चार्वाक
From जैनकोष
- सामान्य परिचय
स्याद्वादमंजरी/ परिशिष्ठ/443-444
=सर्वजनप्रिय होने के कारण इसे ‘चार्वाक’ संज्ञा प्राप्त है। सामान्य लोगों के आचरण में आने के कारण ‘लोकायत’ कहते हैं। आत्मा व पुण्य-पाप आदि का अस्तित्व न मानने के कारण यह मत ‘नास्तिक’ कहलाता है। व धार्मिक क्रियानुष्ठानों का लोप करने के कारण ‘अक्रियावादी’। इसके मूल प्रवर्तक बृहस्पति आचार्य हुए हैं, जिन्होंने बृहस्पति सूत्र की रचना की थी। आज यद्यपि इस मत का अपना कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है, परंतु ई.पूर्व 550-500 के अजितकेश कंबली कृत बौद्ध सूत्रों में तथा महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। इनके साधु कापालिक होते हैं। अपने सिद्धांत के अनुसार वे मद्य व माँस का सेवन करते हैं। प्रतिवर्ष एकत्रित होकर स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हैं। (षड्दर्शन समुच्चय/80-82/74-77। - जैन के अनुसार इस मत की उत्पत्ति का इतिहास
धर्म परीक्षा/18/55-59
भगवान् आदिनाथ के साथ दीक्षित हुए अनेक राजा आदि जब क्षुधा आदि की बाधा न सह सके तो भ्रष्ट हो गये। कच्छ-महाकच्छ आदि राजाओं ने फल-मूल आदि भक्षण करना प्रारंभ कर दिया और उसी को धर्म बताकर प्रचार किया। शुक्र और बृहस्पति राजाओं ने चार्वाक मत की प्रवृत्ति की। - इस मत के भेद
ये दो प्रकार के हैं–धूर्त व सुशिक्षित। पहले तो पृथिवी आदि भूतों के अतिरिक्त आत्मा को सर्वथा मानते ही नहीं और दूसरे उसका अस्तित्व स्वीकार करते हुए भी मृत्यु के समय शरीर के साथ उसको भी विनष्ट हुआ मानते हैं ( स्याद्वादमंजरी/ परिशिष्ठ/पृष्ठ 443)। - प्रमाण व सिद्धांत
केवल इंद्रिय प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं, इसलिए इस लोक तथा ऐंद्रिय सुख को ही सार मानकर खाना-पीना व मौज उड़ाना ही प्रधान धर्म मानते हैं ( स्याद्वादमंजरी/ परिशिष्ठ/पृष्ठ 444)।
युक्त्यनुशासन/35 मद्यांगवद्भूतसमागमे ज्ञ:, शक्त्यंतर-व्यक्तिरदैवसृष्टि:।इत्यात्मशिश्नोदरपुष्टितुष्टैर्निर्ह्नीभयैर्हा ! मृदव: प्रलब्धा:।35। =जिस प्रकार मद्यांगों के समागम पर मदशक्ति की उत्पत्ति अथवा आविर्भूति होती है उसी तरह पृथिवी, जल आदि पंचभूतों के समागम पर चैतन्य अभिव्यक्त होता है, कोई दैवी सृष्टि नहीं है। इस प्रकार यह जिन (चार्वाकों) का मत है, उन अपने शिश्न और उदर की पुष्टि में ही संतुष्ट रहने वाले, अर्थात् खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ के सिद्धांतवाले, उन निर्लज्जों तथा निर्भयों द्वारा हा ! कोमलबुद्धि ठगे गये हैं (षट्दर्शन समुच्चय/84-85/78); (सप्तभंगी तरंगिनी/92/1)।
देखें अनेकांत - 2.9 (यह मत व्यवहार नयाभासी है)।