ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 40
From जैनकोष
338. तत्रैतत्स्याच्छल्यकवन्मुर्तिमद्द्रव्योपचितत्वात्संसारिणो जीवस्याभिप्रेतगतिरोध प्रसङ्ग इति ? तन्न; किं कारणम्। यस्मादुभे अप्येते -
338. शंका – जिस प्रकार कील आदि के लग जानेसे कोई भी प्राणी इच्छित स्थानको नहीं जा सकता उसी प्रकार मूर्तिक द्रव्यसे उपचित होनेके कारण संसारी जीवकी इच्छित गतिके निरोधका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ये दोनों शरीर –
अप्रतीघाते।।40।।
प्रतीघात रहित हैं।।40।।
339. मूर्तिमतो मूर्त्यन्तरेण व्याघात: प्रतीघात:। स नास्त्यनयोरित्यप्रतीघाते; सूक्ष्म[1]परिणामात् अर्य:पिण्डे तेजोऽनुप्रवेशवत्तैजसकार्मणयोर्नास्ति वज्रपटलादिषु व्याघात:। ननु च वैक्रियिकाहारकयोरपि नास्ति प्रतीघात: ? सर्वत्राप्रतीघातोऽत्र विवक्षित:। यथा तैजसकार्मणयोरालोकान्तात् सर्वत्र नास्ति प्रतीघात:, न तथा वैक्रियिकाहारकयो:।
339. एक मूर्तिक पदार्थका दूसरे मूर्तिक पदार्थके द्वारा जो व्याघात होता है उसे प्रतीघात कहते हैं। इन दोनों शरीरोंका इस प्रकारका प्रतीघात नहीं होता, इसलिए ये प्रतीघात रहित हैं। जिस प्रकार सूक्ष्म होनेसे अग्नि लोहेके गोलेमें प्रवेश कर जाती है। उसी प्रकार तैजस और कार्मण शरीरका वज्रपटलादिकमें भी व्याघात नहीं होता । शंका – वैक्रियिक और आहारक शरीरका भी प्रतीघात नहीं होता फिर यहाँ तैजस और कार्मण शरीरको ही अप्रतीघात क्यों कहा ? समाधान – इस सूत्रमें सर्वत्र प्रतीघातका अभाव विवक्षित है। जिस प्रकार तैजस और कार्मण शरीरका लोक पर्यन्त सर्वत्र प्रतीघात नहीं होता वह बात वैक्रियिक और आहारक शरीरकी नहीं है।
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- ↑ --परिमाणात् मु.।