ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 23
From जैनकोष
305. इतरेषामिन्द्रियाणां स्वामित्वप्रदर्शनार्थमाह -
305. अब इतर इन्द्रियोंके स्वामित्वका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि।।23।।
कृमि, पिपीलिका, भ्रमर और मनुष्य आदिके क्रमसे एक-एक इन्द्रिय अधिक होती है।।23।।
306. ‘एकैकम्’ इति वीप्सायां द्वित्वम्। एकैकेन वृद्धानि एकैकवृद्धानि। कृमिमादिं[1] कृत्वा, स्पर्शनाधिकारात् स्पर्शनमादिं कृत्वा एकैकवृद्धानीत्यभिसंबन्ध: क्रियते। ‘आदि’ शब्द: प्रत्येकं परिसमाप्यते। कृम्यादीनां स्पर्शनं रसनाधिकम्, पिपीलिकादीनां स्पर्शनरसने घ्राणधिके, भ्रमरादीनां स्पर्शनरसनघ्राणानि चक्षुरधिकानि, मनुष्यादीनां तान्येव श्रोत्राधिकानीति यथा – संख्येनाभिसंबन्धो व्याख्यात:। तेषां निष्पत्ति: स्पर्शनोत्पत्त्या व्याख्याता उत्तरोत्तरसर्वघातिस्पर्धकोदयेन।
306. ‘एकैकम्’ यह वीप्सामें द्वित्व है। इन्द्रियाँ एक-एकके क्रमसे बढ़ी हैं इसलिए वे ‘एकैकवृद्ध’ कही गयी हैं। ये इन्द्रियाँ कृमिसे लेकर बढ़ी हैं। स्पर्शन इन्द्रियका अधिकार है, अत: स्पर्शन इन्द्रियसे लेकर एक-एकके क्रमसे बढ़ी हैं इस प्रकार यहाँ सम्बन्ध कर लेना चाहिए। आदि शब्दका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध होता है। जिससे यह अर्थ हुआ कि कृमि आदि जीवोंके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। पिपीलिका आदि जीवोंके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं। भ्रमर आदि जीवोंके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं। मनुष्यादिकके श्रोत्र इन्द्रियके और मिला देनेपर पाँच इन्द्रियाँ होती हैं। इस प्रकार उक्त जीव और इन्द्रिय इनका यथाक्रमसे सम्बन्धका व्याख्यान किया। पहले स्पर्शन इन्द्रियकी उत्पत्तिका व्याख्यान कर आये हैं उसी प्रकार शेष इन्द्रियोंकी उत्पत्तिका व्याख्यान करना चाहिए। किन्तु उत्पत्तिके कारणका व्याख्यान करते समय जिस इन्द्रियकी उत्पत्तिके कारणका व्याख्यान किया जाय, वहाँ उससे अगली इन्द्रिय सम्बन्धी सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयके साथ वह व्याख्यान करना चाहिए।
पूर्व सूत्र
अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ --किस्यादिं आ.। –कृम्यादि दि. 1, दि. 2।