योगसार - जीव-अधिकार गाथा 46
From जैनकोष
केवलज्ञान, आत्मा का उत्तम स्वरूप -
स्वसंविदितमत्यक्षमव्यभिचारि केवलम् ।
नास्ति ज्ञानं परित्यज्य रूपं चेतयितु: परम् ।।४६।।
अन्वय :- अत्यक्षं स्वसंविदितं अव्यभिचारि केवलं ज्ञानं परित्यज्य चेतयितु: परं रूपं नास्ति ।
सरलार्थ :- जो ज्ञान इन्द्रियों की सहायता से रहित है, जिसका कभी भी संशय-विपर्ययादिरूप अन्यथा परिणमन नहीं होता, उस केवलज्ञान को छोड़कर आत्मा का दूसरा कोई उत्तम स्वरूप नहीं है ।