ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 34
From जैनकोष
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! तीर्थकर भगवान् अपने वंश में उत्पन्न होने वाले हैं यह सुनकर कुमार वसुदेव बहुत ही हर्षित हुए और उन्होंने उसी समय अतिमुक्तक मुनिराज को नमस्कार कर इस प्रकार पूछा कि हे नाथ! हरिवंश के तिलक स्वरूप जिनेंद्र भगवान् किस प्रकार होंगे ? मैं उनका चरित सुनना चाहता हूँ । कुमार वसुदेव के इस प्रकार कहने पर अतिमुक्तक मुनिराज कहने लगे ॥1-2॥
इसी जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के दक्षिण तट पर सुपद्मा नाम का देश है । उसमें सिंहपुर नाम का नगर है और उसमें किसी समय राजा अर्हद̖दास रहता था जो अत्यंत योग्य था ॥3॥ जिनेंद्र भगवान् की महापूजा करने वाली जिनदत्ता उसकी स्त्री थी । एक बार उसने लक्ष्मी, हाथी, सिंह, सूर्य और चंद्रमा ये पांच शुभ स्वप्न देखने के बाद उत्तम पुत्र प्राप्त किया ॥4॥ चूंकि वह पुत्र दूसरों के द्वारा कभी पराजित नहीं होता था इसलिए माता-पिता ने उसका अपराजित नाम रखा । अपराजित आकाश और पृथिवी दोनों में ही अत्यंत प्रसिद्ध था ॥ 5 ॥ यौवन काल आने पर अपराजित ने चक्रवर्ती की पवित्र गुणों की माला से सहित, प्रीतिमती नाम की माननीय कन्या के साथ विवाह किया ॥6॥ इसके सिवाय जो परस्पर एक दूसरे की शोभा का उल्लंघन कर रही थीं, माननीय थीं एवं गुणरूपी आभूषणों से सुशोभित थीं ऐसी सौभाग्य शालिनी एक हजार कन्याएँ उसे और भी क्रीड़ा कराती थीं ॥7॥ किसी एक दिन राजा अर्हद̖दास, मनोहर नामक वन में देवों के द्वारा वंदनीय विमलवाहन भगवान् की वंदना करने के लिए अपने पुत्र सहित गया ॥8॥ उपदेश से प्रभावित होकर राजा अर्हद्दास ने पाँच सौ राजाओं के साथ उन्हीं भगवान् के समीप दीक्षा ली । पिता के दीक्षा लेने के बाद युवराज अपराजित ने राज्य एवं निर्मल सम्यग्दर्शन धारण किया ॥9॥ एक दिन अपराजित ने सुना कि गंधमादन पर्वत पर जिनेंद्र विमलवाहन और पिता अर्हद̖दास को मोक्ष प्राप्त हो गया है । यह सुनकर उसने तीन दिन का उपवास कर निर्वाण भक्ति की ॥ 10 ॥ एक बार राज अपराजित, कुबेर के द्वारा समर्पित जिन-प्रतिमा एवं चैत्यालय में विराजमान अर्हत प्रतिमा की पूजा कर उपवास का नियम ले मंदिर में बैठा हुआ अपनी स्त्रियों के लिए धर्मोपदेश कर रहा था ॥11॥ कि उसी समय दो चारणऋद्धिधारी मुनिराज आकाश से नीचे उतरे । जब दोनों मुनिराज पृथ्वीतल पर सुख से विराजमान हो गये तब राजा अपराजित ने हाथ जोड़ नमस्कार कर उनसे इस प्रकार पूछा― ॥12॥
हे नाथ ! वैसे तो जैनधर्म के साधुओं को देखकर मुझे अकृत्रिम-स्वाभाविक आनंद होता ही है परंतु आप दोनों के दर्शन कर आज अपूर्व ही आनंद हो रहा है तथा मेरा स्वाभाविक स्नेह उमड़ पडा है सो इसका कारण क्या है ? ॥13॥ उन मुनियों में जो बड़े मुनि थे वे अपनी वाणी से अमृत झराते हुए के समान बोले कि हे राजन् ! पूर्वभव का संबंध ही स्नेह की अधिकता को प्रकट करने वाला है । मैं पूर्वभव का संबंध कहता हूँ सो सुनो-― ॥14॥
पश्चिम पुष्करार्ध के पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो रूप्याचल है उसकी उत्तर श्रेणी में एक गण्यपुर नाम का नगर है ॥15॥ उस नगर का स्वामी सूर्याभ था जो सचमुच ही सूर्याभ-सूर्य के समान आभा वाला था और धारिणी उसकी स्त्री थी जो दूसरी धारिणी-पृथिवी के समान जान पड़ती थी और आर्य तथा अत्यंत सुंदरी थी ॥16॥ उन दोनों के चिंतागति, मनोगति और चपलगति नाम के तीन पुत्र थे । जो अतिशय वेगशाली, स्नेहवान् और उत्तम पराक्रम से युक्त थे ॥17॥ उसी समय अरिंजयपुर में राजा अरिंजय रहता था उसकी अजितसेना नाम की स्त्री थी और उससे उसके प्रीतिमती नाम की उत्तम कन्या उत्पन्न हुई थी ॥18॥ प्रीतिमती को अनेक विद्याएँ सिद्ध थीं, वह अत्यंत प्रसिद्ध थी और स्त्री पर्याय की सदा निंदा करती रहती थी । एक दिन उसने अपने पिता से कहा कि हे पिताजी ! मुझे एक इच्छित वर दीजिए ꠰꠰19॥ पिता कन्या के भाव को जानता था इसलिए उसने कहा कि तप के सिवाय और जो कुछ वर तुझे इष्ट हो सो मांग ले । पिता का उत्तर सुनकर प्रीतिमती ने कहा कि हे पिताजी! यदि तप करने का वर आप नहीं देते हैं तो यह वर मुझे अवश्य दीजिए कि गतियुद्ध में जीतने वाले के लिए ही मैं दी जाऊं ॥20-21॥ तथास्तु कहकर पिता ने कन्या का वर स्वीकृत कर लिया और गति युद्ध में जीतने की इच्छा से अपनी कन्या का स्वयंवर रचकर उसमें विद्याधरों को आमंत्रित किया ॥ 22 ॥ तदनंतर जब सब विद्याधर आ गये तब कन्या के पिता ने सबको लक्ष्य बनाते हुए कहा कि आप लोगों में जो भी समर्थ हो वह मेरी पुत्री के लिए गतियुद्ध का अवसर देवे ॥ 23 ॥ गतियुद्ध का रूप यह है कि वर और कन्या जो भी, मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देकर तथा श्री जिनेंद्र देवकी पूजा कर सबसे पहले वापस आ जावेगा उसी एक की जीत समझी जावेगी ॥24॥ इस प्रकार अत्यंत वेग से गमन करने वाले जिस वीर के द्वारा गतियुद्ध में यह कन्या जोती जावेगी मेरे मनोरथ को पूर्ण करने वाले उसी वीर के द्वारा यह कन्या विवाहने योग्य है ॥ 25 ॥ यह सुनकर अन्य विद्याधर उसे अधिक विद्यावती जान चुप-चाप बैठे रहे परंतु विद्या के वेग से उद्यत धारिणी के पुत्र चिंतागति, मनोगति और चपलगति गतियुद्ध करने के लिए उठकर खड़े हो गये ॥ 26 ॥ तदनंतर मन के साथ-साथ परिकर बाँधकर जब सब तैयार हो गये तब मध्यस्थता को प्राप्त हुए लोगों ने हाथ हिलाकर उन्हें छोड़ा ॥ 27 ॥ अहंकार से वे चारों व्यक्ति अपने वेग से वायु के वेग को रोकते हुए, मेरु को लक्ष्य कर आकाश में दौड़े और आधे मार्ग तक तो साथ-साथ दौड़ते रहे परंतु उसके बाद कन्या ने उन्हें पीछे छोड़ दिया और वह मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देकर तथा भद्रशालवन में विद्यमान जिन-प्रतिमाओं की पूजा कर पहले वापस लौट आयी ॥28-29 ॥ वेग के श्रम से उत्पन्न पसीना के कणों से जो मोतियों के समान सुशोभित हो रही थी ऐसो कन्या ने आकर पिता के लिए नमस्कार किया एवं पूजा के शेषाक्षत भेंट किये । पुत्री को विजय से पिता को अधिक हर्ष हुआ ॥ 30 ॥
तदनंतर गतियुद्ध में जिसे विजय प्राप्त हुई थी और इस लोक संबंधी भोगों की इच्छा जिसकी छूट चुकी थी ऐसी कन्या प्रीतिमती के लिए पिता ने तप धारण करने की अनुमति दे दी । जिससे उसने व्रतों के समूह से सुशोभित हो निर्वृत्ति नामक आर्यिका के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥31 ॥ गतियुद्ध में प्रीतिमती के द्वारा पराजित चिंतागति आदि तीनों भाइयों ने भी दमवर मुनिराज के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥32॥ आयु के अंत में तीनों भाई माहेंद्र स्वर्ग के अंतिम पटल में सात सागर को आयु प्राप्त कर सामानिक जाति के देव हुए और वहाँ के दिव्य सुख का उपभोग करने लगे ॥33 ॥ तदनंतर हे राजन् ! पुष्कलावती देश के विजयार्ध की उत्तर श्रेणी में जो गगनवल्लभ नाम का नगर है उसमें राजा गगनचंद्र रहते हैं और उनकी स्त्री का नाम गगनसुंदरी है । मध्यम तथा छोटे भाई के जीव माहेंद्र स्वर्ग से च्युत होकर उनके क्रम से हम अमितवेग और अमिततेज नामक पुत्र हुए हैं ॥34-35 ॥ पुंडरीकिणी नगरी में स्वयं प्रभ जिनेंद्र के समीप दीक्षा लेकर उनसे हमने अपने पूर्व भव सुने । हे राजन् ! हमें स्वयंप्रभ जिनेंद्र ने बताया कि तुम्हारे बड़े भाई चिंतागति का जीव माहेंद्र स्वर्ग से पूर्व ही च्युत होकर यहाँ अपराजित राजा हुआ है सो उसे देखने के लिए हम दोनों आये हैं ॥36-37॥ हे अपराजित ! तुम इससे पांचवें भव में भरतक्षेत्र के हरिवंश नामक महावंश में अरिष्टनेमि नामक तीर्थंकर होओगे ॥38॥ इस समय तुम्हारी आयु एक माह की शेष रह गयी है इसलिए आत्महित करो । यह कहकर तथा राजा अपराजित से पूछकर दोनों मुनिराज विहार कर गये ॥ 39 ॥ चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के श्रवण करने योग्य वचन सुनकर राजा अपराजित हर्षित होता हुआ भी चिरकाल तक इस बात की चिंता करता रहा कि अहो ! मेरा तप करने का समय व्यर्थ ही निकल गया ॥ 40 ॥ वह आठ दिन तक जिनेंद्र भगवान की पूजा करता रहा और अंत में प्रीतिकर नामक पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर शरीरादि से निःस्पृह हो गया ॥41 ॥ तत्पश्चात् प्रायोपगमन संन्यास से सुशोभित बाईस दिन रात तक चारों आराधनाओं की आराधना कर वह अच्युत स्वर्ग में बाईस सागर को आयु का धारक इंद्र पद को प्राप्त हुआ ॥ 42 ॥ वहाँ से चयकर नागपुर में श्रीचंद्र और श्रीमती के सुप्रतिष्ठ नाम का पुत्र हुआ । वह सुप्रतिष्ठ जिनेंद्रमत की भावना से युक्त था ॥ 43 ॥ राजा श्रीचंद्ररूपी चंद्रमा, सुप्रतिष्ठ पुत्र को राज्यसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर सुमंदिर नामक गुरु के पास दीक्षा ले मोक्ष चले गये ।꠰ 44 ।꠰ एक दिन राजा सुप्रतिष्ठ ने मासोपवासी यशोधर मुनिराज के लिए दान देकर रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्य प्राप्त किये ॥45॥
कदाचित् राजा सुप्रतिष्ठ कार्तिक की पूर्णिमा की रात्रि में अपनी आठ सौ स्त्रियों से वेष्टित हो महल की छत पर बैठा था । उसी समय आकाश से उल्कापात हुआ । उसे देख वह राज्यलक्ष्मी को उल्का के समान ही क्षणभंगुर समझने लगा । इसलिए अपनी सुनंदा रानी के पुत्र सुदृष्टि के लिए राज्यलक्ष्मी देकर उसने सुमंदिर नामक महागुरु के समीप दीक्षा ले ली ॥ 46-47॥ राजा सुप्रतिष्ठ के साथ, सूर्य के समान तेजस्वी चार हजार राजाओं ने भी उग्र तप धारण किया था ॥48॥ मुनिराज सुप्रतिष्ठ ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य की वृद्धि से युक्त हो आलस्य छोड़ गूढार्थ सहित ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो का अध्ययन किया तथा सर्वतोभद्र को आदि लेकर सिंह निष्क्रीडित पर्यंत के विशिष्ट तपों से अपने शरीर को विभूषित किया ॥49-50 ॥ हे यादव ! श्रवण मात्र से भी पापों को नष्ट करने वाली, उन उपवासों को महा विधि, मैं तेरे लिए कहता हूँ सो तू क्षण-भर के लिए मन स्थिर कर सुन ॥51॥
सर्वतोभद्र― पाँच भंग का एक चौकोर प्रस्तार बनावे और एक से लेकर पाँच तक के अंक उसमें इस तरह भरे कि सब ओर से गिनने पर पंद्रह-पंद्रह उपवासों की संख्या निकल आवे । इन पंद्रह उपवासों में पाँच भंगों का गुणा करने से उपवासों की संख्या पचहत्तर और पांच पारणाओं में पाँच भंगों का गुणा करने से पारणाओं को संख्या पचीस निकलती है । यह सर्वतोभद्र नाम का उपवास है तथा इसकी विधि यह है कि एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा और पांच उपवास एक पारणा । इसी प्रकार आगे के भंगों में भी समझना चाहिए । यह सर्वतोभद्र व्रत सौ दिन में होता है और निर्वाण तथा स्वर्गादिक की प्रतिरूप समस्त कल्याणों को प्रदान करता है ॥52-55 ॥
वसंतभद्र― एक सीधी रेखा में पाँच से लेकर नौ तक अंक लिखे । उन सबका जोड़ पैंतीस होता है । इस प्रकार वसंतभद्र व्रत में 35 उपवास होते हैं । उनका क्रम यह है कि पांच उपवास एक पारणा, छह उपवास एक पारणा, सात उपवास एक पारणा, आठ उपवास एक पारणा और नौ उपवास एक पारणा । इस व्रत में उपवासों के 35 और पारणाओं के 5 इस तरह चालीस दिन लगते हैं ॥56॥
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सर्वतोभद्रयंत्रम |
वसंतभद्रयंत्रम् |
उपवास 1 2 3 4 5 |
उपवास 5 6 7 8 9 |
पारणा 1 1 1 1 1 |
पारणा 1 1 1 1 1 |
उपवास 4 5 1 2 3 |
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पारणा 1 1 1 1 1 |
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उपवास 2 3 4 5 1 |
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पारणा 1 1 1 1 1 |
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उपवास 5 1 2 3 4 |
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पारणा 1 1 1 1 1 |
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उपवास 3 4 5 2 1 |
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पारणा 1 1 1 1 1 |
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महासर्वतोभद्र ― सात भंगों वाला एक चौकोर प्रस्तार बनावे । उसमें एक से लेकर सात तक के अंक इस रीति से लिखे कि सब ओर से संख्या का जोड़ अट्ठाईस-अट्ठाईस आवे । एक-एक भंग में अट्ठाईस-अट्ठाईस उपवास और सात-सात पारणाएँ होती हैं । सातों भंगों को मिलाकर एक सौ छियानवे उपवास और उनचास पारणाएं होती हैं । इसके उपवास और पारणाओं की विधि पहले के समान जानना चाहिए । यह महासर्वतोभद्र नाम का व्रत कहलाता है तथा सब प्रकार के कल्याणों का करने वाला है । इसमें दो सौ पैंतालीस दिन लगते हैं ॥ 57-58॥
त्रिलोकसारविधि― जिसमें नीचे से पाँच से लेकर एक तक, फिर दो से लेकर चार तक और उसके बाद तीन से लेकर एक तक बिंदु रखी जावें वह त्रिलोकसार विधि है । इसका प्रस्तार तीन लोक के आकार बनाना चाहिए । इसमें तीस धारणाएँ अर्थात् तीस उपवास और ग्यारह पारणाएँ होती हैं । उनका क्रम यह है पाँच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा और एक उपवास एक पारणा । इस विधि में इकतालीस दिन लगते हैं । इस विधि का फल कोष्ठ बीज आदि ऋद्धियां तथा तीन लोक के शिखर पर तीन लोक का सारभूत मोक्ष सुख का प्राप्त होना है ॥ 59-61 ॥
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महासर्वतोभद्रयंत्रम् |
त्रिलोकसारविधियंत्रम् |
उपवास 1 2 3 4 5 6 7 |
पारणा 1 1 1 1 1 1 1 |
पारणा 1 1 1 1 1 1 1 |
उपवास 2 3 4 5 6 7 1 |
उपवास 3 4 5 6 7 1 2 |
पारणा 1 1 1 1 1 1 1 0 0 0 0 |
पारणा 1 1 1 1 1 1 1 0 0 0 0 |
उपवास 4 5 6 7 1 2 3 0 0 0 0 0 |
उपवास 5 6 7 1 2 3 4 0 0 0 |
पारणा 1 1 1 1 1 1 1 |
पारणा 1 1 1 1 1 1 1 |
उपवास 6 7 1 2 3 4 5 |
उपवास 7 1 2 3 4 5 6 |
पारणा 1 1 1 1 1 1 1 |
वज्रमध्यविधि― जिसमें आदि और अंत में पांच-पाँच तथा बीच में घटते-घटते एक बिंदु रह जाये वह वज्रमध्यविधि है । इसमें जितनी बिंदुएँ हैं उतने उपवास और जितने स्थान हैं उतनी पारणाएँ जानना चाहिए । इनका क्रम इस प्रकार है― पाँच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा एक उपवास एक पारणा दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा और पाँच उपवास एक पारणा । इस व्रत में उनतीस उपवास और नौ पारणाएं होती हैं तथा अड़तीस दिन में समाप्त होता है । इंद्र, चक्रवर्ती और गणधर का पद, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, प्रज्ञाश्रमणऋद्धि और मोक्ष का प्राप्ति होना इस वज्रमध्यविधि का फल है ॥62-63॥
मृदंगमध्यविधि― जिसमें दो से लेकर पाँच तक और चार से लेकर दो तक बिंदुएँ रखी जावें वह मृदंगाकार प्रस्तार से युक्त मृदंगमध्यविधि है । इसमें जितनी बिंदुएँ हैं उतने उपवास और जितने स्थान हैं उतनी पारणाएं जानना चाहिए । इनका क्रम यह है― दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा और दो उपवास एक पारणा । इस प्रकार इस व्रत में तेईस उपवास और सात पारणाएं होती हैं तथा तीस दिन में समाप्त होता है । क्षीरस्रावित्व, अक्षीणमहानस आदि ऋद्धियाँ, अवधिज्ञान और अंत में मोक्ष प्राप्त होना इस व्रत का फल है ॥64-65॥
<tbody> </tbody>
वज्रमध्यविधियंत्रम् |
मृदंगमध्यविधियंत्रम् |
0 0 0 0 0 0 00000 |
0000000000000000 |
000 0 0 0 0 0 0 |
0 0 0 0 0 0 0 0 |
मुरजमध्यविधि― जिसमें पांच से लेकर दो तक, दो से लेकर पांच तक बिंदुएं हों वह मुरजमध्यविधि कहलाती है । इसमें जितनी बिंदुएं हों उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं समझनी चाहिए । इनका क्रम यह है कि पांच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा और पांच उपवास एक पारणा है । इस प्रकार इसमें अट्ठाईस उपवास और आठ पारणाएं हैं तथा छत्तीस दिन में समाप्त होता है । इसका फल मृदंग मध्यविधि के समान है ॥66॥
एकावलीविधि― जिसमें चौबीस उपवास और चौबीस पारणा हों वह एकावली विधि है । इसमें एक उपवास तथा एक पारणा के क्रम से चौबीस उपवास और चौबीस पारणाएँ होती हैं । यह व्रत अड़तालीस दिन में समाप्त होता है तथा अखंड सुख की प्राप्ति होना इसका फल है ॥67॥
मुरजमध्यविधियंत्रम् 000000000 00000 00 000 0 0 0 0 0 0 0 0 0 एकावलीयंत्रम्
द्विकावलीविधि― जिसमें अड़तालीस वेला और अड़तालीस पारणाएँ हों वह द्विकावली विधि कही गयी है । यह दोनों लोकों में सुख को देने वाली है । इसमें एक वेला के बाद एक पारणा होती है । यह व्रत छयानवे दिन में पूर्ण होता है ॥68॥
द्विकावलीयंत्रम 2 2 2 2 2 22 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 22
मुक्तावली विधि― जिसमें एक से लेकर पांच तक और चार से लेकर एक तक बिंदुएँ हों वह मुक्तावली विधि है । यह मोतियों की माला के समान प्रसिद्ध है । इसमें जितनी बिंदुए हैं उतने उपवास और जितने स्थान हैं उतनी पारणाएं होती हैं । इस प्रकार इस व्रत में पचीस उपवास और नौ पारणाएँ होती हैं । उनका क्रम यह है― एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, पांच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, और एक उपवास एक पारणा । यह व्रत चौंतीस दिन में पूर्ण होता है । इसका साक्षात् फल यह है कि इस व्रत को करते ही मनुष्य समस्त लोगों का अलंकारस्वरूप श्रेष्ठ हो जाता है और अंत में सिद्धालय की प्राप्तिस्वरूप आत्यंतिक फल की प्राप्ति होती है ॥69-70॥
रत्नावलीविधि― जिसमें एक से लेकर पाँच तक और पांच से लेकर एक तक बिंदुएं हों वह रत्नावली विधि है । इसका फल रत्नावली के समान अनेक गुणों की प्राप्ति होना है । इसमें जितनी बिंदुएं हों उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जानना चाहिए । उनका क्रम यह है― एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा और एक उपवास एक पारणा । इस प्रकार इसमें तीस उपवास और दस पारणाएं होती हैं । यह व्रत चालीस दिन में पूर्ण होता है ॥71॥
मुक्तावलीविधियंत्रम् रत्नावलीविधियंत्रम् 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0
रत्नमुक्तावलीविधि― एक ऐसा प्रस्तार बनाया जावे जिसमें रूप अर्थात् एक-एक का अंतर देते हुए एक से लेकर पंद्रह तक के अंक लिखे जावें । उसके आगे एक-एक का अंतर देकर सोलह लिखे जावें और उसके आगे एक-एक का अंतर देते हुए एक-एक कम कर अंत में एक आ जावे वहाँ तक लिखे । इसमें प्रारंभ में प्रथम अंक से दूसरा अंक लिखते समय बीच में और अंत में दो से प्रथम अंक लिखते समय बीच में पुनरुक्त होने के कारण एक का अंतर नहीं देवे । इस व्रत में सब अंकों का जोड़ करने पर दो सौ चौरासी उपवास और उनसठ पारणाएं होती हैं । उस उपवास में तीन सौ तैंतालीस दिन लगते हैं । इसका फल रत्नत्रय की प्राप्ति है । इसकी विधि यह है कि एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, एक उपवास एक पारणा आदि ॥72-73॥
कनकावलीविधि― जिसमें एक का अंक, दो का अंक, नौ बार तीन का अंक, फिर एक से लेकर सोलह तक के अंक, फिर चौंतीस बार तीन के अंक, सोलह से लेकर एक तक के अंक, नौ बार तीन के अंक तथा दो और एक का अंक लिखा जावे अर्थात् इस क्रम से चार सौ चौंतीस उपवास और अठासी पारणाएं की जावें वह कनकावली व्रत है । लौकांतिक देव पद की प्राप्ति होना अथवा संसार का अंत कर मोक्ष प्राप्त करना इस व्रत का फल है । इसका क्रम यह है कि एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा आदि । इस व्रत के उपवासों की गणना निकालने की दूसरी विधि यह है कि एक से लेकर सोलह तक दो बार संख्या लिखे और उसे आपस में
रत्नमुक्तावलीयंत्रम् 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 12 13 14 15 16 17 18 19 110111112 113 114115 116 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 115 114113 1121111101 918171 6 1 5 14 13 121
कनकावलीयंत्रम 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 11 1 1 1 1 1 1 123 3 3 3 3 3 3 3 3 1 2 3 4 5 6 7 8 91011 12 13 141516 3 3 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1, 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 । 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 33 3 3 316151413 121110 9876 543 2 1 3 3 33 3 3 3 3 3 2 1 2
जोड़ देने पर जितनी संख्या हो उसमें चौवन के तिगुने एक सौ बासठ और मिला दें । ऐसा करने से चार सौ चौंतीस उपवास निकल आते हैं और अठासी स्थान होने से अठासी पारणाएँ होती हैं । इस कनकावली विधि में एक वर्ष पाँच मास और बारह दिन लगते हैं ॥74-75॥
दूसरे प्रकार की रत्नावलीविधि― जिसमें रत्नों के हार के समान एक प्रस्तार बनाकर बायीं ओर पहले बेला का सूचक दो बिंदुओं का एक द्विक लिखे, फिर दो बेलाओं के सूचक दो द्विक लिखे, फिर तीन बेलाओं के सूचक तीन द्विक लिखे, फिर चार बेलाओं के सूचक चार द्विक लिखे । इसके आगे एक उपवास की सूचक एक बिंदु लिखे, उसके बाद दो उपवासों की सूचक दो बिंदुएँ बराबरी पर लिखे । तदनंतर इसके आगे इसी प्रकार तीन आदि उपवासों की सूचक सोलह तक बिंदुएं रखे । फिर वे बायीं ओर से दाहिनी ओर गोलाकार बढ़ते हुए बत्तीस बेलाओं के बत्तीस द्विक लिखे और उनके नीचे चार बेलाओं के सूचक चार द्विक लिखे । तीस द्विक के ऊपर सोलह आदि उपवासों के सचक सोलह से लेकर एक तक बराबरी पर सोलह पंद्रह आदि बिंदुएँ रखे । और उसके आगे आठ बेलाओं के सचक आठ द्विक, तीन बेलाओं के सूचक तीन द्विक, दो बेलाओं के सूचक दो द्विक तथा एक बेला का सूचक एक द्विक लिखे । इस व्रत में छप्पन द्विक के द्विगुणित एक सौ बारह तथा दोनों ओर की षोडशियों के दो सौ बहत्तर इस प्रकार सब मिलाकर तीन सौ चौरासी उपवास और अठासी स्थानों के अठासी भक्तिकाल होते हैं । यह व्रत एक वर्ष तीन माह और बाईस दिन में पूरा होता है तथा रत्नत्रयरूपी तेज को बढ़ाने वाला है अर्थात् इस व्रत के फलस्वरूप रत्नत्रय में निर्मलता आती है । इसकी विधि इस प्रकार है-एक बेला एक पारणा, एक बेला एक पारणा, इस क्रम से दश बेला दश पारणा, फिर एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा इस क्रम से सोलह उपवास तक बढ़ाना चाहिए । फिर एक बेला एक पारणा इस क्रम से तीस बेला तीस पारणा, फिर षोडशी के सोलह उपवास एक पारणा, पंद्रह उपवास एक पारणा, इस क्रम से एक उपवास एक पारणा तक आना चाहिए । फिर एक बेला एक उपवास के क्रम से बारह बेला और बारह पारणाएं तत्पश्चात् नीचे के चार बेला और चार पारणाएं करनी चाहिए ॥76-77॥
द्वितीयरत्नावलीयंत्रम्
सिहनिष्क्रीडितविधि― सिंहनिष्क्रीडितव्रत जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है, उनमें हीन अर्थात् जघन्य सिंहनिष्क्रीडित व्रत का क्रम इस प्रकार है । एक ऐसा प्रस्तार बनावे जिसमें एक से लेकर पाँच तक के अंक दो-दो बार आ जावें तथा वे पहले के अंकों में दो-दो अंकों की सहायता से एक-एक बढ़ता और घटता जाये इस रीति से लिखे जावें । पुनः पांच से लेकर एक तक के अंक भी दो-दो बार पूर्वोक्त क्रम से लिखे जावें । समस्त अंकों का जोड़ करने पर जितनी संख्या हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जानना चाहिए । इस व्रत के प्रस्तार का आकार यह है
1 2 1 3 2 4 3 5 4 5 5 4 5 3 4 2 3 1 2 1
इसमें पहले एक उपवास एक पारणा और दो उपवास एक पारणा करना चाहिए । फिर दो में से एक उपवास का अंक घट जाने से एक उपवास एक पारणा, दो में एक उपवास का अंक बढ़ जाने से तीन उपवास एक पारणा; तीन में एक उपवास का अंक घट जाने से दो उपवास एक पारणा, तीन में एक उपवास का अंक बढ़ जाने से चार उपवास एक पारणा, चार में से एक उपवास का अंक घट जाने से तीन उपवास एक पारणा, चार में एक उपवास का अंक बढ़ जाने से पांच उपवास एक पारणा, पाँच में से एक उपवास का अंक घटा देने पर चार उपवास एक पारणा, चार में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर पाँच उपवास एक पारणा होती है । यहाँ पर अंत में पाँच का अंक आ जाने से पूर्वार्ध समाप्त हो जाता है । आगे उलटी संख्या से पहले पाँच उपवास एक पारणा करनी चाहिए । पश्चात् पाँच में से एक उपवास का अंक घटा देने पर चार उपवास एक पारणा, चार में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर पाँच उपवास एक पारणा, चार में से एक उपवास का अंक घटा देने पर तीन उपवास एक पारणा, तीन में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर चार उपवास एक पारणा, तीन में से एक उपवास का अंक घटा देने पर दो उपवास एक पारणा, दो में एक उपवास का अंक बढ़ा देने से तीन उपवास एक पारणा, दो में से एक उपवास का अंक घटा देने पर एक उपवास एक पारणा, फिर दो उपवास एक पारणा और एक उपवास एक पारणा करना चाहिए । इस जघन्य सिंहनिष्क्रीडित व्रत में समस्त अंकों का जोड़ साठ होता है इसलिए साठ उपवास होते हैं और स्थान बीस है इसलिए पारणाएँ बीस होती हैं । यह व्रत अस्सी दिन में पूर्ण होता है ॥ 78॥
मध्यमसिंहनिष्क्रीडितविधि― मध्यमसिंहनिष्क्रीडितव्रत में एक से लेकर आठ अंक तक का प्रस्तार बनाना चाहिए और उसके शिखर पर नौ अंक लिखना चाहिए । उसके बाद उलटे क्रम से एक तक के अंक लिखना चाहिए । यहाँ भी जघन्यनिष्क्रीडित के समान दो-दो अंकों की अपेक्षा एक-एक उपवास का अंक घटाना-बढ़ाना चाहिए । इस रीति से लिखे हुए समस्त अंकों का जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएँ समझनी चाहिए । इस तरह इस व्रत में एक सौ त्रेपन उपवास और तैंतीस पारणाएं होती हैं । यह व्रत एक सौ छियासी दिन में पूर्ण होता है । इसका प्रस्तार इस प्रकार है― ꠰꠰79॥
1 2 1 3 2 4 3 5 4 6 5 7 6 8 7 8 9 8 7 8 6 7 5 6 4 5 3 4 2 3 1 2 1
उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडित विधि― उत्कृष्टसिंहनिष्क्रीडितव्रत में एक से लेकर पंद्रह तक के अंकों का प्रस्तार बनाना चाहिए और उसके शिखर में सोलह का अंक लिखना चाहिए । उसके बाद उलटे क्रम से एक तक के अंक लिखना चाहिए । यहां पर भी जघन्य और मध्यमसिंहनिष्क्रीडित के समान दो-दो अंकों की अपेक्षा एक-एक उपवास का अंक घटाना-बढ़ाना चाहिए । इस रीति से लिखे हुए समस्त अंकों का जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जाननी चाहिए । इस तरह इस व्रत में चार सौ छियानवे उपवास और इकसठ पारणाएं होती हैं । यह व्रत पाँच सौ सत्तावन दिन में पूर्ण होता है । इसका प्रस्तार इस प्रकार है― ॥80॥
1 2 1 3 2 4 3 5 4 6 5 7 6 8 7 9 810 9 11 10
12 11 13 12 14 13 15 14 15 16 15 14 15 13 14 12 13
1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1
11 12 10 11 9 10 8 9 7 8 6 7 5 6 4 5 3 3 2 3 1 2 1
विशेष― 78, 79, 80वें श्लोकों का एक सीधा-साधा अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है, विद्वज्जन इस पर विचार करें―
जघन्य सिंहनिष्क्रीडित विधि में एक से लेकर पांच तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखें और उसके बाद उलटे क्रम से पांच से एक तक के अंक दो-दो को संख्या में लिखें । दोनों ओर के सब अंकों का जोड़ कर देने पर साठ उपवास और बीस पारणाएँ होती हैं ॥ 78 ꠰꠰
मध्यमसिंहनिष्क्रीडित में एक से लेकर आठ तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखें और उनके ऊपर शिखर स्थान पर नौ का अंक लिखे फिर उलटे क्रम से एक तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखे । सब अंकों का जोड़ करने पर एक सौ त्रेपन उपवास और तैंतीस पारणाएं आती हैं ॥79॥
उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडित में एक से लेकर पंद्रह तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखे और उसके ऊपर शिखरस्थान पर सोलह का अंक लिखे फिर उलटे क्रम से एक तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखे सब अंकों का जोड़ करने पर चार सौ छियानवे उपवास और इकसठ पारणाएं होती हैं ।
इनके प्रस्तार इस क्रम से जानना चाहिए―
जघन्य सिंहनिष्क्रीडित 11 2 2 3 3 4 4 5 5 । 5 5 4 4 3 3 2 21 1
मध्यम सिंहनिष्क्रीडित 34455667788 8877665544332211
उत्कृष्टसिंहनिष्क्रीडिति 1111111111111111111 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 11223 3 4 45566778899 10 10 11 11 12 12 13 13 14 14 15 15 , 15 15 1414 13 13 12 12 11 11 1010998877665 5443 3 2211 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 111111111111111111
सिंहनिष्कीडितव्रत में कल्पना यह है कि जिस प्रकार सिंह किसी पर्वत पर क्रम-क्रम से चढ़ता हुआ उसके शिखर पर पहुंचता है और बाद में क्रम-क्रम से नीचे उतरता है उसी प्रकार मुनिराज क्रम-क्रम से उपवास करते हुए तप रूपी पर्वत के शिखर पर चढ़ते हैं और उसके बाद क्रम-क्रम से नीचे उतरते हैं ।
ग्रंथकर्ता ने तीनों प्रकार के सिंहनिष्क्रीडित व्रतों को संख्या और पारणा गिनने की एक सरल रीति यह भी बतलायी है कि जघन्यसिंहनिष्क्रीडित व्रत में एक से लेकर पाँच तक के अंक लिखकर सबको जोड़ ले फिर उसमें चार का गुणा कर दे । जैसे एक से लेकर पांच तक के अंकों का जोड़ पंद्रह होता है उसमें चार का गुणा करने पर उपवासों की संख्या साठ आती है । मध्यमसिंह निष्क्रीडित व्रत में एक से लेकर आठ तक के अंक लिखकर सबको जोड़ दे फिर उसमें चार का गुणा कर दे और शिखर के नौ अलग से जोड़ दे । जैसे-एक से लेकर आठ तक के अंकों का जोड़ छत्तीस होता है उसमें चार का गुणा करने पर एक सौ चवालीस आते हैं उसमें शिखर के नौ जोड़ देने पर उपवासों की संख्या एक सौ त्रेपन होती है । उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडित में एक से लेकर पंद्रह तक के अंक लिखकर उनका जो जोड़ हो उसमें चार का गुणा करे फिर शिखर के सोलह अलग से जोड़ दे । जैसे एक से पंद्रह तक के अंक का जोड़ एक सौ बीस होता है । उसमें चार का गुणा करने पर चार सौ अस्सी होते हैं । उसमें शिखर के सोलह जोड़ देने पर उपवासों की संख्या चार सौ छयानवै होती है ॥ 81॥ जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडित व्रतों की पारणाएं क्रम से बीस, तैंतीस और इकसठ होती हैं ॥82 ॥ इस व्रत के फलस्वरूप मनुष्य वज्रवृषभनाराच संहनन का धारक, अनंतवीर्य से संपन्न, सिंह के समान निर्भय और अणिमा आदि गुणों से युक्त होता हुआ शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है ॥ 83॥
नंदीश्वर व्रतविधि― नंदीश्वर द्वीप को एक-एक दिशा में चार-चार दधिमुख हैं इसलिए प्रत्येक दधिमुख को लक्ष्य कर मन की मलिनता को दूर करते हुए चार उपवास करना चाहिए । एक-एक दिशा में आठ-आठ रतिकर हैं इसलिए प्रत्येक रतिकर को लक्ष्य कर आठ उपवास करना चाहिए । एक-एक दिशा में एक-एक अंजनगिरि है इसलिए उसे लक्ष्य कर एक बेला करना चाहिए । इस प्रकार एक दिशा के बारह उपवास एक बेला और तेरह पारणाएँ होती हैं । यह व्रत पूर्व दिशा से प्रारंभ कर दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा के क्रम से चारों दिशाओं में करना चाहिए । इसमें अड़तालीस उपवास, चार बेला और बावन पारणाएं हैं । इस तरह यह व्रत एक सौ आठ दिन में पूर्ण होता है । यह नंदीश्वर व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है और जिनेंद्र तथा चक्रवर्ती के पद को प्राप्त कराने वाला है ॥ 84॥
मेरुपंक्तिव्रतविधि― जंबूद्वीप का एक, धातकीखंड पूर्वदिशा का एक, धातकीखंड पश्चिम दिशा का एक, पुष्करार्ध पूर्वदिशा का एक और पुष्करार्ध पश्चिम दिशा का एक इस प्रकार कुल पाँच मेरुपर्वत हैं । प्रत्येक मेरुपर्वत पर भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुक ये चार वन हैं और एक-एक वन में चार-चार चैत्यालय हैं । मेरुपंक्तिव्रत में वनों को लक्ष्य कर बेला और चैत्यालयों को लक्ष्य कर उपवास करने पड़ते हैं । इस प्रकार इस व्रत में पांचों मेरु संबंधी अस्सी चैत्यालयों के अस्सी उपवास और बीस वन संबंधी बीस बेला करने पड़ते हैं तथा सौ स्थानों की सौ पारणाएँ होती हैं । इसमें दो सौ बीस दिन लगते हैं । व्रत, जंबूद्वीप के मेरु से शुरू होता है । इसमें प्रथम ही भद्रशाल वन के चार चैत्यालयों के चार उपवास; चार पारणाएँ और वनसंबंधी एक बेला, एक पारणा होती है । फिर नंदन वन के चार चैत्यालयों के चार उपवास, चार पारणाएँ और वन संबंधी एक बेला एक पारणा होती है । फिर सौमनस वन के चार चैत्यालयों के चार उपवास चार पारणाएँ और वन संबंधी एक बेला एक पारणा होती है । तदनंतर पांडुक वन के चार चैत्यालयों के चार उपवास चार पारणाएँ और वन संबंधी एक बेला एक पारणा होती है । इसी क्रम से धातकीखंड द्वीप के पूर्व और पश्चिम मेरु तथा पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व और पश्चिम मेरु संबंधी उपवास बेला और पारणाएं जानना चाहिए । यह मेरुपंक्तिव्रत, मेरु पर्वत पर महाभिषेक को प्राप्त कराता है अर्थात् इस व्रत का पालन करने वाला पुरुष तीर्थकर होता है ॥ 85 ॥
विमानपंक्तिविधि― इंद्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक के भेद से विमान तीन प्रकार के हैं । इंद्रकविमान बीच में है और श्रेणीबद्ध विमान चारों दिशाओं में श्रेणीरूप से स्थित हैं । ऋतुविमान को आदि लेकर इंद्रकविमानों की संख्या त्रेसठ है । विमानपंक्तिव्रत में इनकी चारों दिशाओं में श्रेणीबद्ध विमानों की अपेक्षा चार उपवास, चार पारणाएं और इंद्रक की अपेक्षा एक बेला एक पारणा होती है । इस तरह त्रेसठ इंद्रकविमानों को चार-चार श्रेणियों की अपेक्षा चार-चार उपवास होने से ये दो सौ बावन उपवास तथा त्रेसठ इंद्रक संबंधी त्रेसठ बेला होते हैं । त्रेसठ बेला के बाद एक तेला होता है इस प्रकार उपवास 252 बेला 63 और तेला 1 सब मिलाकर तीन सौ सोलह स्थान होते हैं अतः इतनी ही पारणाएं होती हैं । यह व्रत पूर्व, दक्षिण पश्चिम और उत्तरदिशा के क्रम से होता है । चारों दिशाओं के चार उपवास के बाद बेला होता है । इसमें कुल छह सौ सत्तानवे दिन लगते हैं । यह व्रत विमानों की ईश्वरता प्राप्त कराने वाला है अर्थात् इस व्रत का करने वाला मनुष्य विमानों का स्वामी होता है ॥ 86॥
शातकुंभविधि― -शातकुंभविधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है उनमें जघन्य शातकुंभ विधि इस प्रकार है । एक ऐसा प्रस्तार बनावे जिसमें एक से लेकर पाँच तक के अक्षर पांच, चार, तीन, दो, एक के क्रम से लिखे । तदनंतर प्रथम अंक अर्थात् पांच को छोड़कर अवशिष्ट अंकों को चार, तीन, दो, एक के क्रम से तीन बार लिखे । सब अंकों का जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जाने । इस विधि में पैंतालीस उपवास और सत्तरह पारणाएं हैं, यह बासठ दिन में पूर्ण होता है । प्रस्तार का आकार इस प्रकार है
5 4 3 2 1 4 3 2 1 4 3 2 1 4 3 2 1
मध्यमशातकुंभविधि― एक ऐसा प्रस्तार बनावे जिसमें एक से लेकर नौ पर्यंत तक के अंक नौ, आठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो, एक के क्रम से लिखे । तदनंतर प्रथम अंक अर्थात् नो को छोड़कर आठ-सात आदि के क्रम से अवशिष्ट अंकों को तीन बार लिखे । सब अंकों का जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जाने । इस व्रत में एक सौ त्रेपन उपवास और तैंतीस पारणाएँ हैं । यह व्रत एक सौ छियासी दिन में पूर्ण होता है । इसका प्रस्तार इस प्रकार है―
उत्कृष्ट शातकुंभ विधि― एक ऐसा प्रस्तार बनावे जिसमें एक से लेकर सोलह तक के अंक सोलह पंद्रह चौदह आदि के क्रम से एक तक लिखे फिर प्रथम अंक को छोड़कर अवशिष्ट अंकों का जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएँ जाने । इस व्रत में चार सौ छियानवे उपवास और इकसठ पारणाएँ हैं । यह विधि पाँच सौ संतावन दिन में पूर्ण होती है । इसका प्रस्तार इस प्रकार है―
यह विधि सुवर्णमय कलशों से अभिषेक संबंधी सुख को देने वाली है । यह इन तपों की विधि कही है परंतु जो मनुष्य इनके करने में असमर्थ हैं वे अपनी शक्ति के अनुसार आत्महित में प्रवृत्त होते हुए उपवास, बेला तथा तेला के द्वारा भी उपवासों की निश्चित संख्या पूरी कर सकते हैं ॥ 87-89॥
चांद्रायणविधि― चांद्रायण व्रत चंद्रमा की सुंदरगति के अनुसार होता है । इस व्रत को करने वाला अमावस्या के दिन उपवास करता है फिर प्रतिपदा को एक कवल― एक ग्रास मात्र आहार लेता है । तदनंतर द्वितीयादि तिथियों में एक-एक ग्रास बढ़ाता हुआ चतुर्दशी को चौदह कवल का आहार करता है । पूर्णिमा के दिन उपवास करता है फिर चंद्रमा की कलाओं के अनुसार
कवलचांद्रायणविधियंत्र―
एक-एक कवल घटाता हुआ चौदह, तेरह, बारह आदि कवलों का आहार लेता है और अंत में अमावस्या को पुनः उपवास करता है । यह व्रत इकतीस दिन में पूर्ण होता है और यश को विस्तृत करने वाला है अतः इस व्रत को करने वाला यश को प्राप्त होता है ॥ 90॥
सप्तसप्तमतपोविधि― जिसमें पहले दिन उपवास और उसके बाद एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए आठवें दिन सात ग्रास का आहार लिया जाये फिर एक-एक ग्रास घटाते हुए अंतिम दिन उपवास किया जाय । इसी प्रकार की क्रिया सात बार की जाय । वह सप्तसप्तमविधि है ॥91॥
अष्टअष्टम, नवनवमादिविधि― सप्तसप्तमविधि के अनुसार अष्टअष्टम, नवनवम, दशदशम, एकादशएकादश और द्वादशद्वादश को आदि लेकर द्वात्रिंशद्वात्रिंशद् तक की विधि भी इसी प्रकार जानना चाहिए । जितनेवीं विधि प्रारंभ की जावे उसमें प्रथम दिन उपवास रखकर एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए उतने ग्रास तक आहार लेना चाहिए । फिर एक-एक ग्रास घटाते हुए एक ग्रास तक आवे और अंतिम दिन का उपवास रखना चाहिए । मनुष्य का स्वाभाविक भोजन बत्तीस ग्रास बतलाया है, अतः यह व्रत भी बत्तीस ग्रास तक ही सीमित रखा गया है ॥92॥ अथवा सप्तसप्तमविधि का एक दूसरा क्रम यह भी बतलाया गया है कि पहले दिन उपवास न कर क्रम से एक, दो, तीन, चार, पांच, छह और सात कवल का आहार ले जब एक दौर पूर्ण हो जावे तो यही क्रम फिर करे । इस तरह सात बार इस क्रम के कर चुकने पर यह व्रत पूर्ण होता है ॥ 93 ॥ अष्टअष्टम आदि विधियों में भी यही क्रम जानना चाहिए । इनमें क्रम से एक उपवास से प्रारंभ कर एक-एक ग्रास बढ़ाते जाना चाहिए ॥94॥
आचाम्लवर्धमानविधि― आचाम्लवर्धमान विधि में पहले दिन उपवास करना चाहिए दूसरे दिन एक बेर बराबर भोजन करना चाहिए, तीसरे दिन दो बेर बराबर, चौथे दिन तीन बेर बराबर इस तरह एक-एक बेर बराबर बढ़ाते हुए ग्यारहवें दिन दस बेर बराबर भोजन करना चाहिए फिर दश को आदि लेकर एक-एक बेर बराबर घटाते हुए दशवें दिन एक बेर बराबर भोजन करना चाहिए और अंत में एक उपवास करना चाहिए । इस व्रत के पूर्वार्ध के दश दिनों में निर्विकृति-नीरस भोजन लेना चाहिए और उत्तरार्द्ध के दश दिनों में इक्कट्ठाणा के साथ अर्थात् भोजन के लिए बैठने पर पहली बार जो भोजन परोसा जाये उसे ग्रहण करना चाहिए । दोनों ही अर्ध में भोजन का परिमाण ऊपर लिखे अनुसार ही समझना चाहिए । ये आचाम्ल वर्धमान तप की विधियाँ क्रम से करनी चाहिए ॥95-96॥
श्रुतविधि― श्रुतविधि उपवास में मतिज्ञान के अट्ठाईस, ग्यारह अंगों के ग्यारह, परिकर्म के दो, सूत्र के अठासी, प्रथमानुयोग और केवलज्ञान के एक-एक, चौदह पूर्वो के चौदह, अवधिज्ञान के छह, चूलिका के पांच और मनःपर्ययज्ञान के दो इस प्रकार एक सौ अट्ठावन उपवास करने पड़ते हैं । एक-एक उपवास के बाद एक-एक पारणा होती है इसलिए यह व्रत तीन सौ सोलह दिनों में पूर्ण होता है ॥97॥
दर्शनशुद्धिविधि― दर्शनविशुद्धि नामक तप की विधि में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीन सम्यग्दर्शनों के निःशंकित आदि आठ-आठ अंगों की अपेक्षा चौबीस उपवास होते हैं । एक-एक उपवास के बाद एक-एक पारणा होती है । इस तरह यह व्रत अड़तालीस दिन में समाप्त होता है ॥ 98॥
तपःशुद्धि विधि― बाह्य और अभ्यंतर के भेद से तप के दो भेद हैं । उनमें बाह्य तप के अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह भेद हैं और अभ्यंतर तप के प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और कायोत्सर्ग ये छह भेद हैं । इनमें अनशनादि बाह्य तपों के क्रम से दो, एक, एक, पाँच, एक और एक इस प्रकार ग्यारह पवित्र उपवास होते हैं और प्रायश्चित्त आदि छह अंतरंग तपों के क्रम से उन्नीस, तीस, दश, पांच, दो और एक इस प्रकार सड़सठ उपवास होते हैं । दोनों भेदों के मिलाकर अठहत्तर उपवास होते हैं । ये सब उपवास पृथक्-पृथक् होते हैं अर्थात् एक उपवास के बाद एक पारणा होती है ॥ 99 ॥
चारित्रशुद्धि विधि― पांच महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति के भेद से चारित्र के तेरह भेद हैं । चारित्रशुद्धि विधि में इन सबकी शुद्धि के लिए पृथक्-पृथक् उपवास करने की प्रेरणा दी गयी है । प्रथम ही अहिंसा महाव्रत है सो 1 बादर एकेंद्रियपर्याप्तक, 2 बादर एकेंद्रिय अपर्याप्तक, 3 सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्तक, 4 सूक्ष्म एकेंद्रिय अपर्याप्तक, 5 द्वींद्रिय पर्याप्तक, 6 द्वींद्रिय अपर्याप्तक, 7 त्रींद्रिय पर्याप्तक, 8 त्रींद्रिय अपर्याप्तक, 9 चतुरिंद्रिय पर्याप्तक, 10 चतुरिंद्रिय अपर्याप्तक, 11 संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तक, 12 संज्ञी पंचेंद्रिय अपर्याप्तक, 13 असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तक और 14 असंज्ञी पंचेंद्रिय अपर्याप्तक । इन चौदह प्रकार के जीवस्थानों की हिंसा का त्याग मन-वचन काययोग तथा कृत कारित अनुमोदना इन नौ कोटियों से करना चाहिए । इस अभिप्राय को लेकर प्रथम अहिंसा व्रत के एक सौ छब्बीस उपवास होते हैं और एक-एक उपवास के बाद एक-एक पारणा होने से एक सौ छब्बीस ही पारणाएं होती हैं ॥100॥
दूसरा सत्य महाव्रत है सो 1 भय, 2 ईर्ष्या, 3 स्वपक्षपुष्टि, 4 पैशुन्य, 5 क्रोध, 6 लोभ, 7 आत्मप्रशंसा और 8 परनिंदा-― इन आठ निमित्तों से बोले जाने वाले असत्य का पूर्वोक्त नौ कोटियों से त्याग करना चाहिए । इस अभिप्राय को लेकर द्वितीय सत्य महाव्रत के बहत्तर उपवास होते हैं तथा उपवास के बाद एक-एक पारणा होने से बहत्तर ही पारणाएं होती हैं ॥101॥
तीसरा अचौर्य महाव्रत है सो 1 ग्राम, 2 अरण्य, 3 खलिहान, 4 एकांत, 5 अन्यत्र, 6 उपधि, 7 अभुक्तक और 8 पृष्ठ ग्रहण― इन आठ भेदों से होने वाली चोरी का पूर्वोक्त नौ कोटियों से त्याग करना चाहिए । इस अभिप्राय को लेकर तृतीय अचौर्य महाव्रत में बहत्तर उपवास होते हैं तथा प्रत्येक उपवास को एक-एक पारणा होने से बहत्तर ही पारणाएँ होती हैं ॥102 ॥
चौथा ब्रह्मचर्य महाव्रत है सो मनुष्य, देव, अचित्त और तिर्यंच इन चार प्रकार की स्त्रियों का प्रथम ही स्पर्शनादि पाँच इंद्रियों और तदनंतर पूर्वोक्त नौ कोटियों से त्याग करना चाहिए । इस अभिप्राय को लेकर 5×4 = 20×9=180 एक सौ अस्सी उपवास होते हैं और इतनी ही पारणाएँ होती हैं ॥103 ॥
पांचवां परिग्रह त्याग महाव्रत है । सो चार कषाय, नौ नोकषाय और एक मिथ्यात्व इन चौदह प्रकार के अंतरंग और दोपाये, (दासो-दास आदि) चौपाये, (हाथी-घोड़ा आदि) खेत, अनाज, वस्त्र, बर्तन, सुवर्णादि धन, यान (सवारी), शयन और आसन-इन दस के बाह्य, दोनों मिलाकर चौबीस प्रकार के परिग्रह का नौ कोटियों से त्याग करना चाहिए । इस अभिप्राय को लेकर परिग्रहत्याग महाव्रत में दो सौ सोलह उपवास होते हैं और उतनी ही पारणाएँ होती हैं ॥104-105 ॥
छठा रात्रिभोजन त्याग महाव्रत यद्यपि तेरह प्रकार के चारित्रों में परिगणित नहीं है तथापि गृहस्थ के संबंध से मुनियों पर भी असर आ सकता है अर्थात् गृहस्थ द्वारा रात्रि में बनायी हुई वस्तु को मुनि जान-बूझकर ग्रहण करे तो उन्हें रात्रिभोजन का दोष लग सकता है । इस प्रकार के रात्रिभोजन का नौ कोटियों से त्याग करना चाहिए तथा अनिच्छा― दूसरे की जबर्दस्ती से भी रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए । इस भावना को लेकर रात्रि भोजन त्यागव्रत में दश उपवास होते हैं और दश ही पारणाएं होती हैं ।
मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन तीन गुप्तियों तथा ईर्या, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति इन तीन समितियों में प्रत्येक के नो कोटियों की अपेक्षा नौ-नौ उपवास होते हैं अर्थात् तीन गुप्तियों के सत्ताईस उपवास और सत्ताईस पारणाएं हैं तथा उपरिकथित तीन समितियों के भी सत्ताईस उपवास और सत्ताईस पारणाएं जाननी चाहिए ॥106॥
भाषा समिति में 1 भावसत्य, 2 उपमासत्य, 3 व्यवहारसत्य, 4 प्रतीतसत्य, 5 संभावनासत्य, 6 जनपदसत्य, 7 संवृत्तिसत्य, 8 नामसत्य, 9 स्थापनासत्य और 10 रूपसत्य, इन दश प्रकार सत्य वचनों का नौ कोटियों से पालन करना पड़ता है । इस अभिप्राय को लेकर भाषा समिति में नब्बे उपवास होते हैं तथा इतनी ही पारणाएं होती हैं ॥107॥ और एषणा समिति में नौ कोटियों से लगने वाले छियालीस दोषों को नष्ट करने के लिए चार सौ चौदह उपवास होते हैं तथा उतनी ही पारणाएं होती हैं ॥108॥
इस प्रकार तेरह प्रकार के चारित्र को शुद्ध रखने के लिए चारित्र शुद्धिव्रत में सब मिलाकर एक हजार दो सौ चौंतीस उपवास कहे हैं तथा इतनी ही पारणाएं कही गयी हैं । इस व्रत में छह वर्ष दश माह आठ दिन लगते हैं । ॥109॥
एककल्याणविधि― पहले दिन नीरस आहार लेना; दूसरे दिन, दिन के पिछले भाग में अर्ध आहार लेना, तीसरे दिन एक स्थान― इक्काट्ठाना करना अर्थात् भोजन के लिए बैठने पर एक बार जो भोजन सामने आवे उसे ही ग्रहण करना, चौथे दिन उपवास करना और पांचवें दिन आचाम्ल इमली के साथ केवल भात ग्रहण करना, यह एक कल्याणक की विधि है ॥110॥
पंचकल्याणकविधि― जो विधि एक कल्याणव्रत में कही गयी है उसे समता, वंदना आदि आवश्यक कार्य करते हुए पाँच बार करना सो पंचकल्याणकविधि है । यह पंचकल्याणकविधि चौबीस तीर्थंकरों को लक्ष्य करके करना चाहिए॥111 ॥
शील कल्याणक विधि― चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत में जो एक सौ अस्सी उपवास बतलाये हैं । उनमें उपवास कर लेने पर शील कल्याणक विधि-व्रत पूर्ण होता है । एक उपवास एक पारण दूसरा उपवास दूसरी पारणा, इस क्रम से करने पर इस व्रत में 360 दिन लगते हैं ।
भावनाविधि― अहिंसादि महाव्रतों में प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएं हैं । एकत्रित करने पर पांच व्रतों की पचीस भावनाएं होती हैं । उन्हें लक्ष्य कर पचीस उपवास करना तथा एक-एक उपवास के बाद एक-एक पारणा करना, यह भावना विधि नाम का व्रत है । यह पचास दिन में पूर्ण होता है ॥ 112॥
पंचविंशति कल्याण भावना विधि― पचीस कल्याण भावनाएं हैं, उन्हें लक्ष्य कर पचीस उपवास करना तथा उपवास के बाद पारणा करना यह पंचविंशति कल्याण भावना व्रत विद्वानों के द्वारा कहा गया है ॥ 113॥ 1सम्यक्त्व भावना, 2 विनय भावना, 3ज्ञान भावना, 4 शील भावना, 5 सत्य भावना, 6 श्रुत भावना, 7 समिति भावना, 8 एकांत भावना, 9 गुप्ति भावना, 10 ध्यानभावना, यान भावना, 12 संक्लेश निरोध भावना, 13 इच्छा निरोध भावना, 14 संवर भावना, 15 प्रशस्तयोग, 16 संवेग भावना, 17 करुणा भावना, 18 उद्वेग भावना, 19 भोगनिर्वेद भावना, 20 संसारनिर्वेद भावना, 21 भुक्तिवैराग्य भावना, 22 मोक्षभावना, 23 मैत्री भावना, 24 उपेक्षा भावना और 25 प्रमोद भावना, ये पचीस कल्याण भावनाएं हैं ॥114-116 ॥
दुःखहरण विधि― दुःखहरण विधि में सर्वप्रथम विद्वानों को सात भूमियों को जघन्य और उत्कृष्ट आयु की अपेक्षा चौदह उपवास करना चाहिए ॥117 ॥ तदनंतर तिर्यंचगति के पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों की द्विविध आयु की अपेक्षा चार उपवास करना चाहिए । उसके बाद मनुष्य गति के पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों की द्विविध आयु की अपेक्षा चार उपवास करना चाहिए । फिर देवगति में ऐशान स्वर्ग तक के दो, उसके आगे अच्युत स्वर्ग तक के बाईस, फिर नौ ग्रैवेयकों के अठारह, नौ अनुदिशों के दो और पंचानुत्तर विमानों के दो इस प्रकार सब मिलाकर अड़सठ उपवास करना चाहिए । इस व्रत में दो उपवास के बाद एक पारणा होती है । इस तरह अड़सठ उपवास और चौंतीस पारणा दोनों को मिलाकर यह विधि एक सौ दो दिन में पूर्ण होती है । इस विधि के करने से सब दुःख दूर हो जाते हैं ॥118-120॥
कर्मक्षय विधि― कर्मक्षय विधि में नाम कर्म की तेरानवें प्रकृतियों को आदि लेकर समस्त कर्मों की जो एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियाँ हैं उन्हें लक्ष्य कर एक सौ अड़तालीस उपवास करना चाहिए । इसमें एक उपवास के बाद एक पारणा होती है । इस प्रकार उपवास और पारणा दोनों को मिलाकर दो सौ छियानवे दिन में यह व्रत पूर्ण होता है । इस व्रत के प्रभाव से कर्मों का क्षय होता है ॥ 121॥
जिनेंद्रगुणसंपत्ति विधि― जिसमें पाँच कल्याणकों के पांच, चौंतीस अतिशयों के चौंतीस, आठ प्रातिहार्यों के आठ और सोलह कारण भावनाओं के सोलह इस प्रकार त्रेसठ उपवास किये जावें तथा एक-एक उपवास के बाद एक-एक पारणा की जावे उसे जिनेंद्र गण संपत्ति व्रत कहते हैं । यह व्रत एक सौ छब्बीस दिन में पूर्ण होता है । इस व्रत के प्रभाव से जिनेंद्र भगवान् के गुणों की प्राप्ति होती है अर्थात् इसका आचरण करने वाला तीर्थंकर होता है ॥122॥
दिव्यलक्षणपंक्तिविधि― बत्तीस व्यंजन, चौंसठ कला और एक सौ आठ लक्षण इस प्रकार दो सौ चार लक्षणों की अपेक्षा जिसमें दो सौ चार उपवास किये जावें उसे दिव्यलक्षण विधि कहते हैं । इसमें एक उपवास के बाद एक पारणा होती है अतः दोनों के मिलाकर चार सौ आठ दिन में यह व्रत पूर्ण होता है । इस व्रत के प्रभाव से यह जीव अत्यंत महान होता है तथा उसके अत्यंत श्रेष्ठ दिव्यलक्षणों की पंक्ति प्रकट होती है ॥ 123 ॥
धर्मचक्र विधि― धर्मचक्र में हजार अराएँ होती हैं । उनमें प्रत्येक अरा की अपेक्षा एक उपवास लिया गया है, इसलिए इस व्रत में हजार उपवास हैं तथा स्थान भी हजार हैं इसलिए पारणा भी हजार समझनी चाहिए । इस तरह उपवास और पारणा इसमें कुल दो हजार हैं । एक उपवास एक पारणा, पुनः एक उपवास एक पारणा इसी क्रम से इस व्रत का आचरण करना चाहिए । इस व्रत के आदि और अंत में एक-एक वेला करना आवश्यक है । यह व्रत दो हजार चार दिन में समाप्त होता है और इससे धर्मचक्र की प्राप्ति होती है ।
परस्परकल्याणविधि― पाँच कल्याणकों के पाँच उपवास आठ प्रातिहार्यों के आठ और चौंतीस अतिशयों के चौंतीस इस प्रकार ये सैंतालीस उपवास हैं । इन सैंतालीस को चौबीस बार गिनने पर जितनी संख्या सिद्ध हो उतने तो इस विधि में उपवास समझना चाहिए और जितने स्थान हों उतनी पारणा जाननी चाहिए । सैंतालीस को चौबीस बार गिनने से ग्यारह सौ अट्ठाईस होते हैं, इसलिए इतने तो उपवास समझना चाहिए और स्थान भी ग्यारह सौ अट्ठाईस हैं इसलिए इतनी ही पारणा जाननी चाहिए । इस प्रकार इस व्रत में कुल उपवास और पारणा दो हजार दो सौ छप्पन हैं । इसके आचरण करने की विधि एक उपवास एक पारणा, पुनः एक उपवास एक पारणा इस प्रकार है । यह व्रत दो हजार दो सौ छप्पन दिन में समाप्त होता है । इसके प्रारंभ में एक वेला और अंत में एक तेला करना पड़ता है । यह व्रत आचरण करने वाले का कल्याण करने वाला है ॥124॥
इस प्रकरण में ऊपर जितनी विधियों का वर्णन किया गया है उन सबमें सामान्य रूप से यह दिखा देना आवश्यक है कि जहाँ उपवास के लिए चतुर्थक शब्द आया है वहाँ एक उपवास, जहाँ षष्ठ शब्द आया है वहाँ दो उपवास और जहाँ अष्टम शब्द आया है वहाँ तीन उपवास समझना चाहिए । इसी प्रकार दशम को आदि लेकर छह मास पर्यंत के उपवासों की संज्ञा जाननी चाहिए ॥125 ॥ प्रतिपदा से लेकर पंचदशी तक की तिथियों में उपवास करना चाहिए । ये उपवास अनेक भेदों को लिये हुए हैं और जैन मार्ग में इन्हें सब प्रकार के सुखों से संपन्न करने वाला कहा है ॥126 ॥ प्रतिवर्ष भादों सुदी सप्तमी के दिन उपवास करना चाहिए । यह परिनिर्वाण नामक विधि है तथा अनंत सुखरूपी फल को देने वाली है ॥127॥ भादों सुदी एकादशी के दिन उपवास करने से प्रातिहार्य प्रसिद्धि नाम की विधि होती है तथा यह पल्यों प्रमाणकाल तक सुखरूपी फल को फलती है । हर एक मास की कृष्ण पक्ष को एकादशियों के दिन किये हुए छियासी उपवास अनंत सुख को उत्पन्न करते हैं ॥ 128॥ मार्गशीर्ष सुदी तृतीया के दिन उपवास करना अनंत मोक्ष फल को देने वाला है तथा इसी मास की चतुर्थी के दिन वेला करने से विमान पंक्ति वैराग्य नाम की विधि होती है और उसके फलस्वरूप विमानों की पंक्ति का राज्य प्राप्त होता है ॥ 129 ॥ इन ऊपर कही हुई विधियों में मनुष्यों को यथाशक्ति विधियाँ करनी चाहिए क्योंकि वे साक्षात् और परंपरा से स्वर्ग और मोक्ष संबंधी सुख के कारण हैं ॥130॥ इस प्रकार कही हुई विधियों के कर्ता सुप्रतिष्ठ मुनि राजने उस समय निर्मल सोलह कारण भावनाओं के द्वारा तीर्थकर नामकर्म का बंध किया ॥131 ॥
जिनेंद्र भगवान् के द्वारा कथित समीचीन मोक्षमार्ग में निःशंकता आदि आठ गुणों से सहित जो श्रद्धा है उसे दर्शनविशुद्धि कहते हैं । यह तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रथम कारण है ॥132 ॥ ज्ञानादि गुणों और उनके धारकों में कषाय को दूर कर जो महान् आदर करना है वह तीर्थंकर प्रकृति के बंध में कारणभूत विनयसंपन्नता नाम की दूसरी भावना है ॥ 133 ॥ शीलव्रतों की रक्षा में मन, वचन और काय की जो निर्दोष प्रवृत्ति है उसे मार्ग में उद्युक्त पुरुषों को शुद्ध शीलवतेष्वनती चार नाम की भावना जाननी चाहिए ॥134॥ अज्ञान की निवृत्तिरूप फल से युक्त तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों से सहित ज्ञान में निरंतर उपयोग रखना सो अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना है ॥ 135 ॥ जन्म, जरा, मरण तथा रोग आदि शारीरिक और मानसिक दुःखों के भार से युक्त संसार से भय भीत होना सो विषयरूपी तृषा को छेदने वाली संवेग भावना है ॥136॥ जिस दिन आहार ग्रहण किया जाता है उस दिन एवं पर्याय संबंधी दुःख को दूर करने वाला आहारदान, अभयदान और संसार के दुःख को हरने वाला ज्ञान महादान शक्ति के अनुसार देना सो त्याग नाम की भावना है ॥137॥ शक्ति को नहीं छिपाने वाले एवं विनाशीक, अपवित्र और मृतक के समान शरीर को, कार्य में लगाने वाले पुरुष का मोक्षमार्ग के अनुरूप जो उद्यम है वह तप नाम की भावना है ॥ 138॥ भंडार में लगी हुई अग्नि को उपशांत करने के समान आगत विघ्नों को नष्ट कर साधुजनों के तप की रक्षा करना सो साधुसमाधि नाम की भावना है ॥ 139 ॥ गुणवान् साधुजनों के क्षुधा, तृषा, व्याधि, आदि से उत्पन्न दुःख को प्रासुक द्रव्यों के द्वारा दूर करने का प्रयत्न करना सो वैयावृत्य भावना है ॥140 ॥ अर्हंत में जो अनुराग है, आचार्य में जो अनुराग है, बहुश्रुत― अनेक शास्त्रों के ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठी में जो अनुराग है और प्रवचन में जो विनय है वह क्रम से अर्हद् भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति और प्रवचन भक्ति नामक चार भावनाएं हैं ॥ 141॥ सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाओं की नियत समय में प्रवृत्ति करना सो आवश्यकापरिहाणि नामक भावना है ॥ 142 ॥ समस्त सावद्य योगों का त्याग कर चित्त को एक पदार्थ में स्थिर करना सो सामायिक है । चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का कथन करना सो स्तुति है ॥ 143 ॥ जिन प्रवृत्तियों में दो आसन, निर्दोष बारह आवर्त और चार शिरोनतियों की जाती हैं उन्हें विद्वज्जन वंदनीय वंदना कहते हैं ॥144॥ द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव के विषय में किये हुए प्रमाद का मन, वचन, काय की शुद्धि से निराकरण करना सो प्रतिक्रमण है ॥145 ॥ आगंतुक― आगामी दोषों का निराकरण करना प्रत्याख्यान कहलाता है और निश्चित समय तक शरीर में ममता का त्याग करना कायोत्सर्ग है ॥146 ॥ अन्य मतों के खंडन करने में समर्थ ज्ञान, तपश्चरण एवं जिनेंद्र भगवान् की महामह-पूजाओं से संसार में मोक्षमार्ग का प्रकाश करना मार्ग प्रभावना है ॥147॥ जिस प्रकार गाय का अपने बछड़े में स्नेह होता है उसी प्रकार उत्सुकता से युक्त बुद्धि वाले मनुष्य का सहधर्मी भाई में जो स्नेह है उसे प्रवचनवात्सल्य कहते हैं क्योंकि सहधर्मी से जो स्नेह है वह प्रवचन से ही स्नेह है ॥148॥ सत्पुरुषों के द्वारा निरंतर चिंतन की हुई उक्त सोलह भावनाएँ, पृथक्-पृथक् अथवा समुदाय रूप से तीर्थंकर नामकर्म के बंध की कारण हैं ॥149 ॥
इस प्रकार तीनों लोकों के आसनों को कंपित करने में समर्थ तीर्थंकर प्रकृति नामक महापुण्य प्रकृति के बंध करने वाले सुप्रतिष्ठ मुनिराज ने, एक मास के आहार का त्याग कर दिया तथा विशुद्ध बुद्धि के धारक हो विद्वज्जनों के द्वारा स्तुत चार प्रकार की आराधनाओं की अच्छी तरह आराधना की जिससे बाईस सागर की स्थिति के धारक हो विशाल सुख से युक्त जयंत स्वर्ग ( जयंत नामक अनुत्तर विमान ) में उत्पन्न हुए ॥150॥ अब जिन्होंने तीन सम्यग् ज्ञानरूपी नेत्रों से तीन लोक के पदार्थों की स्थिति को देख लिया है ऐसे सुप्रतिष्ठ मुनिराज, जयंत विमान में अहमिंद्रों के योग्य, संसार के सारभूत अनुपम सुख का उपभोग कर वहाँ से च्युत होंगे और राजा समुद्रविजय की शिवा देवी से हरिवंशरूपी पर्वत के तिलक स्वरूप नेमीश्वर नाम के कल्याणकारी बाईसवें तीर्थंकर होंगे ॥15॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में महोपवास विधि का वर्णन करने वाला चौतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥34॥