ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 9
From जैनकोष
272. तद्भेदप्रदर्शनार्थमाह -
272. अब उपयोग के भेद दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
स द्विविधोऽष्टचतुर्भेद:।।9।।
वह उपयोग दो प्रकारका है – ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है और दर्शनोपयोग चार प्रकार का है।।9।।
273. स उपयोगो द्विविध: - ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति। ज्ञानोपयोगोऽष्टभेद: - मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं केवलज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं चेति। दर्शनोपयोगश्चतुर्विध: - चक्षुर्दर्शनमचक्षुदर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति। तयो: कथं भेद: ? साकारानाकारभेदात्। साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शमिति। तच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते। निरावरणेषु युगपत् पूर्वकालभाविनोऽपि दर्शनाज्ज्ञानस्य प्रागुपन्यास:; अभ्यर्हितत्वात्। सम्यग्ज्ञानप्रकरणात्पूर्वं पञ्चविधो ज्ञानोपयोगो व्याख्यात:। इह पुनरुपयोगग्रहणाद्विपर्ययोऽपि गृह्यते इत्यष्टविध[1] इति उच्यते।
273. वह उपयोग दो प्रकार का है, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है – मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान। दर्शनोपयोग चार प्रकार का है – चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। शंका – इन दोनों उपयोगों में किस कारणसे भेद है ? समाधान – साकार और अनाकार के भेद से इन दोनों उपयोगों में भेद है। साकार ज्ञानोपयोग है और अनाकार दर्शनोपयोग है। ये दोनों छद्मस्थों में क्रम से होते हैं ओर आवरणरहित जीवों में युगपत् होते हैं। यद्यपि दर्शन पहले होता है तो भी श्रेष्ठ होनेके कारण सूत्र में ज्ञान को दर्शन से पहले रखा है। सम्यग्ज्ञान का प्रकरण होने के कारण पहले पाँच प्रकार के ज्ञानोपयोग का व्याख्यान कर आये हैं। परन्तु यहाँ उपयोग का ग्रहण करने से विपर्यय का भी ग्रहण होता है, इसलिए वह आठ प्रकार का कहा है।
विशेषार्थ – यहाँ जीव का लक्षण उपयोग बतलाकर उसके भेदों की परिगणना की गयी है। उपयोग के मुख्य भेद दो हैं – ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ये दोनों प्रकार के उपयोग सब जीवों के पाये जाते हैं। इनके अवान्तर भेद कई हैं जो निमित्तविशेषसे होते हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण के अवान्तर भेदों का यथायोग्य क्षयोपशम और क्षय तथा दर्शनमोहनीय का उदयादि ये प्रधान निमित्त हैं। इनके कारण दोनों प्रकार के उपयोग बारह भेदों में विभक्त हो जाते हैं। इस प्रकार ज्ञानोपयोग के आठ और दर्शनोपयोग के चार भेद प्राप्त होते हैं। मुख्यतया संसारी जीव के एक काल में एक उपयोग और केवली के दो उपयोग होते हैं। पर नाना जीवों की अपेक्षा परिगणना करने पर वे बारह होते हैं। यद्यपि प्रथम अध्याय में एक जीव के एक साथ चार ज्ञान बतला आये हैं और जिसके एक साथ चार ज्ञान होंगे उसके उसी समय तीन दर्शन भी पाये जायेंगे, पर यह कथन क्षयोपशम की प्रधानता से किया गया जानना चाहिए। एक जीव के एक काल में मतिज्ञानावरण आदि चार ज्ञानावरण और चक्षुदर्शनावरण आदि तीन दर्शनावरण - इन सात कर्मों का क्षयोपशम हो सकता है पर तत्त्वत: उनके उस समय उपयोग एक ही होगा। क्षयोपशम ज्ञानोत्पत्ति और दर्शनोत्पत्ति में निमित्त है और उपयोग ज्ञान दर्शन की प्रवृत्ति है। जीव में ज्ञान और दर्शन गुण की धारा निरन्तर प्रवर्तित होती रहती है। वह जिस समय बाह्य और अन्तरंग जैसा निमित्त मिलता है उसके अनुसार काम करने लगती है। इतना अवश्य है कि संसार अवस्था में वह मलिन, मलिनतर और मलिनतम रहती है और कैवल्य लाभ होने पर वह विशुद्ध हो जाती है फिर उसकी प्रवृत्ति के लिए अन्तरंग व बाह्य कारण अपेक्षित नहीं रहते। यही कारण है कि यहाँ जीव का लक्षण उपयोग कहा है।
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सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ --विषं उच्यते दि. 2, मु.।