरोपम या अन्तर्मुहूर्त कम ढाई सागरोपम और सम्यग्दृष्टिके अन्तर्मुहूर्त कम ढाई सागरोपम।
- ↑ मिथ्यादृष्टिके पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक अठारह सागरोपम और सम्यग्दृष्टिके अन्तर्मुहूर्त कम साढ़े अठारह सागरोपम।
- ↑ लेश्यापरावृत्ति और गुणपरावृत्तिसे जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है।
- ↑ –ज्ञिनां मिथ्यादृष्टेर्नाना मु.।
- ↑ ग्रहणम्। तिण्णिसया छत्तीसा छावट्ठी सहस्साणि मरणाणि। अन्तोमुहुत्तमेत्ते तावदिया चेव होंति खुद्दभवा। 66336। उत्क—मु.।
- ↑ –ख्येया: संख्य—मु.।
- ↑ यदि दर्शन मोहनीयका क्षपणा काल सम्मिलित न किया जाय तो वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम छ्यासठ सागर प्राप्त होता है। साथ ही यह भी नियम है कि ऐसा जीव मध्यमें अन्तर्मुहूर्तके लिए मिश्र गुणस्थानमें जाकर पुन: अन्तर्मुहूर्त कम छ्यासठ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रह सकता है। इसके बाद वह या तो मिथ्यात्वमें चला जाता है या दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करने लगता है। यहाँ मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर लाना है इसलिए मिथ्यात्वसे लाकर अन्तमें पुन: मिथ्यात्वमें ही ले जाना चाहिए। इससे मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक सौ बत्तीस सागर प्राप्त हो जाता है।
- ↑ यदि सासादन सम्यग्दृष्टि न हों तो वे कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भाग काल तक नहीं होते इसीसे इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है।
- ↑ सासादन गुणस्थान उपशम सम्यक्त्वसे च्युत होने पर ही प्राप्त हो सकता है। किन्तु एक जीव कमसे कम पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालके जाने पर ही दूसरी बार उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हो सकता है। इसीसे यहाँ सासादन सम्यग्दृष्टिका जघन्यकाल अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा है।
- ↑ एक जीव उपशम श्रेणिसे च्युत होकर पुन: अन्तर्मुहूर्तसे बाद उपशम श्रेणिपर चढ़ सकता है इसलिए चारों उपशमकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त बतलाया है।
- ↑ जिस नरककी जितनी उत्कृष्ट स्थिति है उसके प्रारम्भ और अन्त में अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यात्वके साथ रखकर मध्यमें सम्यक्त्वके साथ रखनेसे उस नरकमें मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर आ जाता है जिसका निर्देश मूलमें किया ही है।
- ↑ नरकमें उत्कृष्ट स्थितिके साथ उत्पन्न होने पर अन्तर्मुहूर्तके बाद उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कराके सासादन और मिश्रमें ले जाय। फिर मरते समय सासादन और मिश्रमें ले जाय। इस प्रकार प्रत्येक नरकमें सासादन और मिश्रगुण-स्थानका उत्कृष्ट अन्तर आ जाता है। इतनी विशेषता है कि सातवें नरकमें मरनेके अन्तर्मुहूर्त पहले सासादन और मिश्रमें ले जाय।
- ↑ जो तीन पल्यकी आयुके साथ कुक्कुट और मर्कट आदि पर्यायमें दो माह रहा और वहाँसे निकलकर मुहूर्त पृथक्त्वके भीतर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर अन्तमें मिथ्यात्वमें जाकर और सम्यक्त्वको प्राप्त होकर मरकर देव हुआ। उसके मुहूर्त पृथक्त्व और दो माह कम तीन पल्य मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर होता है।
- ↑ मनुष्य गतिमें मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर 10 माह 19 दिन और दो अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्य है।
- ↑ मनुष्यकी उत्कृष्ट काय स्थिति सैंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है। कोई एक अन्य गतिका जीव सासादनके कालमें एक समय शेष रहने पर मनुष्य हुआ और अपनी उत्कृष्ट कायस्थिति प्रमाण काल तक मनुष्य पर्यायमें घूमता हुआ अन्तमें उपशम सम्यक्त्वपूर्वक एक समयके लिए सासादनको प्राप्त हुआ और मरकर देव हो गया तो इससे मनुष्यगतिमें सासादनका उत्कृष्ट अन्तर दो समय कम सैंतालीस पूर्व-कोटि और तीन पल्य प्राप्त हो जाता है। मिश्र गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय मनुष्य पर्याय प्राप्त करनेपर आठ वर्षके बाद मिश्र गुणस्थान प्राप्त करावे। फिर कायस्थितिके अन्तमें मिश्र गुणस्थान प्राप्त कराकर मिथ्यात्व या सम्यक्त्वमें ले जाकर मरण करावे। तो इस प्रकार मिश्र गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर तीन अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्ष कम सैंतालीस पूर्वकोटि और तीन पल्य प्राप्त होता है।
- ↑ मनुष्य सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर आठ वर्ष दो अन्तर्मुहूर्त कम सैंतालीस पूर्वकोटि और तीन पल्य है।
- ↑ भोगभूमिमें संयमासंयम या संयमकी प्राप्ति सम्भव नहीं, इसलिए सैंतालीस पूर्वकोटिके भीतर ही यह अन्तर बतलाया है।
- ↑ देवोंमें नौवें ग्रैवेयक तक ही गुणस्थान परिवर्तन सम्भव है। इसीसे यहाँ मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर बतलाया है।
- ↑ त्रस पर्यायमें रहनेका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। इसीसे एकेन्द्रियोंका उक्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर बतलाया है।
- ↑ सासादनोंका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपममें-से आवलिका असंख्यातवाँ भाग और नौ अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए। मिश्र गुणस्थानवालोंका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय बारह अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए। असंयत सम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय दस अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए। संयतासंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय तीन पक्ष, तीन दिन और बारह अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए। प्रमत्तसंयतों और अप्रमत्तसंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय आठ वर्ष और दस अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए। अपूर्वकरण आदि चार उपशमकों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय क्रमसे 30, 28, 26 और 24 अन्तर्मुहूर्त अधिकआठ वर्ष कम कर देना चाहिए।
- ↑ –भ्यधिके। चतुर्णा—मु.।
- ↑ पाँच अन्तर्मुहूर्त कम पचपन पल्य।
- ↑ स्त्रीवेदका उत्कृष्ट काल सौ पल्योपम पृथक्त्व है उसमें से दो समय कम कर देनेपर स्त्रीवेदियोंमें सासादन सम्यग्दृष्टिका अन्तर आ जाता है और छह अन्तर्मुहूर्त कम कर देनेपर सम्यग्मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर आ जाता है। आगे भी इसी प्रकार आगमानुसार घटित कर लेना चाहिए।
- ↑ साधारणत: क्षपकश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। पर स्त्रीवेदकी अपेक्षा उसका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व बतलाया है।
- ↑ सासादनके दो समय कम और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके छह अन्तर्मुहूर्त कम सौ सागरोपम पृथक्त्व यह अन्तर जानना चाहिए। आगे भी इस प्रकार यथा योग्य अन्तर घटित कर लेना चाहिए।
- ↑ पुरुषवेदी अधिकसे अधिक साधिक एक वर्ष तक क्षपक श्रेणिपर नहीं चढ़ता यह इसका भाव है।
- ↑ चार अन्तर्मुहूर्त कम पूर्व कोटि।
- ↑ आठ वर्ष और ग्यारह अंतर्मुहूर्त कम तीन पूर्वकोटि अधिक छ्यासठ सागरोपम। किन्तु अवधिज्ञानीके ग्यारह अंतर्मुहूर्तके स्थानमें 12 अंतर्मुहूर्त कम करना चाहिए।
- ↑ प्रमत्तके साढ़े तीन अंतर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर है। और अप्रमत्तके दो अंतर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर है।
- ↑ तीन या चार पूर्व कोटि अधिक छ्यासठ सागरोपम। किंतु इसमें-से चारों उपशमकोंके क्रमसे 26, 24, 22 और 20 अंतर्मुहूर्त तथा आठ वर्ष कम कर देना चाहिए।
- ↑ अवधिज्ञानी प्राय: बहुत ही कम होते हैं, इसलिए इतना अंतर बन जाता है।
- ↑ उपशमश्रेणि और प्रमत्त-अप्रमत्तका काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे मन:पर्ययज्ञानी प्रमत्त और अप्रमत्तका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अंतर्मुहूर्त बन जाता है।
- ↑ आठ वर्ष और 12 अंतर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि।
- ↑ –यमे उप-आ., दि. 1, दि. 2, ता.।
- ↑ प्रमत्तको अप्रमत्तसे और अप्रमत्तको प्रमत्तसे अंतरित कराके यह अंतर ले आना चाहिए।
- ↑ आठ वर्ष और ग्यारह अंतर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अपूर्वकरणका उत्कृष्ट अन्तर है। अनिवृत्तिकरणका समयाधिक नौ अंतर्मुहूर्त और आठ वर्ष कम एक पूर्वकोटि उत्कृष्ट अंतर है।
- ↑ प्रमत्त और अप्रमत्तको परस्पर अंतरित करानेसे यह अंतर आ जाता है।
- ↑ यह अंतर सातवें नरकमें प्राप्त होता है।
- ↑ सामान्यवत्। एव-मु.।
- ↑ चक्षुदर्शनवालोंमें सासादनके नौ अन्तर्मुहूर्त और आवलिका असंख्यातवाँ भाग कम सम्यग्मिथ्यादृष्टिके बारह अंतर्मुहूर्त कम दो हजार सागरोपम उत्कृष्ट अंतर है।
- ↑ चक्षुदर्शनवालोंमें अविरतसम्यग्दृष्टिके 10 अंतर्मुहूर्त कम संयतासंयतके 48 दिन और 12 अंतर्मुहूर्त कम, प्रमत्तसंयत के 8 वर्ष 10 अन्तर्मुहूर्त कम और अप्रमत्त संयतके भी 8 वर्ष और 10 अन्तर्मुहूर्त कम दो हजार सागरोपम उत्कृष्ट अंतर है।
- ↑ चक्षुदर्शनवालोंमें चारो उपशमकोंका क्रमसे 29, 27, 25 और 23 अंतर्मुहूर्त तथा आठ वर्ष कम दो हजार सागरोपम उत्कृष्ट अंतर है।
- ↑ –हूर्त:। अयदो त्ति छ लेस्साओ सुहतिय लेस्सा हु देसविरदतिये। तत्तो दु सुक्कलेस्सा अजोगिठाणं अलेस्सं तु।। त्रयाणा—मु.।
- ↑ उपशमश्रेणिसे अन्तरित कराके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त करना चाहिए।
- ↑ अप्रमत्तसंयतसे अन्तरित कराके यह अन्तर प्राप्त करना चाहिए।
- ↑ आठ वर्ष और दो अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि।
- ↑ संयतासंयतके आठ वर्ष और चौदह अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम। प्रमत्तसंयतके एक अन्तर्मुहूर्त और एक पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम। अथवा साढ़े तीन अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अधिक तैंतीस सागरोपम। अप्रमत्त संयतके साढ़े पाँच अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटी अधिक तैंतीस सागरोपम।
- ↑ चारों उपशमकोंके आठ वर्ष और क्रमसे 27, 25, 23 और 21 अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्व कोटी अधिक तेतीस सागरोपम।
- ↑ चार अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि।
- ↑ तीन अन्तर्मुहूर्त कम छ्यासठ सागरोपम।
- ↑ प्रमत्तके सात अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अधिक तैंतीस सागरोपम और अप्रमत्तके आठ अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अधिक तैंतीस सागरोपम।
- ↑ ––दिनानि। एक—मु.
- ↑ क्योंकि उपशमश्रेणिसे उतर कर उपशम सम्यक्त्व छूट जाता है। यदि अन्तर्मुहूर्त बाद पुन: उपशमश्रेणिपर चढ़ता है तो वेदकसम्यक्त्व पूर्वक दूसरी बाद उपशम करना पड़ता है। यही कारण है कि उपशम सम्यक्त्वमें एक जीवकी अपेक्षा उपशान्तकषायका अन्तर नहीं प्राप्त होता।
- ↑ –भागा असंख्येया उत्स—मु.।
- ↑ –भागा असंख्येया उत्स—मु.।
- ↑ भाव: उक्तं च—मिच्छे खलु ओदइओ विदिए पुण पारिणामिओ भावो। मिस्से खओवसमिओ अविरदसम्मम्मि तिण्णेव।।1।। असं—मु.।
- ↑ सासादनसम्यक्त्व यह दर्शनमोहनीय कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपयशमसे नहीं होता इसलिए निष्कारण होनेसे पारिणामिक भाव है।
- ↑ सम्यग्मिथ्यात्वकर्मका उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक मिला हुआ जीव परिणाम होता है। उसमें श्रद्धानांश सम्यक्त्व अंश है। सम्यग्मिथ्यात्व कर्मका उदय उसका अभाव करनेमें असमर्थ है इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व यह क्षायोपशमिक भाव है।
- ↑ यों तो ये भाव दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीयके उदयादिकी अपेक्षा बतलाये गये हैं। किन्तु अभव्यों के ‘अभव्यत्व भाव क्या है’ इसकी अपेक्षा भावका निर्देश किया है। यद्यपि इससे क्रम भंग हो जाता है तथापि विशेष जानकारीके लिए ऐसा किया है। उनका बन्धन सहज ही अत्रुट्यत् सन्तानवाला होनेसे उनके पारिणामिक भाव कहा है यह इसका तात्पर्य है।
- ↑ –संयता संख्ये—मु.।
- ↑ –दृष्टय: असंख्ये—मु.।
- ↑ कमसे कम एक और अधिकसे अधिक चौवन।
- ↑ कमसे कम एक और अधिकसे अधिक एक सौ आठ।
- ↑ भाव:। इन्द्रियं प्रत्युच्यते। पंचेन्द्रियाद्येकेन्द्रियान्ता उत्तरोत्तरं बहव:। पंचे-मु.।
- ↑ भाव: कायं प्रत्युच्यते। सर्वतस्तेज:कायिका अल्पा:। ततो बहव: पृथिवीकायिका:। ततोऽप्यप्कायिका:। ततो वातकायिका:। सर्वतोऽनन्तगुणा वनस्पतय:। त्रस—मु.।
- ↑ दृष्टयोऽसंख्येयगुणा:। मति—मु.।
- ↑ –यता: संख्ये—मु.।
- ↑ –ष्टय: संख्ये-मु.।
- ↑ —दृष्टयोऽसंख्ये-मु.।
- ↑ संयता: संख्ये—मु.।
- ↑ दृष्टय: संख्ये—मु.।
- ↑ --दृष्टयोऽसंख्ये—मु.।
- ↑ –यता:संख्येय—मु.।
- ↑ यता:संख्ये--मु.।
- ↑ बहुत्वम्। विपक्षे एकैकगुणस्थानग्रहणात्। संज्ञा—मु.।