योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 395
From जैनकोष
परिग्रहासक्त को आत्माराधना असंभव -
आरम्भोsसंयमो मूर्च्छा कथं तत्र निषिध्यते ।
परद्रव्यरतस्यास्ति स्वात्म-सिद्धि: कुतस्तनी ।।३९५।।
अन्वय :- तत्र (पूर्वोक्त-स्थितौ) आरम्भ: असंयम: (तथा) मूर्च्छा कथं निषिध्यते ? पर-द्रव्य-रतस्य स्वात्म-सिद्धि: कुतस्तनी अस्ति ।
सरलार्थ :- वस्त्र-पात्रादि की व्यवस्था करते हुए आरम्भ, असंयम तथा ममता का निषेध कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता और इसतरह परद्रव्य में आसक्त साधु के स्वात्मसिद्धि कैसी? अर्थात् नहीं हो सकती ।